Thursday, December 10, 2020

सार छंद "भारत गौरव"

सार छंद / ललितपद छंद

जय भारत जय पावनि गंगे, जय गिरिराज हिमालय;
सकल विश्व के नभ में गूँजे, तेरी पावन जय जय।
तूने अपनी ज्ञान रश्मि से, जग का तिमिर हटाया;
अपनी धर्म भेरी के स्वर से, जन मानस गूँजाया।।

उत्तर में नगराज हिमालय, तेरा मुकुट सजाए;
दक्षिण में पावन रत्नाकर , तेरे चरण धुलाए।
खेतों की हरियाली तुझको, हरित वस्त्र पहनाए;
तेरे उपवन बागों की छवि, जन जन को हर्षाए।।

गंगा यमुना कावेरी की, शोभा बड़ी निराली;
अपनी जलधारा से डाले, खेतों में हरियाली।
तेरी प्यारी दिव्य भूमि है, अनुपम वैभवशाली;
कहीं महीधर कहीं नदी है, कहीं रेत सोनाली।।

महापुरुष अगणित जन्मे थे, इस पावन वसुधा पर;
धीर वीर शरणागतवत्सल, सब थे पर दुख कातर।
दानशीलता न्यायकुशलता, उन सब की थी थाती;
उनकी कृतियों की गुण गाथा, थकै न ये भू गाती।।

तेरी पुण्य धरा पर जन्मे, राम कृष्ण अवतारी;
पा कर के उन रत्नों को थी, धन्य हुई भू सारी।।
आतताइयों का वध करके, मुक्त मही की जिनने;
ऋषि मुनियों के सब कष्टों को, दूर किया था उनने।।

तेरे ऋषि मुनियों ने जग को, अनुपम योग दिया था;
सतत साधना से उन सब ने, जग-कल्याण किया था।
बुद्ध अशोक समान धर्मपति, जन्म लिये इस भू पर;
धर्म-ध्वजा के थे वे वाहक, मानवता के सहचर।।

वीर शिवा राणा प्रताप से, तलवारों के चालक;
मिटे जन्म भू पर हँस कर वे, मातृ धरा के पालक।
भगत सिंह गांधी सुभाष सम, स्वतन्त्रता के रक्षक;
देश स्वतंत्र किये बन कर वे, अंग्रेजों के भक्षक।।

सदियों का संघर्ष फलित जो, इसे सँभालें मिल हम;
ऊँच-नीच के जात-पाँत के, दूर करें सारे तम।
तेरे यश की गाथा गाए, गंगा से कावेरी;
बारंबार नमन हे जगगुरु, पुण्य धरा को तेरी।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
02-04-2016

1 comment:

  1. जय गोविंद जीThursday, December 10, 2020 11:37:00 AM

    अगणित ऋषि-मुनि अगणित निधिधर
    अगणित सुर मन भाये।
    निपट तिमिर घन गहन निशित शशि
    बरबस मन सरसाये।
    उदधि चरणजल ग्रहण चहत जिमि
    नगपति मुकुट सुशोभित।
    नमन धरणि, पुनि पुनि यश गावत
    मुखर, दीप ज्यों उज्वित।।

    व्आआह मामाजी,, अनुपम छंद सौष्ठव,, जय माँ भारती

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