"गुरुगुर्वा" विधान:-
गुर्वा केवल गुरु वर्ण की गिनती पर आधारित काव्यातमक संरचना है जिसमें एक दूसरी से स्वतंत्र तीन पंक्तियों में शब्द चित्र खींचा जाता है, अपने चारों ओर के परिवेश का वर्णन होता है या कुछ भी अनुभव जनित भावों की अभिव्यक्ति होती है। गुर्वा की तीन पंक्तियों में 6 -5 -6 के अनुपात में कुल 17 गुरु वर्ण होते हैं। इस तरह की अन्य संरचनाएँ हाइकु, ताँका, चोका आदि के रूप में हिन्दी में प्रचलित हैं जो अक्षरों की गिनती पर आधारित हैं।
परन्तु यह गुर्वा विधा इनसे बहुत ही विशिष्ट है। इसमें मेरे द्वारा सर्वथा नवीन अवधारणा ली गयी है। इसमें शब्दानुसार केवल गुरु वर्ण की गिनती होती है। गुरु वर्ण में दीर्घ मात्रिक अक्षर और शाश्वत दीर्घ दोनों आ जाते हैं। किसी भी शब्द में एक साथ आये दो लघु से शाश्वत दीर्घ बनता है जिसे एक गुरु के रूप में गिना जाता है। गुर्वा की पंक्ति में आये प्रत्येक शब्द के गुरु वर्ण गिने जाते हैं। शब्द में आये एकल लघु नहीं गिने जाते, वे गणनामुक्त होते हैं। 'विचारणीय' में चा और णी केवल दो गुरु हैं। वि, र, य तीन लघु होने पर भी लघु का जोड़ा नहीं है। इसलिये ये गणनामुक्त हैं और गुर्वा के लिये इस शब्द में केवल दो गुरु हैं। 'विरचा' में भी दो गुरु हैं, विर और चा। इस अवधारणा की यही विशेषता रचनाकार के सामने अनेक विकल्प प्रस्तुत करती है। इसके अतिरिक्त कलेवर भी बहुत विस्तृत हो गया। यह कलेवर अंग्रेजी आदि भाषाओं के सिलेबल आधारित गणन से किसी भी अवस्था में कम नहीं है।
इसी अवधारणा पर आश्रित एक और विधा विकसित की गयी है जिसे इस आलेख के माध्यम से मैं पाठक वृंद के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। सर्व प्रथम इसके नामकरण पर कुछ चर्चा करता हूँ।
बहुत वैचारिक मंथन के पश्चात इस विधा के नाम में भी गुर्वा शब्द को रखा गया है। केवल गुरु वर्ण की गणना के कारण लक्षण के आधार पर गुर्वा नाम दिया गया था। इस में भी गणना का आधार बिल्कुल वही है। दूसरे यह नितांत ही नवीन अवधारणा पर है इसलिये इस दूसरी विधा का स्वतंत्र नाम नहीं दिया गया। इस नयी विधा में एक पंक्ति भी अधिक है और कुल गुरु वर्ण भी 17 के स्थान पर 30 होते हैं। गुर्वा के पूर्व में महा, गुरु, बड़ा आदि कुछेक विकल्प पर मंथन करने के पश्चात गुरु ही जोड़ा गया है। अतः इसका नामकरण "गुरुगुर्वा" के रूप में किया गया है।इसका पूर्ण विधान निम्न प्रकार से विकसित किया गया है-
(1) "गुरुगुर्वा" में चार पंक्तियाँ होती हैं। इस में भी पंक्तियाँ स्वतंत्र रखी जाती है।
(2) इसकी चार पंक्तियों में कोई सी भी दो पंक्तियों में 8 - 8 गुरु वर्ण होते हैं और बाकी दो बची हुई पंक्तियों में 7 - 7 गुरु वर्ण होते हैं। इस नियम के अंतर्गत 6 संभावनाएँ बनती हैं -
8 - 8 - 7 -7
8 - 7 - 8 -7
8 - 7 - 7 -8
7 - 8 - 8 -7
7 - 8 - 7 - 8
7 - 7 - 8 - 8
"गुरुगुर्वा" में कुल 30 वर्ण होते हैं। यह रचनाकार पर निर्भर है कि अपनी रचना में वह पंक्तियाँ किस प्रकार संयोजित करता है। प्रत्येक "गुरुगुर्वा" अपने आप में पूर्ण होता है।
(3) समतुकांतता बरतनी इस में भी आवश्यक है।
कोई भी 8 - 8 वाली या 7 - 7 वाली दो पंक्तियाँ समतुकांत रखनी आवश्यक है। रचनाकार चाहे तो
8 - 8 वाली और 7 - 7 वाली दोनों में समतुकांतता रख सकता है परन्तु दोनों में पृथक पृथक तुकांतता होनी चाहिए। यानि चारों पंक्तियाँ एक ही तुकांतता की नहीं होनी चाहिए।
मैं यहाँ अपने तीन "गुरुगुर्वा" प्रस्तुत कर रहा हूँ और बताये गये नियम उनसे सोदाहरण समझते हैं।
शुभ्रता छिटकी हुई है सृष्टि में,
हो रही झंकार वीणा की,
श्वेत उड़ते हंस, वारिज दृष्टि में,
काव्य की प्रकटी 'नमन' देवी।
(2122 2122 212 = 8 गुरु
2122 2122 2 = 7 गुरु
यह रचना उपरोक्त मापनी पर है। इसलिये गुरु वर्ण की गणना स्वयंमेव हो रही है। इसमें छिट, उड़, रिज, प्रक, मन ये पांच शाश्वत दीर्घ हैं। बाकी के एकल लघु गणनामुक्त हैं। 8 - 8 में समतुकांतता और 8 - 7 - 8 - 7 का क्रम।)
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गरीबी में झुलसते लोग हैं,
कहीं पर चीख लुटती अस्मिता की,
उठाये सिर भयंकर रोग हैं,
बड़े असहाय से हो दिन बिताते।
(1222 1222 12 = 7
1222 1222 122 = 8
यह रचना भी मापनी पर है। इसलिये गुरु वर्ण की गणना स्वयंमेव हो रही है। इसमें लस, पर, लुट, सिर, कर, अस, दिन ये सात शाश्वत दीर्घ हैं। बाकी के एकल लघु गणनामुक्त हैं।
7 - 7 में समतुकांतता और 7 - 8 - 7 - 8 का क्रम।)
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महावर लगाये रसिक राधिका,
कहीं कान्ह बैठे हथेली पसारे।
पड़ें लग दिखाई थिरकते चरण,
लखें नेत्र मन के सभी दृश्य न्यारे।।
(122 122 122 12 = 7 गुरु
122 122 122 122 = 8 गुरु
मापनी की रचना। वर, सिक, लग, रक, रण, मन ये छह शाश्वत दीर्घ। 8 - 8 में समतुकांतता और 7 - 8 - 7 - 8 का क्रम।)
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इन तीनों गुरुगूर्वा में एक के पश्चात एक उभरते शब्द चित्र हैं। प्रथम गुरुगूर्वा में मानो सब ओर धवलता छिटकी हुई है, तभी वीणा बजती सी लगती है, आँखों के आगे उड़ते धवल हँस और सरोवरों में खिले धवल कमल छा गये। सभी मात शारदा के चिन्ह हैं। अंत में माँ को वंदन।
दूसरे में गरीबी, बलात्कार, फैलती बिमारियों पर लाचारी की अवस्था है।
तीसरे में राधिका पैरों में महावर लगा रही है, तभी लगा कहीं मोहन हथेली पसारे बैठे हैं, आँखों के आगे थिरकते पैरों का चित्र उभरने लगा। मानो राधिका उस पसरी हथेली पर ही नृत्य करने लगी है!!
गुरुगूर्वा में जैसा कि उदाहरणों से स्पष्ट हो रहा है, कलेवर विस्तृत होने से विभिन्न छंद और मापनी में काव्य सृजन संभव है। साथ ही तुकांतता की अनिवार्यता से रचनाओं में प्रचलित छंदों की चौपदी सी मधुरता आ रही है। इसमें रचना पंक्तियों की स्वतंत्रता रखते हुए हाइकु, ताँका इत्यादि की शैली में होती है। आप किसी विषय पर मनस्थल पर उभरते चित्र या भावों को प्रभावी क्रम में शब्दों में सजा रखें। अपने विचार या निष्कर्ष अंतिम पंक्ति में रखें।
"गुरुगुर्वा" की पंक्तियाँ यद्यपि गुरु वर्ण की गणना से बंधी हुई हैं, फिर भी इनमें वर्ण या मात्रा की संख्या का कोई बंधन नहीं है। गुरु वर्ण की संख्या के आधार पर आप अपनी मनचाही मापनी बना सकते हैं। इन तीन उदाहरणों से "गुरुगुर्वा" की व्यापकता और संभावनाओं का आकलन प्रबुद्ध पाठक वृंद स्वयं करें।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-08-21
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