इक दिन इक कौव्वे ने छत पर, जूठी करदी दधि की झारी।
नज़र पड़ी माँ की त्योंही वह, बेलन खींच उसे दे मारी।।
लालच का मारा वह कागा, साँस नहीं फिर से ले पाया।
यह लख करुणा मेरी फूटी, काग दही पे जान लुटाया।।
रहता एक पड़ौसी बनिया, कागद मल से जाता जाना।
पंक्ति सुनी उसने भी मेरी, समझा अपने ऊपर ताना।।
कान खुजाता हरदम रहता, रहे कागदों में चकराया।
उसने इसको यूँ कुछ समझा, कागद ही पे जान लुटाया।।
एक पड़ौसी छैले के भी, ये उद्गार पड़े कानों में।
बनिये की थुलथुल बेटी को, रोज रिझाता वो गानों में।।
तंज समझ अपने ऊपर वो, गरदन नीची कर सकुचाया।
उसने इसको यूँ कुछ समझा, का गदही पे जान लुटाया।।
देश काल अरु पात्र देख के, कई अर्थ निकले बातों के।
वाणी पर जो रखें न अंकुश, बनें पात्र वे नर लातों के।।
'नमन' शब्द के चमत्कार ने, मंचों पर सम्मान दिलाया,
शब्दों के कारण कइयों ने, जग में अपना नाम गमाया।।
नज़र पड़ी माँ की त्योंही वह, बेलन खींच उसे दे मारी।।
लालच का मारा वह कागा, साँस नहीं फिर से ले पाया।
यह लख करुणा मेरी फूटी, काग दही पे जान लुटाया।।
रहता एक पड़ौसी बनिया, कागद मल से जाता जाना।
पंक्ति सुनी उसने भी मेरी, समझा अपने ऊपर ताना।।
कान खुजाता हरदम रहता, रहे कागदों में चकराया।
उसने इसको यूँ कुछ समझा, कागद ही पे जान लुटाया।।
एक पड़ौसी छैले के भी, ये उद्गार पड़े कानों में।
बनिये की थुलथुल बेटी को, रोज रिझाता वो गानों में।।
तंज समझ अपने ऊपर वो, गरदन नीची कर सकुचाया।
उसने इसको यूँ कुछ समझा, का गदही पे जान लुटाया।।
देश काल अरु पात्र देख के, कई अर्थ निकले बातों के।
वाणी पर जो रखें न अंकुश, बनें पात्र वे नर लातों के।।
'नमन' शब्द के चमत्कार ने, मंचों पर सम्मान दिलाया,
शब्दों के कारण कइयों ने, जग में अपना नाम गमाया।।
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