बह्र:- 122 122 122 12
शब-ए-वस्ल इतनी सुहानी लगी,
हमें ख्वाब सी जिंदगानी लगी।
हुई मुख़्तसर रात की जब सहर
हक़ीक़त हमें ये कहानी लगी।
छुड़ा हाथ लेना, वो हँस टालना,
सभी शय ही उनकी लसानी लगी।
वे नाज़ुक अदाएँ, हया उनकी! उफ़,
बड़ी जल्द शब की रवानी लगी।
मिली जबसे उनकी मुहब्बत हमें,
तभी से लुभाने जवानी लगी।
जिसे देखिये ग़म से सैराब वो,
कहीं खोने अब शादमानी लगी।
मसर्रत कहीं तो, कहीं रंज-ओ- ग़म,
'नमन' सारी दुनिया ही फ़ानी लगी।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-05-19
शब-ए-वस्ल इतनी सुहानी लगी,
हमें ख्वाब सी जिंदगानी लगी।
हुई मुख़्तसर रात की जब सहर
हक़ीक़त हमें ये कहानी लगी।
छुड़ा हाथ लेना, वो हँस टालना,
सभी शय ही उनकी लसानी लगी।
वे नाज़ुक अदाएँ, हया उनकी! उफ़,
बड़ी जल्द शब की रवानी लगी।
मिली जबसे उनकी मुहब्बत हमें,
तभी से लुभाने जवानी लगी।
जिसे देखिये ग़म से सैराब वो,
कहीं खोने अब शादमानी लगी।
मसर्रत कहीं तो, कहीं रंज-ओ- ग़म,
'नमन' सारी दुनिया ही फ़ानी लगी।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-05-19
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