Friday, October 22, 2021

ग़ज़ल (बोझ लगने लगी जवानी है)

 ग़ज़ल (बोझ लगने लगी जवानी है)

बह्र:- 2122  1212  22

एक मज़ाहिया मुसलसल

बोझ लगने लगी जवानी है,
व्याह करने की मन में ठानी है।

सेहरा बाँध जिस पे आ जाऊँ,
पास में बस वो घोड़ी कानी है।

देख के शक़्ल दूर सब भागें,
फिर भी दुल्हन कोई मनानी है।

कैसी भी छोकरी दिला दे रब,
कितनी ज़हमत अब_और_उठानी है।

एक बस्ती बसे मुहब्बत की,
दिल की दुनिया मेरी विरानी है।

मैं परस्तिश करूँगा उसकी सदा,
जो भी इस दिल की बनती रानी है।

उसके बिन ज़िंदगी में अब तो 'नमन',
सूनी सी रात की रवानी है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-06-18

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