बह्र:- 2122 2122 2122 212
इश्क़ के चक्कर में ये कैसी फ़ज़ीहत हो गयी
क्या किया इज़हार बस रुस्वा मुहब्बत हो गयी।
उनके दिल में भी है चाहत, सोच हम थे खुश फ़हम,
पर बढ़े आगे, लगा शायद हिमाक़त हो गयी।
खोल के दिल रख दिया जब हमने उनके सामने,
उनकी नज़रों में हमारी ये बगावत हो गयी।
देखिये जिस ओर नकली ही मिलें चहरे लगे,
गुम कहीं अब इन मुखौटों में सदाक़त हो गयी।
हुस्न को पर्दे में रखने नारियाँ जलतीं जहाँ,
अब वहाँ इसकी नुमाइश ही तिज़ारत हो गयी।
बस छलावा रह गया जम्हूरियत के नाम पे,
खानदानी देश की सारी सियासत हो गयी।
नाज़नीनों की यही दिखती अदा अब तो 'नमन',
नाज़ बाकी रह गया गायब शराफ़त हो गयी।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-06-19
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