बह्र:- 22 22 22 22
नर से नर शर्मिंदा क्यूँ है,
पर जन की बस निंदा क्यूँ है।
थोड़े रुपयों ख़ातिर बिकता,
सरकारी कारिंदा क्यूँ है।
आख़िर आज अभाव' में इतना,
देश का हर बाशिंदा क्यूँ है।
जिस को देखो वो ही लगता,
सत्ता का साज़िन्दा क्यूँ है।
नूर ख़ुदा का पा कर भी नर,
वहशी एक दरिंदा क्यूँ है।
देख देख जग की ज्वाला को,
अंतर्मन तू जिंदा क्यूँ है।
'नमन' मुसीबत का ही मानव,
इक लाचार पुलिंदा क्यूँ है।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-10-19
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