बह्र:- 212*4
तीर नज़रों का उनका चलाना हुआ,
और दिल का इधर छटपटाना हुआ।
हाल नादान दिल का न पूछे कोई,
वो तो खोया पड़ा आशिक़ाना हुआ।
ये शब-ओ-रोज़, आब-ओ-हवा आसमाँ,
शय अज़ब इश्क़ है सब सुहाना हुआ।
अब नहीं बाक़ी उसमें किसी की जगह,
जिनकी यादों का दिल आशियाना हुआ।
क्या यही इश्क़ है, रूठा दिलवर उधर,
और दुश्मन इधर ये जमाना हुआ।
जो परिंदा महब्बत का दिल में बसा,
बाग़ उजड़ा तो वो बेठिकाना हुआ।
शायरी ग़म भुलाती थी तेरे 'नमन',
शौक़ उल्फ़त का पर दिल जलाना हुआ।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-09-19
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
07/03/2021 रविवार को......
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आप भी इस हलचल में. .....
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धन्यवाद
खूबसूरत ग़ज़ल ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार।
Deleteसुन्दर गजल
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार।
Deleteरूठा दिलवर, दुश्मन जमाना''
ReplyDeleteबचा है फ़क़त यही फ़साना