तृतीय अध्याय (भाग -२)
जनक आदि ने कर्म से, प्राप्त किया निर्वाण।
श्रेष्ठ जनों का आचरण, जग में सदा प्रमाण।।२२।।
तुम भी बनो उदाहरण, जग समक्ष हे पार्थ।
जन-हित की रख भावना, कर्म करो लोकार्थ।।२३।।
मुझ ईश्वर का विश्व में, शेष न कछु कर्त्तव्य।
प्राप्तनीय भी कुछ नहीं, कर्म करूँ पर दिव्य।।२४।।
सावधान हो मैं न यदि, रहूँ कर्म संलग्न।
छिन्न भिन्न कर जग करूँ, लोक-आचरण भग्न।।२५।।
लोक-मान्यता ध्यान रख, ज्ञानी का हो आचरण।
लोगों पर डाले न वो, बुद्धि-भेद का आवरण।।२६।। उल्लाला छंद
करे स्वयं कर्त्तव्य अरु, प्रेरित अन्यों को करे।
अज्ञानी आसक्त की, मन की दुविधा वो हरे।।२७।। उल्लाला
प्रकृति जनित गुण से हुवे, कर्म सृष्टि के सारे।
अहम् भाव से मूढ़ पर, कर्ता खुद को धारे।।२८।। मुक्तामणि छंद
त्रीगुणाश्रित ये सृष्टि है, कर्म गुणों में अटके।
गुण ही कारण कार्य गुण, जो जाने नहिँ भटके।।२९।। मुक्तामणि छंद
गुण अरु कर्म रहस्य से, जो नर हैं अनभिज्ञ।
ऐसे गुण-सम्मूढ़ को, विचलित करे न विज्ञ।।३०।।
त्यज ममत्व आशा सभी, दोष-दृष्टि सन्ताप।
सौंप कर्म सब ही मुझे, युद्ध करो निष्पाप।।३१।।
मुझमें देखे दोष जो, सभी ज्ञान से भ्रष्ट।
यह मत जो मानें नहीं, उनको समझो नष्ट।।३२।।
परवश सभी स्वभाव के, विज्ञ न भी अपवाद।
क्या इसमें फिर कर सके, निग्रह दमन विषाद।।३३।।
सुख से सब को राग है, दुख से सब को द्वेष।
बाधा दे कल्याण में, दोनों का परिवेश।।३४।।
अनुपालन निज धर्म का, उत्तम यध्यपि हेय।
मरना भी इसमें भला, अन्य धर्म भय-देय।।३५।।
क्यों फिर हे माधव! कहो, पापों में नर मग्न।
बल से ज्यों उसको किया, बिन इच्छा संलग्न।।३६।।
देत रजोगुण कामना, उससे जन्मे क्रोध।
पार्थ परम वैरी समझ, दोनों का अवरोध।।३७।।
गर्भ अग्नि दर्पण ढके, जेर धूम्र अरु मैल।
त्यों विवेक अरु ज्ञान को, ढकता तृष्णा-शैल।।३८।।
अनल रूप यह कामना, कभी न जो हो शांत।
ज्ञानी जन के ज्ञान को, सदा रखे यह भ्रांत।।३९।।
इन्द्रिय मन अरु बुद्धि में, रहे काम का वास।
तृष्णा इनसे ही करे, ज्ञान मनुज का ह्रास।।४०।।
इन्द्रिय की गति साध, सभी दुख की प्रदायिनी।
प्रथम कामना मार, ज्ञान विज्ञान नाशिनी।।४१।। रोला छंद
तन से इन्द्रिय सूक्ष्म, इन्द्रियों से फिर मन है।
मन से पर है बुद्धि, अंत में आत्म-मनन है।।४२।। रोला
आत्म तत्व पहचान, हृदय में कर के मंथन।
अपने को तू तोल, काम-रिपु का कर मर्दन।।४३।। रोला
इति तृतीय अध्याय
रचयिता :
बासुदेव अग्रवाल
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