बह्र:- 212*4
जो गिरे हैं उन्हें हम उठाते रहे,
दर्द में उनके आँसू बहाते रहे।
दीप हम आँधियों में जलाते रहे।
लोग कुछ जो इन्हें भी बुझाते रहे।
जो गरीबी की सह मार बेज़ार हैं,
आस जीने की उन में जगाते रहे।
राह मज़लूम की तीरगी से घिरी,
रस्ता जुगनू बने हम दिखाते रहे।
खुद परस्ती ओ नफ़रत के इस दौर में,
हम जमाने से दामन बचाते रहे।
अम्न की आस जिनसे लगा के रखी,
पीठ में वे ही खंजर चुभाते रहे।
ये ही फ़ितरत 'नमन' तुम को करती अलग,
बाँट खुशियाँ ग़मों को छुपाते रहे।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-09-19
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