तेरी ईश सृष्टि की महिमा, अद्भुत बड़ी निराली है;
कहीं शीत है कहीं ग्रीष्म है, या बसन्त की लाली है।
जग के जड़ चेतन जितने भी, सब तेरे ही तो कृत हैं;
जो तेरी छाया से वंचित, वे अस्तित्व रहित मृत हैं।।
धैर्य धरे नित भ्रमणशील रह, धार रखे जीवन धरती;
सागर की उत्ताल तरंगें, अट्टहास तुझसे करती।
कलकल करते सरिता नद में, तेरी निपुण सृष्टि झलके;
अटल खड़े गिरि खंडों से भी, तेरी आभा ही छलके।।
रम्य अरुणिमा प्राची में भर, भोर क्षितिज में जब सोहे;
रक्तवर्ण वृत्ताकृति शोभा, बाल सूर्य की जग मोहे।
चंचल चपल चांदनी में तू, शशि की शीतलता में है।
तारा युक्त चीर से शोभित, निशि की नीरवता में है,
मैदानों की हरियाली में, घाटी की गहराई में;
कोयल की कुहु-कुहु से गूँजित, बासन्ती अमराई में।
अन्न भार से शीश झुकाए, खेतों की इन फसलों में;
तेरा ही चातुर्य झलकता, कामधेनु की नसलों में।।
विस्तृत एवम् स्वच्छ सलिल से, नील सरोवर भरे हुए;
पुष्पों के गुच्छों से मुकुलित, तरुवर मोहक लदे हुए।
घिरे हुए जो कुमुद दलों से, इठलाते प्यारे शतदल;
तेरी ही आभा के द्योतक, ये गुलाब पुष्पित अति कल।।
पंक्ति बद्ध विहगों का कलरव, रसिक जनों को हर्षाए;
वन गूँजाती वनराजों की, सुन दहाड़ मन थर्राए।
चंचल हिरणी की आँखों में, माँ की प्यार भरी ममता,
तुझसे ही तो सब जीवों की, शोभित रहती है क्षमता।।
हे ईश्वर हे परमपिता प्रभु, दीनबन्धु जगसंचालक;
तेरी कृतियों का बखान है, करना अति दुष्कर पालक।
अखिल जगत सम्पूर्ण चराचर, तुझसे ही तो निर्मित है;
तुझसे लालित पालित होता, तुझसे ही संहारित है।।
भाव प्रसून खिला दे हे प्रभु, हृदय वाटिका में मेरी;
काव्य-सृजन से सुरभित राखूँ, पा कर इसे कृपा तेरी।
मनोकामना पूर्ण करो ये, ईश यही मेरी विनती;
तेरे उपकारों की कोई, मेरे पास नहीं गिनती।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-05-2016
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