Saturday, June 5, 2021

ग़ज़ल (बढ़े ये देश जिन पर)

बह्र:- 1222-1222-1222-1222

बढ़े ये देश जिन पर रास्ते हम वे तलाशेंगे।
समस्याएँ अगर इसमें तो हल मिल के तलाशेंगे।

स्वदेशी वस्तुएं अपना के होंगे आत्मनिर्भर हम,
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे।

महक खुशियों की बिखराने वतन में बाग़बाँ बन कर,
हटा के ख़ार राहों के, खिले गुंचे तलाशेंगे।

बँधे जिस एकता की डोर में प्यारा वतन सारा,
उसी डोरी के सब मजबूत हम धागे तलाशेंगे।

पुजारी अम्न के हम तो सदा से रहते आये हैं,
जहाँ हो शांति की पूजा वे बुतख़ाने तलाशेंगे।

सही इंसानों से रिश्तों को रखना कामयाबी है,
बड़ी शिद्दत से हम रिश्ते सभी ऐसे तलाशेंगे।

अगर बाकी कहीं है मैल दिल में कुछ किसी से तो,
मिटा पहले ये रंजिश राब्ते अगले तलाशेंगे।

पराये जिनके अपने हो चुके, लाचार वे भारी,
बनें हम छाँव जिनकी वे थकेहारे तलाशेंगे।

यही हो भावना सब की, यही आशा सभी से है,
गले मिलने के लोगों के 'नमन' मौके तलाशेंगे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-10-19

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