Friday, April 16, 2021

मुक्तक (दुख, दर्द)

बेजुबां की पीड़ा का गर न दर्द सीने में,
सार कुछ नहीं फिर है इस जहाँ में जीने में।
मारते हो जीवों को ढूँढ़ते ख़ुदा को हो,
गर नहीं दया मन में क्या रखा मदीने में।

(212  1222)*2
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इस जमीं के सिवा कोई बिस्तर नहीं, आसमाँ के सिवा सर पे है छत नहीं।
मुफ़लिसी को गले से लगा खुश हैं हम, ये हमारे लिये कुछ मुसीबत नहीं।
उन अमीरों से पूछो जरा दोस्तों, जितना रब ने दिया उससे खुश हैं वो क्या।
पेट खाली भी हो तो न परवाह यहाँ, इस जमाने से फिर भी शिकायत नहीं।।

(212×8)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28-06-17

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