बह्र:- 1222 1222 1222 1222
रहे जो गर्दिशों में ऐसे अनजानों पे क्या गुज़री,
किसे मालूम उनके दफ़्न अरमानों पे क्या गुज़री।
कमर झुकती गयी पर बोझ जो फिर भी रहे थामे,
न जाने आज की औलाद उन शानों पे क्या गुज़री।
अगर इस देश में महफ़ूज़ हम हैं तो ज़रा सोचें।
वतन की सरहदों के उन निगहबानों पे क्या गुज़री।
मुहब्बत की शमअ पर मर मिटे जल जल पतंगे जो,
खबर किसको कि उन नाकाम परवानों पे क्या गुज़री।
'नमन' अपनों की कोई आज चिंता ही नहीं करता,
सभी को फ़िक्र बस रहती कि बेगानों पे क्या गुज़री।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-2-18
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