बह्र:- 2122 2122 2122 2
फँस गया गिर्दाब में मेरा सफ़ीना है,
नाख़ुदा भी पास में कोई न दिखता है।
दोस्तो आया बड़ा ज़ालिम जमाना है,
चोर सारा हो गया सरकारी कुनबा है।
आबरू तक जो वतन की ढ़क नहीं सकता,
वो सियासत की तवायफ़ का दुपट्टा है।
रो रही अच्छे दिनों की आस में जनता,
पर सियासी हलकों में मौसम सुहाना है।
शायरी अच्छे दिनों पर हो तो कैसे हो,
पेट खाली, जिस्म नंगा, घर भी उजड़ा है।
जिस सुहाने चाँद में सपने सजाये थे,
वो तो बंजर सी जमीं का एक क़तरा है।
जी रहें अटकी हुई साँसें 'नमन' हम ले,
रहनुमा डाकू बने नाशाद जनता है,
गिर्दाब = भँवर
नाख़ुदा = मल्लाह
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
7-10-19
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