बह्र:- 2222 2222 2222 222
जीभ दिखा कर यारों को ललचाना वे भी क्या दिन थे,
उनसे फिर मन की बातें मनवाना वे भी क्या दिन थे।
साथ खेलना बात बात में झगड़ा भी होता रहता,
पल भर कुट्टी फिर यारी हो जाना वे भी क्या दिन थे।
गिल्ली डंडे कंचों में ही पूरा दिवस खपा देना,
घर आकर फिर सब से आँख चुराना वे भी क्या दिन थे।
डींग हाँकने और खेलने में जो माहिर वो मुखिया,
ऊँच नीच के भेद न आड़े आना वे भी क्या दिन थे।
नयी किताबें या फिर ड्रेस खिलौने मिलते अगर कभी,
दिखला दिखला यारों को इतराना वे भी क्या दिन थे।
नहीं कमाने की तब चिंता कुछ था नहीं गमाने को,
खेल खेल में पढ़ना, सोना, खाना वे भी क्या दिन थे।
'नमन' मुसीबत की घड़ियों में याद करे नटखट बचपन,
हर आफ़त से बिना फ़िक़्र टकराना वे भी क्या दिन थे।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-09-18
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