Thursday, March 18, 2021

मुक्तक (जवानी)

खुले नभ की ये छत हो सर पे सुहानी,
करे तन को सिहरित हवा की रवानी,
छुअन मीत की हो किसे फिर है परवाह,
कि बैठें हैं कैसे, यही तो जवानी।

(122*4)
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जवानी का मजा है
हसीनों की सजा है
मरें हर रोज इसमें
कहाँ ऐसी क़जा है।

(1222 122)
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न ऐसी कभी जिंदगानी लगी,
न दुनिया ही इतनी सुहानी लगी,
मिली जबसे उनकी मुहब्बत हमें,
न ऐसी कभी ये जवानी लगी।

(122*3 12)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-02-17

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