दोहा छंद
ग्रीष्म विदा हो जा रही, पावस का शृंगार।
दादुर मोर चकोर का, मन वांछित उपहार।।
आया सावन झूम के, मोर मचाये शोर।
झनक झनक पायल बजी, झूलों की झकझोर।।
मेघा तुम आकाश में, छाये हो घनघोर।
विरहणियों की वेदना, क्यों भड़काते जोर।।
पिया बसे परदेश में, रातें कटती जाग।
ऐसे में क्यों छा गये, मेघ लगाने आग।।
उमड़ घुमड़ के छा गये, अगन लगाई घोर।
शीतल करो फुहार से, रे मेघा चितचोर।।
पावस ऋतु में भर गये, सरिता कूप तड़ाग।
कृषक सभी हर्षित भये, मिटा हृदय का राग।।
दानी कोउ न मेघ सा, कृषकों की वह आस।
सींच धरा को रात दिन, शांत करे वो प्यास।।
मेघ स्वाति का देख के, चातक हुआ विभोर।
उमड़ घुमड़ तरसा न अब, बरस मेघ घनघोर।।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
17-07-2016
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