Wednesday, July 6, 2022

छंदा सागर (प्रस्तावना)

"छंदा सागर" ग्रन्थ

(प्रस्तावना)

हिन्दी छंदों का संसार अत्यंत विशाल है। हिन्दी को अनेकानेक वर्ण वृत्त संस्कृत साहित्य से विरासत में मिले हुये हैं। फिर भक्ति कालीन, रीतिकालीन और अर्वाचीन कवियों ने कल आधारित अनेक नये नये मात्रिक छंदों का निर्माण किया है। समय के साथ साथ ग़ज़ल शैली में उच्चारण के आधार पर वाचिक स्वरूप में छंदों में काव्य सृजन का प्रचलन बढ़ा है। इस प्रकार आज के काव्य सृजकों के पास छंदों की विविधता की कोई कमी नहीं है। आज हमारे पास वर्णिक, मात्रिक और वाचिक रूप में छंदों का विशाल अक्षय कोष है।

मस्तिष्क में एक स्वभाविक सा प्रश्न उठता है कि हिन्दी साहित्य में आखिर इन तीनों स्वरूप के कितने या लगभग कितने छंद होंगे। छंदों के प्रमाणिक ग्रंथ "छंद प्रभाकर" में भानु कवि ने कुल 800 के आसपास वर्णिक और मात्रिक छंदों का सोदाहरण वर्णन किया है। और एक मोटे अनुमान के अनुसार लगभग इतने ही छंद और हो सकते हैं
जिनका नाम और पूर्ण विधान उपलब्ध हो। इस संख्या की तुलना में छंदों की कुल संख्या का उत्तर शायद अधिकांश साहित्य सृजकों की परिकल्पना से बाहर का हो। छंदों के प्राचीन आचार्यों के पिंगल ग्रंथों में कुल छंदों की गणना के सूत्र दिये हुये हैं।

कोई भी वर्ण या तो लघु होगा या दीर्घ होगा। तो एक वर्णी इकाई के दो भेद या छंद-प्रस्तार हुये। इसी प्रकार दो वर्णी इकाई के इसके दुगुने चार होंगे क्योंकि लघु के पश्चात लघु या दीर्घ जुड़ कर 11 या 12 तथा दीर्घ के पश्चात लघु या दीर्घ जुड़ कर 21 या 22 कुल चार छंद-प्रस्तार होंगे। इसी विधान से त्रिवर्णी गण के चार के दुगुने कुल आठ प्रस्तार संभव है और ये आठ प्रस्तार हमारे गण हैं जिन पर समस्त छंदों का संसार टिका है। इसी अनुसार:-
4 वर्ण के 8*2 =16 प्रस्तार
5 वर्ण के 16*2 =32 प्रस्तार
6 वर्ण के 32*2 =64 प्रस्तार
7 वर्ण के 64*2 =128 प्रस्तार
26 वर्ण के छंदों की प्रस्तार के नियम के अनुसार कुल संख्या होगी 6,71,08,864 प्रस्तार

एक वर्णी से लेकर 26 वर्णी तक के छंदों का योग करें तो यह संख्या होगी -
6,71,08,864*2-2 = 13,42,17,726

26 वर्ण तक के छंद सामान्य छंद में आते हैं तथा इससे अधिक के दण्डक छंद कहलाते हैं जो 48 वर्णों तक के मिलते हैं। उनके प्रस्तार की संख्या को छोड़ दें तो ही ठीक है। यह सब वर्णिक छंदों के प्रस्तार हैं।

इसी प्रकार मात्रिक छंदों के प्रस्तार हैं, जिनकी गणना 1,2,3,5,8,13,21,34 के क्रम में बढती है। मात्रिक छंद 32 मात्रा तक के सामान्य की श्रेणी में आते हैं तथा इससे अधिक के दण्डक की श्रेणी में आते हैं। इस विधान के अनुसार 32 मात्रा के मात्रिक छंदों के प्रस्तार की कुल संख्या 35,24,578 है। एक से 32 मात्रा के मात्रिक छंदों का कुल योग करोड़ से भी अधिक आयेगा।

अब आप स्वयं देखलें कि कुल छंदों की संख्या क्या है, कितने छंदों का नामकरण हो चुका है और सभी छंदों का कभी भी नामकरण संभव है क्या।
इन प्रस्तार के नियमों का विश्लेषण करने से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है कि वर्णिक और मात्रिक छंदों में लघु दीर्घ वर्णों का जो भी क्रम संभव है वह अपने आप में छंद है। छंद कहलाने के लिये किसी विशेष वर्ण-क्रम का होना छंद शास्त्र में कहीं भी निर्दिष्ट नहीं है। लघु दीर्घ का कोई भी क्रम 1 से 26 तक की वर्ण संख्या में सामान्य वर्णिक और 1 से 32 तक की मात्रा संख्या में सामान्य मात्रिक छंद कहलाता है। 

अब ऐसा कोई भी क्रम जिसका नामकरण नहीं हुआ है, प्रचलन में नहीं आया है उसे कवि लोग नाम दे कर, यति आदि सुनिश्चित कर, उसमें रचनाएँ लिख कर प्रचलन में लाते हैं और वह यदि प्रचलित हो गया तो कालांतर में नया छंद बन जाता है।

प्रस्तुत ग्रंथ में सैंकड़ों मात्रिक व वर्णिक छंदों की गहराई में उतरते हुये उन छंदों की संरचना के आधार पर उस छंद का ऐसा नामकरण किया गया है कि उस नाम में ही उस छंद का पूरा विधान छिपा है। नाम के एक एक अक्षर का विश्लेषण करने से छंद का पूरा विधान स्पष्ट हो जाएगा।

उदाहरणार्थ विधाता छंद एक बहु प्रचलित और लोकप्रिय छंद है। गणों के अनुसार इसकी संरचना यगण, रगण, तगण, मगण, यगण तथा गुरु वर्ण है। 
'यरातामायगा' राखो विधाता छंद को पाओ।

गण विधान के अनुसार विधाता छंद का सूत्र 'यरातामायगा' है जिसमें छंद की संरचना आबद्ध है। इस पुस्तक में जो अवधारणा मैं प्रस्तुत करने जा रहा हूँ उसके अनुसार विधाता छंद का नाम होगा "यीचा" जिसमें छंद का पूरा विधान छिपा है। 
साथ ही यीचा से यह भी पता चलता है कि इसे वर्णिक, मात्रिक या वाचिक किसी भी स्वरूप में लिख सकते हैं।

हिन्दी भाषा के छंदों के विशाल भंडार को एक गुलदस्ते में सजाकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना ही इस ग्रन्थ का उद्देश्य है। प्रस्तुत पुस्तक में छंदों के तीन वर्ग - वर्णिक, मात्रिक, वाचिक स्वरूप का संयोजन कर हर छंद की एक छंदा बना कर दी गयी है। इसीलिए इस ग्रन्थ का बहुत ही सार्थक नाम "छंदा-सागर" दिया गया है। छंदा एक परिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है किसी छंद विशेष के विधान का पूर्ण स्वरूप। छंदा से संबन्धित पाठ में इसकी विस्तृत विवेचना की गयी है। इस ग्रंथ की पाठ्य सामग्री विभिन्न पाठों में संकलित की गयी है।

किसी भी छंदा की संरचना के अनुसार नामकरण की प्रणाली हिन्दी के लिये बिल्कुल नयी है। जिसने भी कुछ प्रयास से इस पूरी प्रणाली को, अवधारणा को ठीक से समझ लिया है उसके सामने छंदा का नाम आते ही उस से संबन्धित छंद की संरचना का पूरा खाका आँखों के सामने छा जाएगा।

प्रारंभ में कुछ धैर्य की अपेक्षा है। पूरा विधान अपनी गण आधारित प्रणाली पर ही टिका हुआ है, इसलिये समझने में बहुत सरल है। बस थोड़े से धैर्य के साथ ग्रंथ को आद्यांत पढ़ने का है। छंद प्रेमी ग्रंथ से बिल्कुल भी निराश नहीं होंगे। उन्हें अनेकों नये नये मात्रिक व वर्णिक छंद प्राप्त होने वाले हैं। इस ग्रंथ में सैंकड़ों प्रचलित और ऐसे छंद मिलेंगे जिनका नामकरण हो चुका है और उससे कई गुणा अधिक ऐसे अनाम छंद मिलेंगे जिनकी संरचना का आधार प्रचलित छंदों की संरचना ही है। जिस भी छंद का नाम मेरे संज्ञान में आया है उस छंद का नाम उस की छंदा के नाम के साथ साथ कोष्ठक में दिया गया है।

इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि छंदा का नाम छोटा सा तथा स्मरण रखने योग्य हो। छंदा का नाम संरचना के आधार पर है अतः यह सार्थक शब्द हो ऐसा संभव नहीं है। जैसे 'यरातामायगा' कोई सार्थक शब्द नहीं है वैसे ही अभी तो 'यीचा' भी कोई सार्थक शब्द नहीं है। परन्तु यीचा नाम अपने लघुरूप के कारण याद रखने में अत्यंत सुगम है।

मेरा यह प्रयास आज के रचनाकारों, समालोचकों और प्रबुद्ध पाठकों के लिये कुछ भी सहायक सिद्ध होता है, उनका चित्त रंजन करने वाला होता है, उन्हें कुछ नवीनता प्रदान करता है तो मैं इसे सार्थक समझूँगा।

जहाँ तक मुझसे संभव हो सका है छंदों के मान्य विधान को ही प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है फिर भी  कोई त्रुटि या मतांतर हो तो पाठकगण मुझे संबोधित करने का अनुग्रह करें।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
01-01-2020

Tuesday, July 5, 2022

उड़ियाना छंद 'विरह'

क्यों री तू थमत नहीं, विरह की मथनिया।
मथत रही बार बार, हॄदय की मटकिया।।
सपने में नैन मिला, हँसत है सजनिया।
छलकावत जाय रही, नेह की गगरिया।।

गरज गरज बरस रही, श्यामली बदरिया।
झनकारै हृदय-तार, कड़क के बिजुरिया।।
ऐसे में कुहुक सुना, वैरन कोयलिया।
विकल करे कबहु मिले, सजनी दुलहनिया।।

तेरे बिन शुष्क हुई, जीवन की बगिया।
बेसुर में बाज रही, बैन की मुरलिया।।
सुनने को विकल श्रवण, तेरी पायलिया।
तेरी ही बाट लखे, सूनी ये कुटिया।।

विरहा की आग जले, कटत न अब रतिया।
रह रह मन उठत हूक, धड़कत है छतिया।।
'नमन' तुझे भेज रहा, अँसुवन लिख पतिया।
बेगी अब आय मिलो, सुन मन की बतिया।।
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उड़ियाना छंद विधान -

उड़ियाना छंद 22 मात्रा का सम मात्रिक छंद है। यह प्रति पद 22 मात्रा का छंद है। इस में 12,10 मात्रा पर यति विभाजन है। यति से पहले त्रिकल आवश्यक।

मात्रा बाँट :- 6+3+3, 6+1+1+2 (S) 

(त्रिकल के तीनों रूप (21, 12, 111) मान्य। अंत सदैव दीर्घ वर्ण से। चार पद, दो दो पद समतुकांत या चारों पद समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
14-03-18

Tuesday, June 28, 2022

ग़ज़ल (आग बरसाएँ घटाएँ)

बह्र:- 2122  1122  1122  22

आग बरसाएँ घटाएँ तेरे जाने के बाद,
लगतीं लपटों सी हवाएँ तेरे जाने के बाद।

कौन सी दुनिया में भँवरे औ' परींदे गये उड़,
या हुईं चुप ये दिशाएँ तेरे जाने के बाद।

कह के थक जाते थे हम तू न थकी सुन के कभी,
हाले दिल किसको सुनाएँ तेरे जाने के बाद।

घर की दीवारों ने भी अब तो किया कानों को बंद,
फिर किसे हम दें सदाएँ तेरे जाने के बाद।

किसके हम नाज़ उठाएँ औ सहें नित नखरे,
देखें अब किसकी अदाएँ तेरे जाने के बाद।

इन फ़ज़ाओं का है वैसा ही सुहाना मंज़र,
पर कचोटें ये छटाएँ तेरे जाने के बाद।

ज़िंदगी से ही गया ऊब 'नमन' ये जानम,
किसकी अब पाये दुआएँ तेरे जाने के बाद।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-05-19

Friday, June 24, 2022

रक्ता छंद 'शारदा वंदन'

ब्रह्म लोक वासिनी।
दिव्य आभ भासिनी।।
वेद वीण धारिणी।
हंस पे विहारिणी।।

शुभ्र वस्त्र आवृता।
पद्म पे विराजिता।।
दीप्त माँ सरस्वती।
नित्य तू प्रभावती।।

छंद ताल हीन मैं।
भ्रांति के अधीन मैं।।
मन्द बुद्धि को हरो।
काव्य की प्रभा भरो।।

छंद-बद्ध साधना।
काव्य की उपासना।
मैं सदैव ही करूँ।
भाव से इसे भरूँ।।

मात ये विचार हो।
देश का सुधार हो।।
ज्ञान का प्रसार हो।
नष्ट अंधकार हो।।

शारदे दया करो।
ज्ञान से मुझे भरो।।
काव्य-शक्ति दे मुझे।
दिव्य भक्ति दे मुझे।।

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रक्ता छंद विधान -

रगण जगण गुरु = ( 212 121 2 ) = 7 वर्ण, 4 चरण
[दो-दो या चारों चरण समतुकांत]

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बासुदेव अग्रवाल नमन,
तिनसुकिया
10-02-19

Thursday, June 16, 2022

पादाकुलक छंद (राम महिमा)

पादाकुलक छंद / मत्त समक छंद / विश्लोक छंद / चित्रा छंद / वानवासिका छंद

सीता राम हृदय से बोलें।
सरस सुधा जीवन में घोलें।।
राम रसायन धारण कर लें।
भवसागर के संकट हर लें।।

आज समाज विपद में भारी।
सुध लें आकर भव भय हारी।।
राम दयामय धनु को धारें।
भव के सारे दुख को टारें।।

चंचल मन माया का भूखा।
भजन बिना यह मरु सा सूखा।।
अवनति-गर्त गिरा खल कामी।
अनुचर समझ कृपा कर स्वामी।।

सरल स्वभाव सदा मन धारें।
सब संकट से निज को टारें।।
शीतल मन से रघुपति भजिये।
माया, मोह, कपट सब त्यजिये।।

मिथ्याचार जगत में भारी।
इससे सारे हैं दुखियारी।।
सद आचरणों का कर पालन।
मन का पूर्ण करें प्रक्षालन।।

राम महाप्रभु जग के त्राता।
दुख भंजक हर सुख के दाता।।
नित्य 'नमन' रघुवर को कीजै।
दोष सभी अर्पित कर दीजै।।
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पादाकुलक छंद विधान -

पादाकुलक छंद 16 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है। यह संस्कारी जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 16 मात्राओं की मात्रा बाँट:- चार चौकल हैं।

चौकल = 4 - चौकल में चारों रूप (11 11, 11 2, 2 11, 22) मान्य रहते हैं।
(1) चौकल में पूरित जगण (121) शब्द, जैसे विचार महान उपाय आदि नहीं आ सकते। 
(2) चौकल की प्रथम मात्रा पर कभी भी शब्द समाप्त नहीं हो सकता। 

एक प्रकार से देखा जाय तो पादाकुलक छंद प्रसिद्ध चौपाई छंद का ही एक प्रारूप है। चौपाई छंद में चार चौकल बनने की बाध्यता नहीं है जबकि पादाकुलक छंद में यह बाध्यता है।

भानु कवि के छंद प्रभाकर में पादाकुलक छंद के प्रकरण में इससे मिलते जुलते कई छंदों की सोदाहरण व्याख्या की गयी है। यहाँ मैं चार छंद उदाहरण सहित प्रस्तुत कर रहा हूँ।

(1) मत्त समक छंद विधान - मत्त समक छंद संस्कारी जाति का 16 मात्रिक छंद है। इसमें चार चौकल के अतिरिक्त 9 वीं मात्रा सदैव लघु रहनी चाहिए।

अतुलित बल के हनुमत स्वामी।
रघुपति दूत गगन के गामी।।
जो इनका जप नित करता है।
भवसागर से वह तरता है।।

(2) विश्लोक छंद विधान - विश्लोक छंद संस्कारी जाति का 16 मात्रिक छंद है। इसमें चार चौकल के अतिरिक्त 5 वीं और 8 वीं मात्रा सदैव लघु रहनी चाहिए।

पीड़ित बहुत यहाँ जन रघुवर।
आहें विकल भरें हो कातर।।
ले कर प्रभु तुम अब अवतारा।
भू का हरण करो सब भारा।।

(3) चित्रा छंद विधान - चित्रा छंद संस्कारी जाति का 16 मात्रिक छंद है। इसमें चार चौकल के अतिरिक्त 5 वीं, 8 वीं और 9 वीं मात्रा सदैव लघु रहनी चाहिए।

गुरु की कृपा अमित फलदायी।
इसकी महिम सकल जन गायी।।
जिसके सिर पर गुरु का हाथा।
पूरा यह जग उसके साथा।।

(4) वानवासिका छंद विधान - वानवासिका छंद संस्कारी जाति का 16 मात्रिक छंद है। इसमें चार चौकल के अतिरिक्त 9 वीं और 12 वीं मात्रा सदैव लघु रहनी चाहिए।

सरयू तट पर बसी हुई है।
विसकर्मा की रची हुई है।।
अवधपुरी पावन यह नगरी।
राम-सुधा से लबलब गगरी।।
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छंदों का विधान देखने के लिए निम्न लिंक देखें:-

 
बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
12-06-22

Saturday, June 11, 2022

सुगति छंद (शांति)

सुगति छंद / शुभगति छंद

शांति धारो।
दुःख टारो।।
सदा सुखदा।
हरे विपदा।।

रस-खान है।
सुख पान है।।
यदि शांति है।
नहिँ भ्रांति है।।

कटुता हरे।
मृदुता भरे।।
नित सुहाती।
दिव्य थाती।।

ले सुस्तियाँ।
दे मस्तियाँ।।
सुख-सुप्ति दे।
तन-तृप्ति दे।।

शांति गर है।
सुघड़ घर है।।
रीत अपनी।
ताप हरनी।।

शांति मन की।
खान धन की।।
हर्ष दात्री।
'नमन' पात्री।।
***********

सुगति छंद / शुभगति छंद विधान -

सुगति छंद जो कि शुभगति छंद के नाम से भी जाना जाता है, 7 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है जिसका अंत गुरु वर्ण (S) से होना आवश्यक है। यह लौकिक जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 7 मात्राओं का विन्यास पंचकल + गुरु वर्ण (S) है। पंचकल की निम्न संभावनाएँ हैं :-

122
212
221
(2 को 11 में तोड़ सकते हैं, पर अंत सदैव गुरु (S) से होना चाहिए।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
24-05-22

Monday, June 6, 2022

असबंधा छंद (हिन्दी गौरव)

भाषा हिन्दी गौरव बड़पन की दाता।
देवी-भाषा संस्कृत मृदु इसकी माता।।
हिन्दी प्यारी पावन शतदल वृन्दा सी।
साजे हिन्दी विश्व पटल पर चन्दा सी।।

हिन्दी भावों की मधुरिम परिभाषा है।
ये जाये आगे बस यह अभिलाषा है।।
त्यागें अंग्रेजी यह समझ बिमारी है।
ओजस्वी भाषा खुद जब कि हमारी है।।

गोसाँई ने रामचरित इस में राची।
मीरा बाँधे घूँघर पग इस में नाची।।
सूरा ने गाये सब पद इस में प्यारे।
ऐसी थाती पा कर हम सब से न्यारे।।

शोभा पाता भारत जग मँह हिन्दी से।
जैसे नारी भाल सजत यक बिन्दी से।।
हिन्दी माँ को मान जगत भर में देवें।
ये प्यारी भाषा हम सब मन से सेवें।।
============
असबंधा छंद विधान -

"मातानासागाग" रचित 'असबंधा' है।
ये तो प्यारी छंद सरस मधु गंधा है।।

"मातानासागाग" = मगण, तगण, नगण, सगण गुरु गुरु
222  221  111  112  22 = 14 वर्ण की वर्णिक छंद। दो दो या चारों चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
12-02-2017

Wednesday, June 1, 2022

एकावली छंद (मनमीत)

किसी से, दिल लगा।
रह गया, मैं ठगा।।
हृदय में, खिल गयी।
कोंपली, इक नयी।।

मिला जब, मनमीत।
जगी है, यह प्रीत।।
आ गया, बदलाव।
उत्तंग, है चाव।।

मोम से, पिघलते।
भाव सब, मचलते।।
कुलांचे, भर रहे।
अनकही, सब कहे।।

रात भी, चुलबुली।
पलक हैं, अधखुली।।
प्रणय-तरु, हों हरे।
बाँह में, नभ भरे।।

खोलता, खिड़कियाँ।
दिखें नव, झलकियाँ।।
झिलमिली, रश्मियाँ।
उड़ें ज्यों, तितलियाँ।।

हृदय में, समा जा।
गले से, लगा जा।।
मीत जब, पास तू।
'नमन' की, आस तू।।
***********

एकावली छंद विधान -

एकावली छंद 10 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है जिसमें पाँच पाँच मात्राओं के दो यति खण्ड रहते हैं। यह दैशिक जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 10 मात्राओं का विन्यास दो पंचकल (5, 5) हैं। पंचकल की निम्न संभावनाएँ हैं :-

122
212
221
(2 को 11 में तोड़ सकते हैं।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
26-05-22

Saturday, May 28, 2022

मजदूरी कर पेट भराँ हाँ

(राजस्थानी गीत)

जीवन री घाणी मं पिस पिस, 
दोरा दिन स्यूँ म्हे उबराँ हाँ।
मजदूरी कर पेट भराँ हाँ।।

मँहगाई सुरसा सी डाकण,
गिटगी घर का गाबा कासण।
पेट पालणो दोरो भारी,
बिना मौत रे रोज मराँ हाँ।

पो फाटै जद घर स्यूँ जाणो,
ताराँ री छाँ पाछो आणो।
सूरज घर मं कदै न दीसै,
इसी मजूरी रोज कराँ हाँ।

आलीशान महल चिण दैवाँ,
झोंपड़ पट्ट्याँ मं खुद रैवाँ।
तपती लू, अंधड़, बिरखा सह,
म्हारी दुनिया मं इतराँ हाँ।

ठेकेदाराँ की ठकुराई,
बणियाँ री सह कर चतुराई।
सरकाराँ का बण बण मुहरा,
म्हे मजदूर सदा निखराँ हाँ।
मजदूरी कर पेट भराँ हाँ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03-05-22

Friday, May 20, 2022

अनुष्टुप छंद (गुरु पंचश्लोकी)


सद्गुरु-महिमा न्यारी, जग का भेद खोल दे।
वाणी है इतनी प्यारी, कानों में रस घोल दे।।

गुरु से प्राप्त की शिक्षा, संशय दूर भागते।
पाये जो गुरु से दीक्षा, उसके भाग्य जागते।।

गुरु-चरण को धोके, करो रोज उपासना।
ध्यान में उनके खोकेेे, त्यागो समस्त वासना।।

गुरु-द्रोही नहीं होना, गुरु आज्ञा न टालना।
गुरु-विश्वास का खोना, जग-सन्ताप पालना।।

गुरु के गुण जो गाएं, मधुर वंदना करें।
आशीर्वाद सदा पाएं, भवसागर से तरें।।
******************

अनुष्टुप छंद विधान -

यह छंद अर्द्ध समवृत्त है । यह द्विपदी छंद है जिसके पद में दो चरण होते हैं। इस के प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं । पहले चार वर्ण किसी भी मात्रा के हो सकते हैं । पाँचवाँ लघु और छठा वर्ण सदैव गुरु होता है । सम चरणों में सातवाँ वर्ण लघु और विषम चरणों में गुरु होता है। आठवाँ वर्ण संस्कृत में तो लघु या गुरु कुछ भी हो सकता है। संस्कृत में छंद के चरण का अंतिम वर्ण लघु होते हुये भी दीर्घ उच्चरित होता है जबकि हिन्दी में यह सुविधा नहीं है। अतः हिन्दी में आठवाँ वर्ण सदैव दीर्घ ही होता है।

(1) × × × × । ऽ ऽ ऽ, (2) × × × × । ऽ । ऽ
(3) × × × × । ऽ ऽ ऽ, (4) × × × × । ऽ । ऽ

उपरोक्त वर्ण विन्यास के अनुसार चार चरणों का एक छंद होता है। सम चरण (2, 4) समतुकांत होने चाहिए। रोचकता बढाने के लिए चाहें तो विषम चरण (1, 3) भी समतुकांत कर सकते हैं पर आवश्यक नहीं।

गुरु की गरिमा भारी, उसे नहीं बिगाड़ना।
हरती विपदा सारी, हितकारी प्रताड़ना।।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
22-07-2016

Tuesday, May 17, 2022

छंदा सागर (मङ्गलाचरण)

 "छंदा सागर" ग्रन्थ

(मङ्गलाचरण)

वीणा की माँ वादिनी, वाहन हंस विहार।
विद्या दे वागीश्वरी, वारण करो विकार।।

ब्रह्म लोक वासिनी।
दिव्य आभ भासिनी।।
वेद वीण धारिणी।
हंस पे विहारिणी।।

शुभ्र वस्त्र आवृता।
पद्म पे विराजिता।।
दीप्त माँ सरस्वती।
नित्य तू प्रभावती।।

छंद ताल हीन मैं।
भ्रांति के अधीन मैं।।
मन्द बुद्धि को हरो।
काव्य की प्रभा भरो।।

छंद-बद्ध साधना।
काव्य की उपासना।
मैं सदैव ही करूँ।
भाव से इसे भरूँ।।

मात ये विचार हो।
देश का सुधार हो।।
ज्ञान का प्रसार हो।
नष्ट अंधकार हो।।

शारदे दया करो।
ज्ञान से मुझे भरो।।
काव्य-शक्ति दे मुझे।
दिव्य भक्ति दे मुझे।।

यह रक्ता छंद की स्तुति प्रस्तुत करते हुए हिंदी के छंद शास्त्र का दिग्दर्शन कराने वाले "छंदा सागर" ग्रन्थ को विद्या बुद्धि प्रदायनी माँ सरस्वती के श्री चरणों में  आशीर्वाद की प्रार्थना के साथ अर्पित कर रहा हूँ।
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भालचन्द्र लम्बोदरा, धूम्रकेतु गजकर्णक।
एकदंत गज-मुख कपिल, गणपति विकट विनायक।।
विघ्न-नाश अरु सुमुख ये, जपे नाम जो द्वादश।
रिद्धि सिद्धि शुभ लाभ से, पाये नर मंगल यश।।

मुक्तामणि में विघ्ननाशक गणपति के द्वादश नामों को स्तुति रूप में प्रस्तुत करते हुए "छंदा सागर" ग्रन्थ के निर्विघ्न पूर्ण होने की तथा ग्रन्थ से प्रबुद्ध पाठकों का चित्त रंजन करने की मंगलकामना करता हूँ।
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सद्गुरु-महिमा न्यारी, जग का भेद खोल दे।
वाणी है इतनी प्यारी, कानों में रस घोल दे।।

गुरु से प्राप्त की शिक्षा, संशय दूर भागते।
पाये जो गुरु से दीक्षा, उसके भाग्य जागते।।

गुरु-चरण को धोके, करो रोज उपासना।
ध्यान में उनके खोकेेे, त्यागो समस्त वासना।।

गुरु-द्रोही नहीं होना, गुरु आज्ञा न टालना।
गुरु-विश्वास का खोना, जग-सन्ताप पालना।।

गुरु के गुण जो गाएँ, मधुर वंदना करें।
आशीर्वाद सदा पाएँ, भवसागर से तरें।।

अनुष्टुप छंद में यह गुरु पंच श्लोकी उन समस्त गुरुजनों को अर्पित है जिनसे मुझे आजतक किसी भी रूप में ज्ञान प्राप्त हुआ।
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बना शारदे वास, मन मन्दिर में पैठ कर। 
विनती करता दास, 'बासुदेव' कर जोड़ कर।।

कृष्ण भाव की रास, थामें मन-रथ बैठ कर।
'बासुदेव' की आस, पूर्ण करें बसुदेव-सुत।। 

व्यास देव दें दृष्टि, कार्य करूँ कल्याणकर। 
करें भाव की वृष्टि, ग्रन्थ बने ये शोक हर।।

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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

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Wednesday, May 11, 2022

सुगम्य गीता "अवतरणिका"

 सुगम्य गीता
"अवतरणिका"

कृष्ण भाव की रास, थामें मन-रथ बैठ कर।
'बासुदेव' की आस, पूर्ण करें बसुदेव-सुत।।

व्यास देव दें दृष्टि, काव्य रचूँ कल्याणकर।
करें भाव की वृष्टि, ग्रन्थ बने ये शोक हर।।

बना शारदे वास, मन मन्दिर में पैठ कर।
विनती करता दास, 'बासुदेव' कर जोड़ कर।।

 "शारदा वंदना"

कलुष हृदय में वास बना माँ,
श्वेत पद्म सा निर्मल कर दो ।
शुभ्र ज्योत्स्ना छिटका उसमें,
अपने जैसा उज्ज्वल कर दो ।।

शुभ्र रूपिणी शुभ्र भाव से,
मेरा हृदय पटल माँ भर दो ।
वीण-वादिनी स्वर लहरी से,
मेरा कण्ठ स्वरिल माँ कर दो ।।

मन उपवन में हे माँ मेरे,
कविता पुष्प प्रस्फुटित होंवे ।
मन में मेरे नव भावों के,
अंकुर सदा अंकुरित होंवे ।।

माँ जनहित की पावन सौरभ,
मेरे काव्य कुसुम में भर दो ।
करूँ काव्य रचना से जग-हित,
'नमन' शारदे ऐसा वर दो ।।

रचयिता:-
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया


Tuesday, May 10, 2022

मंदाक्रान्ता छंद

     मंदाक्रान्ता छंद "लक्ष्मी स्तुति"


लक्ष्मी माता, जगत जननी, शुभ्र रूपा शुभांगी।
विष्णो भार्या, कमल नयनी, आप हो कोमलांगी।।
देवी दिव्या, जलधि प्रगटी, द्रव्य ऐश्वर्य दाता।
देवों को भी, कनक धन की, दायिनी आप माता।।

नीलाभा से, युत कमल को, हस्त में धारती हैं।
हाथों में ले, कनक घट को, सृष्टि संवारती हैं।।
चारों हाथी, दिग पति महा, आपको सींचते हैं।
सारे देवा, विनय करते, मात को सेवते हैं।।

दीपों की ये, जगमग जली, ज्योत से पूजता हूँ।
भावों से ये, स्तवन करता, मात मैं धूजता हूँ।।
रंगोली से, घर दर सजा, बाट जोहूँ तिहारी।
आओ माते, शुभ फल प्रदा, नित्य आह्लादकारी।।

आया हूँ मैं, तव शरण में, भक्ति का भाव दे दो।
मेरे सारे, दुख दरिद की, मात प्राचीर भेदो।।
मैं आकांक्षी, चरण-रज का, 'बासु' तेरा पुजारी।
खाली झोली, बस कुछ भरो, चाहता ये भिखारी।।
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मंदाक्रान्ता छंद विधान -

"माभानाता,तगग" रच के, चार छै सात तोड़ें।
'मंदाक्रान्ता', चतुष पद की, छंद यूँ आप जोड़ें।।

"माभानाता, तगग" = मगण, भगण, नगण, तगण, तगण, गुरु गुरु (कुल 17 वर्ण की वर्णिक छंद।)
222   2,11   111  2,21   221   22  
चार छै सात तोड़ें = चार वर्ण,छ वर्ण और सात वर्ण पर यति।

(संस्कृत का प्रसिद्ध छंद जिसमें मेघदूतम् लिखा गया है।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
30-10-2016

Saturday, May 7, 2022

शब्द शिल्पी साझा अंक

लावणी छंद "सरहदी मधुशाला"

मौक्तिका "बेटी"


"ओपेन बुक्स आनलाइन" के साझा अंक 'शब्द शिल्पी' में प्रकाशित मेरी दो रचनाएँ।


डाउन लोड लिंक:-

https://drive.google.com/file/d/1D1nRQWmbstx2PfgwqtWGpEdhn1C39Qgs/view?usp=drivesdk

बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया

Wednesday, May 4, 2022

दोहा छंद

 दोहा छंद "मजदूर"


श्रम सीकर की वृष्टि से, सरसाते निर्माण।
इन मजदूरों का सभी, गुण का करें बखाण।।

हर उत्पादन का जनक, बेचारा मजदूर।
पर बेटी के बाप सा, खुद कितना मजबूर।।

छत देने हर शीश पर, जूझ रहा मजदूर।
बेछत पर वो खुद रहे, हो कर के मजबूर।।

चैन नहीं मजदूर को, मौसम का जो रूप।
आँधी हो तूफान हो, चाहे पड़ती धूप।।

बहा स्वेद को रात दिन, श्रमिक करे श्रम घोर।
तमस भरी उसकी निशा, लख न सके पर भोर।।

मजदूरों से ही बने, उन्नति का परिवेश।
नवनिर्माणों से खिले, नभ को छूता देश।।

नये कारखानें खुलें, प्रगति करें मजदूर।
मातृभूमि जगमग करें, भारत के ये नूर।।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
04-05-22