Wednesday, February 5, 2020

ग़ज़ल (घबराये हुए लोग हैं)

बह्र:- 221  1221  1221  122

घबराये हुए लोग हैं अनजाने से डर से,
हर एक बशर ख़ौफ़ ज़दा दूजे बशर से।

दूभर है यहाँ आज तो बाहर ही निकलना,
महफ़ूज़ नहीं कोई जमाने की नज़र से।

अनजानी डगर लगने लगी अब मुझे आसां,
जैसे ही पता मुझको चला जाना किधर से।

हम अपनी तरफ से तो बिछा बैठे हैं आँखें,
अब नज़रे इनायत भी तो हो थोड़ी उधर से।

कुछ ऐसा लगे नज़रें मिला दूर हों वे जब,
ज्यों चाँदनी शरमा के छिटक जाती क़मर से।

बेदर्द पिया जैसा तु क्यों अब्र बना है,
कब से ही लगा आस ज़मीं बैठी तु बरसे।

इतनी तु उठा ले ओ 'नमन' अपनी ख़ुदी को,
दुश्मन भी तेरा करने को यारी तेरी तरसे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-07-19

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