Saturday, June 13, 2020

मुक्तक (इंसान-1)

देखिए इंसान की कैसे शराफ़त मर गई,
लंतरानी रह गई लेकिन सदाकत मर गई,
बेनियाज़ी आदमी की बढ़ गई है इस क़दर,
पूर्वजों ने जो कमाई सब वो शुहरत मर गई।

आदमी के पेट की चित्कार हैं ये रोटियाँ,
ईश का सबसे बड़ा उपहार हैं ये रोटियाँ।
मुफ़लिसों के खून से भरतें जो ज़ाहिल पेट को,
ऐसे लोगों के लिये व्यापार हैं ये रोटियाँ।

(2122*3  212)
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मानवी-उद्यम से उपजा स्वेद श्रम जल-बिंदु हूँ मैं,
उसकी क्षमताओं से भाषित भाल सज्जित इंदु हूँ मैं,
व्यर्थ में मुझको बहाया या बहाया कुछ भला कर,
उसके सारे कर्म का प्रत्यक्ष द्रष्टा विंदु हूँ मैं।

विंदु= जानकार,ज्ञाता

(2122*4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
5-01-19

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