Sunday, September 18, 2022

छंदा सागर (छंद के घटक "वर्ण")

पाठ - 02


"छंदा सागर" ग्रन्थ

(छंद के घटक "वर्ण")

इस छंदा-सागर ग्रन्थ की रचना हिन्दी में प्रचलित वर्णिक, मात्रिक और वाचिक स्वरूप के छंदों को एक एक छंदा के रूप में पिरो कर आपके कर कमलों में प्रस्तुत करने के लिए की गयी है। छंदा वर्ण, गुच्छक और विभिन्न संकेतकों का एक विशिष्ट क्रम होती है जिसमें किसी एक छंद के पद की पूर्ण संरचना, मात्रा क्रम  और स्वरूप छिपा रहता है। छंद मात्राओं या वर्णों के विशिष्ट क्रम पर आधारित 2 से 6 पद की काव्यात्मक संरचना होती है। इस विशिष्ट क्रम के तीन घटक हैं जिनका नाम क्रमशः वर्ण, गुच्छक और छंदा दिया गया है। अब हम एक एक कर हर घटक का विस्तृत अध्ययन करेंगे। इस पाठ में हम प्रथम घटक 'वर्ण' का अध्ययन करने जा रहे हैं।

वर्ण :- हमारे इस विधान की लघुतम मूल इकाई 'वर्ण' के नाम से जानी जाती है। दो मूल वर्ण लघु और गुरु हैं जो कि एक वर्णी हैं तथा इनके मेल से हमें चार और द्विवर्णी वर्ण प्राप्त होते हैं। इस प्रकार इस नयी अवधारणा में कुल वर्ण 6 हैं।

अब आगे हम एक एक वर्ण का स्वरूप देखने जा रहे हैं :-

(1) लघु वर्ण: मात्रा =1; संकेत = ल या ला तथा 1 की संख्या।
अ, इ, उ, ऋ और इन स्वरों से युक्त समस्त व्यंजन और शब्द के आदि में आया संयुक्त वर्ण जैसे प्र स्व त्र क्ष आदि लघु मात्रिक होते हैं। जैसे - भृगु, तुम, रस में दोनों लघु हैं, प्रकृति, कमल में तीनों लघु हैं। अनुनासिक (चन्द्र बिंदु) से युक्त व्यंजन भी लघु होता है जैसे हँसना में हँ, मुँह में मुँ आदि।

(2) गुरु वर्ण: मात्रा = 2; संकेत = ग या गा तथा 2 की संख्या।
आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अनुस्वार और विसर्ग से युक्त समस्त व्यंजन गुरु होते हैं। संयुक्त वर्ण अपने आप में गुरु नहीं होता पर यह यदि शब्द के मध्य या अंत में हो तो इसके पूर्व का लघु गुरु हो जाता है या गुरु है तो गुरु ही रहता है। जैसे अस्त में अ, कक्ष में क, रिश्ता में रि, नाश्ता में ना आदि। इसके कुछ अपवाद भी हैं। अल्प प्राण वर्ण जो पाँच वर्ग के प्रथम और तृतीय अक्षर होते हैं उनमें 'ह' का संयोग होने से उनका महाप्राण रूप ख, घ, फ आदि के रूप में अलग वर्ण हैं जो वर्ग के द्वितीय और चतुर्थ अक्षर होते हैं। किंतु न, म और ल में ह का योग होने से अलग से अक्षर नहीं है। अतः लिखा तो न्ह, म्ह, ल्ह जाता है परन्तु शब्द में उसके पहले आये लघु को गुरुत्व प्राप्त नहीं होता जैसे तुम्हारा में तु, कन्हाई में क, मल्हार में म आदि। स में ह के योग के लिए श वर्ण है। य र में ह के योग का कोई शब्द ही नहीं है। इसमें भी उच्चारण के अनुसार कहीं कहीं अपवाद हैं। यो यौ से युक्त संयुक्त वर्ण से पहले आये लघु को भी गुरुत्व प्राप्त नहीं होता। जैसे कह्यो में क को सुन्यो में सु को।

वाचिक स्वरूप की छंदाओं में जब एक ही शब्द में दो लघु साथ साथ हों जैसे कि तुम, क-लश, मन-भा-वन आदि तो उन्हें गुरु वर्ण माना जाता है। इस उदाहरण में तुम, लश, मन, वन गुरु वर्ण हैं। इन्हें हम शास्वत दीर्घ कहते हैं। इन छंदाओं में यह शास्वत दीर्घ 2 स्वतंत्र लघु से भिन्न है। जैसे रूप छटा के प और छ दो स्वतंत्र लघु हैं जबकि पछताना में पछ मिलकर गुरु वर्ण है।

इन दो मूल वर्णों के संभावित योग से हमें 4 युग्म वर्ण प्राप्त होते हैं। मैने उनको भी वर्ण के अंतर्गत ही रखा है। उनका नामकरण भी उनकी संरचना के आधार पर ही किया गया है। ये चार युग्म वर्ण निम्न हैं:-

(3) इलगा वर्ण: मात्रा = 3; संकेत - लि या ली तथा 12- लघु वर्ण में गुरु वर्ण के संयोग से यह युग्म वर्ण बनता है। जैसे दया, कलश, खिला आदि। 

दो मूल वर्णों में गुरु वर्ण का संयोग उन वर्णों में 'ई' कार जोड़ के दर्शाया जाता है। जैसे लि, ली या गि, गी। 'इलगा' नाम में 'इ' संकेतक स्वर है तथा 'लगा' लघु गुरु वर्ण का द्योतक है।

(4) ईगागा वर्ण: मात्रा = 4; संकेत - गि या गी तथा 22- दो गुरु वर्ण का संयोग ईगागा वर्ण कहलाता है। यह युग्म वर्ण है। इसके उदाहरण हलचल, बरछी, पावन, कोई आदि हैं। यह दो शास्वत दीर्घ, शास्वत दीर्घ तथा गुरु, गुरु तथा शास्वत दीर्घ, या दो गुरु इन चार रूप में से किसी भी रूप में हो सकता है। वर्णिक स्वरूप में ईगागा वर्ण दो गुरु के रूप में रहता है, जैसे स्वामी, भाला आदि। वर्णिक में गुरु वर्ण को दो लघु में नहीं तोड़ा जा सकता।

(5) ऊलल वर्ण: मात्रा = 1+1; संकेत = लु या लू तथा 11-
'ऊलल' भी युग्म वर्ण है जो दो लघु के संयोग से बनता है। वाचिक स्वरूप की छंदाओं में ये दोनों लघु स्वतंत्र लघु होते हैं जो एक शब्द में साथ साथ नहीं हो सकते। एक शब्द में 2 लघु साथ होने से वह गुरु वर्ण माना जाता है जो शास्वत दीर्घ कहलाता है। एक शब्द में 'ऊलल' वर्ण तभी हो सकता है जब ऐसे एक या दोनों लघु की मात्रा, पतन के नियमों के अंतर्गत गिराई जाए। जैसे- हमें में ह और में को दो स्वतंत्र लघु के रूप में माना जा सकता है। बात बने' में त और ब स्वतंत्र लघु हैं और दोनों मिलकर 'ऊलल' वर्ण बनाते हैं; जबकि तब के यही त और ब मिलकर गुरु वर्ण है। मात्रिक और वर्णिक छंदों में स्वतंत्र लघु की अवधारणा नहीं है और इन छंदों में ऊलल वर्ण दो सामान्य लघु के रूप में ही प्रयुक्त होता है।

दो मूल वर्णों में लघु वर्ण का संयोग उन वर्णों में 'ऊ' कार जोड़ के दर्शाया जाता है। जैसे लु, लू या गु, गू। 'ऊलल' नाम में 'ऊ' संकेतक स्वर है तथा 'लल' दो लघु वर्ण का द्योतक है।

(6) ऊगाल वर्ण: मात्रा = 3; संकेत = गु या गू तथा 21- गुरु में लघु के संयोग से यह त्रिमात्रिक युग्म वर्ण बनता है। श्याम, राम, चन्द्र, भव्य, रात आदि इसके उदाहरण हैं।

संकेत के अनुसार वर्ण सारणी:-
ल, ला= 1 (लघु)
ग, गा = 2 (गुरु)
लि, ली = 12 (इलगा)
गि, गी = 22 (ईगागा)
लु, लू = 11 (ऊलल)
गु, गू = 21 (ऊगाल)

गुरु लघु की आदि और अंत की स्थिति के अनुसार वर्णों के चार भेद हैं। हर भेद में तीन तीन वर्ण हैं।
गुर्वादि वर्ण :- 2, 21, 22
लघ्वादि वर्ण :- 1, 11, 12
गुर्वंत वर्ण :- 2, 12, 22
लघ्वंत वर्ण :- 1, 11, 21

इस प्रकार कुल छह वर्णों में लघु और गुरु दो मूल वर्ण हैं तथा इन दोनों मूल वर्ण के संभावित संयोग से हमें चार द्वि वर्णी वर्ण प्राप्त होते हैं जो युग्म वर्ण कहलाते हैं। इनमें इलगा और ऊगाल दो वर्ण त्रिमात्रिक हैं। ये दोनों ही त्रिकल के अंतर्गत आते हैं जिसकी पूर्ण जानकारी कल आधारित पाठ में दी जायेगी। बाकी ऊलल में दो स्वतंत्र लघु हैं और ईगागा में दोनों गुरु वर्ण हैं। स्वतंत्र लघु की अवधारणा केवल वाचिक स्वरूप की छंदाओं में है। मात्रिक और वर्णिक में लघु सदैव सामान्य लघु रहते हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

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