Sunday, December 11, 2022

छंदा सागर (छंद के घटक "छंदा")

                        पाठ - 05

छंदा सागर ग्रन्थ

(छंद के घटक "छंदा")

छंदा शब्द की व्युत्पत्ति छंद से हुई है। छंदा का अर्थ है किसी छंद विशेष के विधान का पूर्ण स्वरूप। छंदाओं के नाम में ही उनका पूरा विधान रहता है। छंद में वर्णों की आवृत्ति का, कल आधारित छंद में कल की आवृत्ति का, मध्य में यदि कहीं यति है तो उसका तथा छंद के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान उसकी छंदा के नाम से ही मिल जाता है। चतुर्थ पाठ में हमने छंदाओं के नामकरण में प्रयुक्त संख्यावाचक तथा अन्य संकेतकों के विषय में विस्तार से जाना। तृतीय पाठ में विभिन्न गुच्छक की संरचना के विषय में जाना। अब इस पंचम पाठ से हम  छंदाओं की संरचना का अध्ययन करेंगे। इस छंदा-सागर ग्रन्थ का उद्देश्य हिन्दी में प्रचलित छंदों की छंदाएँ बनाकर प्रस्तुत करना है जो सामने आते ही पूरी छंद का स्वरूप प्रकट हो जाये। हमें अनेक छंदों के नाम तो याद रहते हैं पर विधान याद नहीं रहता। अब उस छंद में रचना करने के लिए उसके विधान को खोजना पड़ता है। परन्तु हम जो इन पाठों के माध्यम से अध्ययन कर रहे हैं उससे हमें छंदा के नाम में ही छुपा उसका पूरा विधान मिल जायेगा।

छंदाओं से संबन्धित पाठों का संयोजन छंदाओं को स्वरूप के अनुसार विभिन्न वर्गों में विभक्त करके किया गया है। इस कड़ी में सर्वप्रथम वृत्त छंदाएँ आती हैं।

वृत्त छंदा:- इन छंदाओं में केवल एक गुच्छक रहता है और उसी एक गुच्छक की कई आवृत्ति रहती है, इसीलिए इनका नाम वृत्त-छंदा दिया गया है। एक ही मात्रा क्रम की विभिन्न आवृत्ति से विशेष लय बनती है और इस बात से वे सभी लोग भलीभांति परिचित होंगे जो सवैया छंद से परिचित हैं। 

वृत्त छंदाओं में एक गुच्छक की 1, 2, 3, 4, 6 और 8 की आवृत्ति से कुल 6 प्रकार की छंदाएं मिलती हैं। एक की आवृत्ति के लिये छंदा में चार वर्ण होने आवश्यक हैं अतः त्रिवर्णी गण में एक की आवृत्ति की छंदाएँ नहीं हैं। 

वृत्त छंदाएँ सर्वाधिक प्रचलित छंद हैं। हिन्दी में विभिन्न नामों से ये छंद प्रचलित हैं। वृत्त छंदाओं की रचना छंदों के तीनों स्वरूप - वाचिक, मात्रिक और वर्णिक में होती है। उदाहरणार्थ - ईयग गणक की 4 आवृत्ति (1222*4) की वृत्त छंदा हर स्वरूप में प्रचलित है। हर स्वरूप में रचना करने के अलग अलग नियम हैं। इसी विभिन्नता को दृष्टिगत रखते हुए इस ग्रन्थ में हर स्वरूप की अलग छंदाएँ दी हुई हैं जिससे कि छंदा का नाम सामने आते ही यह पता चल जाय कि यह किस गुच्छक की, कितनी आवृत्ति की, छंद के किस स्वरूप की छंदा है। इसके मध्य में यदि यति है तो उसका भी पता चल जाये। छंदों के तीन स्वरूप निम्न हैं।

(1) वाचिक स्वरूप:- वाचिक रूप में उच्चारण की प्रधानता रहती है। एक शब्द में साथ साथ आये दो लघु सदैव गुरु वर्ण के रूप में प्रयुक्त होते  हैं। जहाँ भी दो लघु (11) दर्शाये जाएँगे वे सदैव 'ऊलल' वर्ण यानी स्वतंत्र लघु माने जाते हैं। यदि इन्हें एक शब्द में रखना है तो एक लघु की या दोनों लघु की मात्रा गिरानी आवश्यक है। मात्रा गिराने का अर्थ प्रत्यक्ष रूप में वर्ण तो दीर्घ है परन्तु उच्चरित लघु होता है।

मात्रा पतन:- मात्रा पतन के कुछ विशेष नियम हैं जिनके अन्तर्गत मात्रा पतन किया जा सकता है। वाचिक स्वरूप की छंदाओं में यह नियमों के अंतर्गत आता है और इस छूट के कारण रचनाकार को शब्द चयन का कुछ अतिरिक्त क्षेत्र मिल जाता है।

1- एक वर्णी कारक चिन्ह, सहायक क्रिया व अन्य शब्दों की मात्रा गिरा कर उन्हें लघु मान सकते हैं जैसे - का की हैं मैं था भी ही आदि। परन्तु संयुक्त अक्षर से युक्त ऐसे शब्दों की मात्रा नहीं गिराई जा सकती जैसे - क्यों क्या त्यों आदि।
2- शब्द के अंत के गुरु की मात्रा गिरा कर आवश्यकतानुसार लघु की जा सकती है। किंतु इसमें भी ऐ, औ की मात्रा नहीं गिराई जा सकती। 
3- शब्द के बीच या प्रारंभ में आये गुरु वर्ण की मात्रा नहीं गिराई जा सकती। परन्तु तेरा, मेरा, कोई जैसे कुछ शब्दों में दोनों अक्षरों की मात्रा गिराई जा सकती है। इसमें भी गायेगा, जाएगा, सिखायेगा जैसे शब्दों के मध्य के ये, ए को लघु की तरह गिना जा सकता है।
4- शास्वत दीर्घ यानि एक शब्द में साथ साथ आये दो लघु की मात्रा कभी भी नहीं गिराई जा सकती। इसी कारण से यह शास्वत दीर्घ कहलाता है।

मात्रा पतन के अतिरिक्त वाचिक स्वरूप में पदांत में लघु वृद्धि मान्य है। वैसे तो प्रायः छंदाओं की लघु वृद्धि की छंदाएँ अलग से दी गयी हैं। परन्तु गुर्वंत छंदाओं में रचनाकार लघु वृद्धि करने के लिए स्वतंत्र है। वाचिक में ग वर्ण से प्रारंभ होने वाले वर्ण तथा म से प्रारंभ होनेवाले गुच्छक के गुरु वर्ण को ऊलल (11) वर्ण में तोड़ने की छूट है यदि उस वर्ण के दोनों तरफ भी गुरु वर्ण रहे। जैसे रबगी छंदा के गी (22) को 112 रूप में लिया जा सकता है।

(2) मात्रिक छंद:- मात्रिक छंदों में किसी भी प्रकार का मात्रा पतन अमान्य है। इन छंदों में गुरु वर्ण को दो लघु में तोड़ा जा सकता है। मात्रिक छंदों में स्वतंत्र लघु की अवधारणा नहीं है, अतः 'ऊलल' वर्ण (11) को एक शब्द में शास्वत दीर्घ के रूप में रखा जा सकता है पर 'ऊलल' वर्ण दीर्घ में रूपांतरित नहीं हो सकता।

(3) वर्णिक छंद:- वर्णिक छंद की रचना सदैव गुच्छक में प्रयुक्त लघु गुरु के अनुरूप होनी चाहिए। न कोई मात्रा पतन होना चाहिए और न ही गुरु को दो लघु में तोड़ा जाना चाहिए। इन में भी स्वतंत्र लघु जैसी कोई विचारधारा नहीं है।

वृत्त छंदाओं के पश्चात हम गुरु छंदाओं का अध्ययन करेंगे। 

गुरु छंदाएँ:- जैसा कि नाम से स्पष्ट है, वे छंदाएँ जो केवल गुरु (2) और ईगागा वर्ण (22) तथा मगण, ईमग गणक (2222) और एमागग गणक (22222) के संयोग से बनी होती हैं। गुरु छंदाएँ समकल आधारित होती हैं और समस्त छंद बद्ध सृजन का आधार होती हैं। इनकी लय और गति अबाध शांत रूप से बहती कलकल करती सरिता के समान होती है। ये छंदाएँ द्विकल गुरु वर्ण (2), चौकल ईगागा (22), छक्कल मगण (222) और अठकल ईमग (2222) के संयोग से बनती हैं। ये छंदाएँ सामान्यतः 2*4 से प्रारंभ हो कर 2*16 तक बनती हैं।

मिश्र छंदाएँ:- वे छंदाएँ जिनमें एक से अधिक प्रकार के गुच्छक या गुच्छक और वर्ण रहते हैं। ये कई प्रकार की होती हैं। इन पर प्रारंभ के गण के आधार पर सात पाठों में पूर्ण प्रकाश डाला गया है। मिश्र छंदाओं के विषय में एक अलग से पाठ दिया गया है जिसमें इनकी पूर्ण व्याख्या की गयी है।

उपरोक्त समस्त प्रकार की छंदाओं की क्रमशः
वाचिक, मात्रिक और वर्णिक तीनों स्वरूप की छंदाएँ इस ग्रन्थ में दी गई हैं। साथ ही छंदाओं की लघु वृद्धि की छंदाएँ भी दी गई हैं।

इसके पश्चात हिन्दी की मात्रिक छंदों की छंदाएँ हैं अंत में वर्णिक छंदों की छंदाएँ दी गई हैं। इन्हींके अंतर्गत अलग पाठों में कवित्त और सवैया की छंदाएँ भी सम्मिलित की गई हैं।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

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