2*9 (मात्रिक बहर)
(पदांत 'गया', समांत 'ओ' स्वर)
जिम्मेदारी में बढ़ी उम्र की,
बचपन वो सुहाना गुम हो गया।
चुगते चुगते अनुभव के दाने,
अल्हड़पन मेरा कहीं खो गया।।
तब कुछ चिंता थी न कमाने की,
और फिक्र ही थी न गमाने की।
अब कम साधन औ' अधिक खर्च का,
हौवा ये मन का चैन धो गया।।
अब तो कुछ भी करने से पहले,
भला बुरा विचार के दिल दहले।
आशंकाओं की लेता झपकी,
बचपन का साहस प्रखर सो गया।।
तब आशाओं का पीछा करते,
सपने पूरे करने को मरते।
पहले से ही असफलता का भय,
सुस्ती के अब तो बीज बो गया।।
तब कुछ सपने होते थे पूरे,
रह जाते हैं सब आज अधूरे।
यादों में घुटने को नहीं 'नमन',
वो लौट न सकता समय जो गया।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
02-07-2016
(पदांत 'गया', समांत 'ओ' स्वर)
जिम्मेदारी में बढ़ी उम्र की,
बचपन वो सुहाना गुम हो गया।
चुगते चुगते अनुभव के दाने,
अल्हड़पन मेरा कहीं खो गया।।
तब कुछ चिंता थी न कमाने की,
और फिक्र ही थी न गमाने की।
अब कम साधन औ' अधिक खर्च का,
हौवा ये मन का चैन धो गया।।
अब तो कुछ भी करने से पहले,
भला बुरा विचार के दिल दहले।
आशंकाओं की लेता झपकी,
बचपन का साहस प्रखर सो गया।।
तब आशाओं का पीछा करते,
सपने पूरे करने को मरते।
पहले से ही असफलता का भय,
सुस्ती के अब तो बीज बो गया।।
तब कुछ सपने होते थे पूरे,
रह जाते हैं सब आज अधूरे।
यादों में घुटने को नहीं 'नमन',
वो लौट न सकता समय जो गया।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
02-07-2016
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