रजनी का क्रूर विकट क्रंदन
प्रतिपद प्राणों का अवमंंदन
निर्देशक कर बैठा मंचन।
नयनों से बहती अश्रुधार
ज्वाला की लपटें आरपार
सति का शव, शिव ने लिया धार।
मन में कौंधे कुत्सित विचार
माया विमुग्ध, बनता कहार
भावो का सरित, अजस्र धार।
मै प्रलयंकर, मैं महाकाल
मैं रूद्र परम्, मैं प्रखर ज्वाल
मेरा स्वरूप, क्रोधित कराल।
मैं जगविजयी, मैं जगकारण
मुझसे डरते , सुर, नर, रावण
मैं ही सृष्टा, पालक, तारण।
संरक्षित यदि नहीं रही सुसति
जग देखे अब अपनी कुगति
फल कैसी पाती है कुमति।
तांडव आतुर अब जगन्नाथ
प्रेतादिक सब अब हुए साथ
जग होना चाहे अब अनाथ।
ब्रह्मादिक सुर सब हुए मौन
जगरक्षण, उतरे कहो कौन
संस्तब्ध प्रकृति यह निखिल भौन।
हरि ने तब एक उपाय किया
अतिलघु स्वरूप निज धार लिया
निज चक्र सहित कटुघूँट पिया।
उस समय यज्ञभू डोल उठी
कुपित शिवा मुख खोल उठी
गणदल के हृदय हबोल उठी।
उस समय वहाँ प्रलयानल था
रण आतुर भूतों का दल था
अज डरा, मनस में जो मल था।
भृगु का सर मुंडित हुआ वहाँ
माता का घातक, दुष्ट कहाँ
हर और मुंड थे, यहाँ वहाँ।
ब्रह्मा का शिर ले वीरभद्र
रोये और नाचे, तनिक मद्र
अब कौन कहे वे सूक्त भद्र।
भैरव ने नृत्य कराल किया
अज माथहीन तत्काल किया
पदतल अपने, वह भाल किया।
हर ओर मचा था कोलाहल
मानों दाहक सा खुला गरल
बस त्राहि त्राहि कहता सुरदल।
तब विश्वंभर विकराल हुए
सब गण तत्क्षण नतभाल हुए
जब रक्षक ही जगकाल हुए।
सब नष्ट भ्रष्ट कर वह अध्वर
गूँजा वह क्रोधित कटुकस्वर
अब सत्य करो, सब कुछ नश्वर।
सति अंग उठा कर विश्वभंर
बढ़ चले, प्रबल माया के स्वर
तारक गण छोड़ चले अंबर।
पदतल का दुर्दम घमघमाट
कुपित कालिका रक्त चाट
शोणित सरिता के खड़ी घाट।
तब हरि ने अद्भुत किया कृत्य
देखा हर का वह प्रलय नृत्य
सति देह प्रविष्टित बने भृत्य।
शनै शनै कट रहे अंग
मानो कटता वह मोहसंग
पार्थिव तन होता है अनंग।
पावन वसुधा होती जाती
शक्तीपीठ, वर से पाती
जग को अद्भुत अनुपम थाती।
इक्कावन अंग विदेह हुए
संबंध तनिक से खेह हुए
अब शिथिल देह के स्नेह हुए।
मन में स्वात्म पद का परिचय
निर्भाव निरंतर का संचय
मिटता जाता है मोह अमय।
शिव के मन में उठते विचार
कहती सति ही, निज रूप धार
प्रभु क्षमा, यह दुख असार।
मैं देह नहीं, जो छिन जाऊँ
प्रिय प्राणेश्वर, मैं गुण गाऊँ
फल नाथ, अवज्ञा का पाऊँ।
हे आत्म मेरे, मैं सदा संग
तन का ही तो बस, हुआ भंग
सादर अर्पित. पर, मनस अंग।
तब जाग उठा अद्भुत विराग
माया निद्रा का हुआ त्याग
और जागे जगती के सुभाग।
*******************
उचित समयक्रम जान कर, हरि सम्मुख नत माथ।
कहा रोकिए यह प्रलय, माया प्रेरित नाथ।।
मेरी सति, कह रो पड़े, महाकाल योगीश।
विनय सहित कहने लगे, आप्त वचन जगदीश।।
सभी खेल प्रारब्ध के, संचित वा क्रियमाण।
होना ही था नाथ यह, निश्चित महाप्रयाण।।
पंचभूत मय देह का, अंत सुनिश्चित तात।
तव नियुक्त इस मृत्यु को, करना पड़ता घात।।
हे अनादि, इस शोक का, अब हो उपसंहार।
क्षमादान का दीजिए, हम सब को उपहार।।
यह सुन हो आत्मस्थ शिव, करने लगे विचार।
अरे, मोह का हो गया, कैसा आज प्रहार।।
शव तो शव है सति कहाँ, क्यों और कैसा मोह।
माया मुझ पर व्यापती, ज्यों सूरज पर कोह।।
भोले तत्क्षण हँस पड़े, बाजा डमरू नाद।
जय मायापति आपकी, हुआ सुखद संवाद।।
शेष देह को कर दिया, अग्न्यापर्ण शुभकृत्य।
देख ठठाकर हँस पड़े, भैरवादि सब भृत्य।।
भस्म हो रहे देह को, देख सोचते ईश।
सत्य जगत का है यही, पक्का बिस्वा बीस।।
यही सोच मलने लगे, निज अंगों पर खेह।
जगी परमशिव चेतना, जागे, हुए विदेह।।
भावमुग्ध गतक्षोभ अब, हुए सुखद शुभ शांत।
नृत्य मधुर करने लगे, लय थी अद्भुत कांत।।
******************
खेल रहे शिवशंकर होरी (गीत)
खेल रहे शिवशंकर होरी
भस्म गुलाल मले अंगहिँ, गणदल संग बहोरी।
चेत गई सब सुप्त चितायें, अगन बढ़ी घनघोरी।
तेहि महुँ ज्वालमाल से नाचें, देखो आज अघोरी।
खेल रहे शिवशंकर होरी।
विषय, काम, अरू क्रोध, भावना की जलती है होरी
भस्म उठाय कहे बाबाजी, सब प्रपंच झूठो री।
खेल रहे शिवशँकर होरी।
भूत प्रेत सब संग हो लिये, नागमुखी है कमोरी।
विष की धार छूटती जिससे, अद्भुत रंग जम्यो री।
खेल रहे शिवशंकर होरी।
विष्णु मृदंग बजावन हारे, ध्रुवपद राग उठ्यो री।
ताल देत हैं ब्रह्मा संग में, नृत्यत नाथ, अहो री।।
खेल रहे शिवशंकर होरी।
जो गावे यह शिव की होरी, ताँसों काम डर्यो री।
दास गोबिंदो विनय करत है, जय जय नाथ अघोरी।
खेल रहे शिवशंकर होरी।
सुप्रभात पटल
जय गोविंद शर्मा
लोसल
बहुत ही सुन्दर रचना हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteअद्भुत !
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचनाएँ , हिन्दी दिवस की बहुत शुभकामनायें जी ।
ReplyDelete