दोहा छंद
पंकज जैसा मन रखो, चहुँ दिशि चाहे कीच।
पाप कभी छू नहिं सके, जितने रहलो बीच।।
कमल खिले सब पंक में, फिर भी पूजे जाय।
गुण तो छिप सकते नहीं, अवगुण बाहर आय।।
जग काजल की कोठरी, मन ज्यों धवल कपास।
ज्यों बूड़े त्यों श्याम हो, बूड़े नहीं उजास।।
जब उमंग मन में रहे, बनते बिगड़े काम।
गात प्रफुल्लित नित रहे, जग में होता नाम।।
चिंतन मन का कीजिये, देखो जब एकांत।
दोष प्रगट हो सामने, करे हृदय को शांत।।
दया भाव जब मन नहीं, व्यर्थ बाहुबल जान।
औरन को सन्ताप दे, बढ़ता है अभिमान।।
जिनका मन पाषाण है, पाते दुख वे घोर।
दया धर्म जाने नहीं, डाकू पातक चोर।।
झूठ कपट को त्याग कर, मन को करलें शुद्ध।
इससे मन के द्वार सब, कभी न होें अवरुद्ध।।
वाणी ऐसी बोलिये, मन में कपट न राख।
मित्र बनाए शत्रु को, और बढ़ाए साख।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-04-18
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