Friday, February 8, 2019

कनक मंजरी छंद "गोपी विरह"

कनक मंजरी छंद / शैलसुता छंद

तन-मन छीन किये अति पागल,
हे मधुसूदन तू सुध ले।
श्रवणन गूँज रही मुरली वह,
जो हम लीं सुन कूँज तले।।
अब तक खो उस ही धुन में हम,
ढूंढ रहीं ब्रज की गलियाँ।
सब कुछ जानत हो तब दर्शन,
देय खिला मुरझी कलियाँ।।

द्रुम अरु कूँज लता सह बातिन,
में हर गोपिण पूछ रही।
नटखट श्याम सखा बिन जीवित,
क्यों अब लौं, निगलै न मही।।
विहग रहे उड़ छू कर अम्बर,
गाय रँभाय रहीं सब हैं।
हरित सभी ब्रज के तुम पादप,
बंजर तो हम ही अब हैं।।

मधुकर एक लखी तब गोपिन,
बोल पड़ीं फिर वे उससे।
भ्रमर कहो किस कारण गूँजन,
से बतियावत हो किससे।।
इन परमार्थ भरी कटु बातन,
से कछु काम नहीं अब रे।
रख अपने तक ज्ञान सभी यह,
भूल गईं सुध ही जब रे।।

मधुकर श्यामल मोहन श्यामल,
तू न कहीं छलिया वह ही।
कलियन रूप चखे नित नूतन,
है गुण श्याम समान वही।।
परखन प्रीत हमार यहाँ यदि,
रूप मनोहर वो धर लें।
यदि न कहो उनसे झट जा कर,
दर्श दिखा दुख वे हर लें।।
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कनक मंजरी छंद विधान -

प्रथम रखें लघु चार तबै षट "भा" गण  संग व 'गा' रख लें।
सु'कनक मंजरि' छंद रचें यति तेरह वर्ण तथा दश पे।।

लघु चार तबै षट "भा" गण  संग व 'गा' = 4 लघु + 6भगण (211) + 1 गुरु।

1111+ 211+ 211+ 211, 211+ 211+ 211+ 2 = कुल 23 वर्ण की वर्णिक छंद।

शैलसुता छंद विधान - इसी छंद में जब यति की बाध्यता न हो तो यही "शैलसुता छंद" कहलाती है।

(भागवत का प्रसिद्ध गोपी गीत इसी छंद में है।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-01-19


Sunday, February 3, 2019

हाइकु (षट ऋतु)

चैत्र वैशाख
छायी 'बसंत'-साख
बौराई शाख।
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ज्येष्ठ आषाढ़
जकड़े 'ग्रीष्म'-दाढ़
स्वेद की बाढ़।
**

श्रावण भाद्र
'वर्षा' से धरा आर्द्र
मेघ सौहार्द्र।
**

क्वार कार्तिक
'शरद' अलौकिक
शुभ्र सात्विक।
**

अग्हन पोष
'हेमन्त' भरे रोष
सौड़ी में तोष।
**

माघ फाल्गुन
'शिशिर' है पाहुन
तापें आगुन।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-01-2019

Saturday, February 2, 2019

इन्द्रवज्रा छंद/उपेन्द्रवज्रा छंद/उपजाति छंद "शिवेंद्रवज्रा स्तुति"

इन्द्रवज्रा छंद / उपेन्द्रवज्रा छंद / उपजाति छंद "शिवेंद्रवज्रा स्तुति"

परहित कर विषपान, महादेव जग के बने।
सुर नर मुनि गा गान, चरण वंदना नित करें।।

माथ नवा जयकार, मधुर स्तोत्र गा जो करें।
भरें सदा भंडार, औघड़ दानी कर कृपा।।

कैलाश वासी त्रिपुरादि नाशी।
संसार शासी तव धाम काशी।
नन्दी सवारी विष कंठ धारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।१।।

ज्यों पूर्णमासी तव सौम्य हाँसी।
जो हैं विलासी उन से उदासी।
भार्या तुम्हारी गिरिजा दुलारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।२।।

जो भक्त सेवे फल पुष्प देवे।
वाँ की तु देवे भव-नाव खेवे।
दिव्यावतारी भव बाध टारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।३।।

धूनी जगावे जल को चढ़ावे।
जो भक्त ध्यावे उन को तु भावे।
आँखें अँगारी गल सर्प धारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।४।।

माथा नवाते तुझको रिझाते।
जो धाम आते उन को सुहाते।
जो हैं दुखारी उनके सुखारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।५।।

मैं हूँ विकारी तु विराग धारी।
मैं व्याभिचारी प्रभु काम मारी।
मैं जन्मधारी तु स्वयं प्रसारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।६।।

द्वारे तिहारे दुखिया पुकारे।
सन्ताप सारे हर लो हमारे।
झोली उन्हारी भरते उदारी।
कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।७।।

सृष्टी नियंता सुत एकदंता।
शोभा बखंता ऋषि साधु संता।
तु अर्ध नारी डमरू मदारी।
पिनाक धारी शिव दुःख हारी।८।।

जा की उजारी जग ने दुआरी।
वा की निखारी प्रभु ने अटारी।
कृपा तिहारी उन पे तु डारी।
पिनाक धारी शिव दुःख हारी।९।।

पुकार मोरी सुन ओ अघोरी।
हे भंगखोरी भर दो तिजोरी।
माँगे भिखारी रख आस भारी।
पिनाक धारी शिव दुःख हारी।।१०।।

भभूत अंगा तव भाल गंगा।
गणादि संगा रहते मलंगा।
श्मशान चारी सुर-काज सारी।
पिनाक धारी शिव दुःख हारी।।११।।

नवाय माथा रचुँ दिव्य गाथा। 
महेश नाथा रख शीश हाथा।
त्रिनेत्र थारी महिमा अपारी।
पिनाक धारी शिव दुःख हारी।।१२।।

करके तांडव नृत्य, प्रलय जग की शिव करते।
विपदाएँ भव-ताप, भक्त जन का भी हरते।
देवों के भी देव, सदा रीझो थोड़े में। 
करो हृदय नित वास, शैलजा सँग जोड़े में।
रच "शिवेंद्रवज्रा" रखे, शिव चरणों में 'बासु' कवि।
जो गावें उनकी रहे, नित महेश-चित में छवि।।

(छंद १ से ७ इन्द्रवज्रा छंद में, ८ से १० उपजाति छंद में और ११ व १२ उपेन्द्रवज्रा छंद में

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इन्द्रवज्रा छंद विधान -

"ताता जगेगा" यदि सूत्र राचो।
तो 'इन्द्रवज्रा' शुभ छंद पाओ।

"ताता जगेगा" = तगण, तगण, जगण, गुरु, गुरु
221  221  121  22
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 उपेन्द्रवज्रा छंद विधान -

"जता जगेगा" यदि सूत्र राचो।
'उपेन्द्रवज्रा' तब छंद पाओ।

"जता जगेगा" = जगण, तगण, जगण, गुरु, गुरु
121  221  121  22
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उपजाति छंद विधान -

उपेंद्रवज्रा अरु इंद्रवज्रा।
दोनों मिले तो 'उपजाति' छंदा।

चार चरणों के छंद में कोई चरण इन्द्रवज्रा छंद का हो और कोई उपेन्द्रवज्रा छंद का तो वह 'उपजाति' छंद के अंतर्गत आता है।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28-11-2018


आँसू छंद "कल और आज"

आँसू छंद

भारत तू कहलाता था, सोने की चिड़िया जग में।
तुझको दे पद जग-गुरु का, सब पड़ते तेरे पग में।
तू ज्ञान-ज्योति से अपनी, संपूर्ण विश्व चमकाया।
कितनों को इस संपद से, तूने जीना सिखलाया।।1।।

तेरी पावन वसुधा पर, नर-रत्न अनेक खिले थे।
बल, विक्रम और दया के, जिनको गुण खूब मिले थे।
अपनी मीठी वाणी से, वे जग मानस लहराये।
सन्देश धर्म का दे कर, थे दया-केतु फहराये।।2।।

प्राणी में सम भावों की, वीणा-लहरी गूँजाई।
इस जग-कानन में उनने, करुणा की लता खिलाई।
अपने इन पावन गुण से, तू जग का गुरु कहलाया।
जग एक सूत्र में बाँधा, अपना सम्मान बढ़ाया।।3।।

तू आज बता क्यों भारत, वह गौरव भुला दिया है।
वह भूल अतीत सुहाना, धारण नव-वेश किया है।
तेरी दीपक की लौ में, जिनके थे मिटे अँधेरे।
वे सिखा रहें अब तुझको, बन कर के अग्रज तेरे।।4।।

तूने ही सब से पहले, उनको उपदेश दिया था।
तू ज्ञान-भानु बन चमका, जग का तम दूर किया था।
वह मान बड़ाई तूने, अपने मन से बिसरा दी।
वह छवि अतीत की पावन, उर से ही आज मिटा दी।।5।।

तेरे प्रकाश में जग का, था आलोकित हृदयांगन।
तूने ही तो सिखलाया, जग-जन को वह ज्ञानांकन।
वह दिव्य जगद्गुरु का पद, तू  पूरा भूल गया है।
हर ओर तुझे अब केवल, दिखता सब नया नया है।।6।।

अपना आँचल फैला कर, बन कर के दीन भिखारी।
थे कृपा-दृष्टि के इच्छुक, जो जग-जन कभी तिहारी। 
अब दया-दृष्टि का उनकी, रहता सदैव तू प्यासा।
क्या भान नहीं है इसका, कैसे पलटा यह पासा।।7।।

अपने रिवाज सब छोड़े , बिसराया खाना, पीना।
त्यज वेश और भूषा तक, छोड़ा रिश्तों में जीना।
निज जाति, वर्ण अरु कुल का, मन में अभिमान न अब है।
अपनाना रंग विदेशी, तूने तो ठाना सब है।।8।।

कण कण में व्याप्त हुई है, तेरे भीषण कृत्रिमता।
बस आज विदेशी की ही, तुझ में दिखती व्यापकता।
ये दृष्टि जिधर को जाती, हैं रंग नये ही दिखते।
नव रंग रूप ये तेरी, हैं भाग्य-रेख को लिखते।।9।।
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आँसू छंद विधान

14 - 14 मात्रा (चरण में कुल 28 मात्रा। दो दो चरण सम तुकांत)
मात्रा बाँट:- 2 - 8 - 2 - 2  प्रति यति में।
मानव छंद में किंचित परिवर्तन कर प्रसाद जी ने पूरा 'आँसू' खंड काव्य इस छंद में रचा है, इसलिए इस छंद का नाम ही आँसू छंद प्रचलित हो गया है।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

17-04-2016

ग़ज़ल (बना है बोझ ये जीवन कदम)

ग़ज़ल (बना है बोझ ये जीवन कदम)

बह्र:- (1212  1122)*2

बना है बोझ ये जीवन कदम थमे थमे से हैं,
कमर दी तोड़ गरीबी बदन झुके झुके से हैं।

लिखा न एक निवाला नसीब हाय ये कैसा,
सहन ये भूख न होती उदर दबे दबे से हैं।

पड़ेंं दिखाई नहीं अब कहीं भी आस की किरणें,
गगन में आँख गड़ाए नयन थके थके से हैं।

मिली सदा हमें नफरत करे ज़लील ज़माना,
हथेली कान पे रखते वचन चुभे चुभे से हैं।

दिखींं कभी न बहारें मिले सदा हमें पतझड़,
मगर हमारे मसीहा कमल खिले खिले से हैं।

छिपाएँ कैसे भला अब हमारी मुफ़लिसी जग से,
हमारे तन से जो लिपटे वसन फटे फटे से हैं।

सदा ही देखते आए ये सब्ज बाग घनेरे,
'नमन' तुझे है सियासत सपन बुझे बुझे से हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-10-2016

आल्हा छंद "अग्रदूत अग्रवाल"

आल्हा छंद / वीर छंद

अग्रोहा की नींव रखे थे, अग्रसेन नृपराज महान।
धन वैभव से पूर्ण नगर ये, माता लक्ष्मी का वरदान।।
आपस के भाईचारे पे, अग्रोहा की थी बुनियाद।
एक रुपैया एक ईंट के, सिद्धांतों पर ये आबाद।।

ऊँच नीच का भेद नहीं था, वासी सभी यहाँ संपन्न।
दूध दही की बहती नदियाँ, प्राप्य सभी को धन अरु अन्न।।
पूर्ण अहिंसा पर जो आश्रित, वणिक-वृत्ति को कर स्वीकार।
सवा लक्ष जो श्रेष्ठि यहाँ के, नाम कमाये कर व्यापार।।

कालांतर में अग्रसेन के, वंशज 'अग्रवाल' कहलाय।
सकल विश्व में लगे फैलने, माता लक्ष्मी सदा सहाय।।
गौत्र अठारह इनके शाश्वत, रिश्ते नातों के आधार।
मर्यादा में रह ये पालें, धर्म कर्म के सब व्यवहार।।

आशु बुद्धि के स्वामी हैं ये, निपुण वाकपटु चतुर सुजान।
मंदिर गोशाला बनवाते, संस्थाओं में देते दान।।
माँग-पूर्ति की खाई पाटे, मिलजुल करते कारोबार।
जो भी इनके द्वारे आता, पाता यथा योग्य सत्कार।।

सदियों से लक्ष्मी माता का, मिला हुआ पावन वरदान। 
अग्रवंश के सुनो सपूतों, तुम्हें न ये दे दे अभिमान।।
धन-लोलुपता बढ़े न इतनी, स्वारथ में तुम हो कर क्रूर।
'ईंट रुपैयै' की कर बैठो, रीत सनातन चकनाचूर।।

'अग्र' भाइयों से तुम नाता, देखो लेना कभी न तोड़।
अपने काम सदा आते हैं, गैर साथ जब जायें छोड़।।
उत्सव की शोभा अपनों से, उनसे ही हो हल्का शोक।
अपने करते नेक कामना, जीवन में छाता आलोक।।

सगे बिरादर बांधव से सब, रखें हृदय से पूर्ण लगाव।
जैसे भाव रखेंगे उनमें, वैसे उनसे पाएँ भाव।।
अपनों की कुछ हो न उपेक्षा, धन दौलत में हो कर चूर। 
नाम दाम सब धरे ही रहते, अपने जब हो जातें दूर।।

बूढ़े कहते आये हरदम, रुपयों की नहिं हो खनकार।
वैभव का तो अंध प्रदर्शन, अहंकार का करे प्रसार।।
अग्रसेन जी के युग से ही, अपनी यही सनातन रीत।
भाव दया के सब पर राखें, जीव मात्र से ही हो प्रीत।।

वैभव में कुछ अंधे होकर, भूल गये सच्ची ये राह।
जीवन का बस एक ध्येय रख, मिल जाये कैसे भी वाह।।
अंधी दौड़ दिखावे की कुछ, इस समृद्ध-कुल में है आज।
वंश-प्रवर्तक के मन में भी, लख के आती होगी लाज।।

छोड़ें उत्सव, खुशी, व्याह को, अरु उछाव के सारे गीत।
बिना दिखावे के नहिं निभती, धर्म कर्म तक की भी रीत।।
'बासुदेव' विक्षुब्ध देख कर, 'अग्र' वंश की अंधी चाल।
अब समाज आगे आ रोके, निर्णय कर इसको तत्काल।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया 
06-05-18

आल्हा छंद/वीर छंद 'विधान'

आल्हा छंद / वीर छंद

आल्हा छंद वीर छंद के नाम से भी प्रसिद्ध है जो 31 मात्रा प्रति पद का सम पद मात्रिक छंद है। यह चार पदों में रचा जाता है। इसे मात्रिक सवैया भी कहते हैं। इसमें यति 16 और 15 मात्रा पर नियत होती है। दो दो या चारों पद समतुकांत होने चाहिए। 

16 मात्रा वाले चरण का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाली है। 15 मात्रिक चरण का अंत ताल यानी गुरु लघु से होना आवश्यक है। तथा बची हुई 12 मात्राएँ तीन चौकल के रूप में हो सकती हैं या फिर एक अठकल और एक चौकल हो सकती हैं। चौकल और अठकल के सभी नियम लागू होंगे। 

’यथा नाम तथा गुण’ की उक्ति को चरितार्थ करते आल्हा छंद या वीर छंद के कथ्य अक्सर ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं। जनश्रुति इस छंद की विधा को यों रेखांकित करती है - 

आल्हा मात्रिक छन्द, सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य। 
गुरु-लघु चरण अन्त में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य।
अलंकार अतिशयताकारक, करे राइ को तुरत पहाड़। 
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़। 

परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि इस छंद में वीर रस के अलावा अन्य रस की रचना नहीं रची जा सकती।
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भारत के जवानों पर कुछ पंक्तियाँ।

संभाला है झट से मोर्चा, हुआ शत्रु का ज्योंही भान।
उछल उछल के कूद पड़े हैं, भरी हुई बन्दूकें तान।
नस नस इनकी फड़क उठी है, करने रिपु का शोणित पान।
झपट पड़े हैं क्रुद्ध सिंह से, भारत के ये वीर जवान।।

रिपु मर्दन का भाव भरा है, इनकी आँखों में अति क्रूर।
गर्ज मात्र ही सुनकर जिनकी, अरि का टूटे सकल गरूर।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, दृढ़ निश्चय कर जो तैयार।
दुश्मन के छक्के छुट जायें, सुन कर के उनकी हूँकार।।

(बासुदेव अग्रवाल 'नमन' रचित) ©



अहीर छंद "प्रदूषण"

अहीर छंद / अभीर छंद

बढ़ा प्रदूषण जोर।
इसका कहीं न छोर।।
संकट ये अति घोर।
मचा चतुर्दिक शोर।।

यह भीषण वन-आग।
हम सब पर यह दाग।।
जाओ मानव जाग।
छोड़ो भागमभाग।।

मनुज दनुज सम होय।
मर्यादा वह खोय।।
स्वारथ का बन भृत्य।
करे असुर सम कृत्य।।

जंगल किए विनष्ट।
सहता है जग कष्ट।।
प्राणी सकल कराह।
भरते दारुण आह।।

धुआँ घिरा विकराल।
ज्यों उगले विष व्याल।।
जकड़ जगत निज दाढ़।
विपदा करे प्रगाढ़।।

दूषित नीर समीर।
जंतु समस्त अधीर।।
संकट में अब प्राण।
उनको कहीं न त्राण।।

प्रकृति-संतुलन ध्वस्त।
सकल विश्व अब त्रस्त।।
अन्धाधुन्ध विकास।
आया जरा न रास।।

विपद न यह लघु-काय।
शापित जग-समुदाय।।
मिलजुल करे उपाय।
तब यह टले बलाय।।
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अहीर छंद / अभीर छंद विधान -

अहीर छंद जो कि अभीर छंद के नाम से भी जाना जाता है, ११ मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है जिसका अंत जगण 121 से होना आवश्यक है। यह रौद्र जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 11 मात्राओं का विन्यास ठीक दोहा छंद के 11 मात्रिक सम चरण जैसा है बस 8 वीं मात्रा सदैव लघु रहे। दोहा छंद के सम चरण का कल विभाजन है:

अठकल + 3 (ताल यानी 21)
अठकल में 2 चौकल हो सकते हैं। अठकल और चौकल के सभी नियम अनुपालनीय हैं। इस छंद में अठकल की निम्न संभावनाएँ हो सकती हैं।

3,3,1,1
2, जगण,1,1
3, जगण,1
4,2,1,1
4,3,1
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08-11-16

Monday, January 21, 2019

रथोद्धता छंद ("आह्वाहन")

मात अम्ब सम रूप राख के।
देश-भक्ति रस भंग चाख के।
गर्ज सिंह सम वीर जागिये।
दे दहाड़ अब नींद त्यागिये।।

आज है दुखित मात भारती।
आर्त होय सबको पुकारती।।
वीर जाग अब आप जाइये।
धूम शत्रु-घर में मचाइये।।

देश का हित कभी न शीर्ण हो।
भाव ये हृदय से न जीर्ण हो।।
ये विचार रख के बढ़े चलो।
ही किसी न अवरोध से टलो।।

रौद्र रूप अब वीर धारिये।
मातृ भूमि पर प्राण वारिये।
अस्त्र शस्त्र कर धार लीजिये।
मुंड काट रिपु ध्वस्त कीजिये।।
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रथोद्धता (लक्षण छंद)

"रानरा लघु गुरौ" 'रथोद्धता'।
तीन वा चतुस तोड़ के सजा।

"रानरा लघु गुरौ"  =  212  111  212  12

रथोद्धता इसके चार चरण होते हैं |
प्रत्येक चरण में ११-११ वर्ण होते हैं |
हर चरण में तीसरे या चौथे वर्ण के बाद यति होती है।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-01-19

Sunday, January 20, 2019

शालिनी छन्द ("राम स्तवन")

शालिनी छन्द ("राम स्तवन")

हाथों में वे, घोर कोदण्ड धारे।
लंका जा के, दैत्य दुर्दांत मारे।।
सीता माता, मान के साथ लाये।
ऐसे न्यारे, रामचन्द्रा सुहाये।।

मर्यादा के, आप हैं नाथ स्वामी।
शोभा न्यारी, रूप नैनाभिरामी।।
चारों भाई, साथ सीता अनूपा।
बांकी झांकी, दिव्य है शांति-रूपा।।

प्राणी भू के, आप के गीत गायें।
सारे देवा, साम गा के रिझायें।।
भक्तों के हो, आप ही दुःख हारी।
पूरी की है, दीन की आस सारी।।

माता रामो, है पिता रामचन्द्रा।
स्वामी रामो, है सखा रामचन्द्रा।।
हे देवों के, देव मेरे दुलारे।
मैं तो जीऊँ, आप ही के सहारे।।
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लक्षण छंद (शालिनी छंद)

राचें बैठा, सूत्र "मातातगागा"।
गावें प्यारी, 'शालिनी' छंद रागा।।

"मातातगागा"= मगण, तगण, तगण, गुरु, गुरु

222  221  221  22

(शालिनी छन्द के प्रत्येक चरण मे 11 वर्ण होते हैं। यति चार वर्ण पे देने से छंद लय युक्त होती है।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-01-19

वसन्त तिलका छंद ("मनोकामना")

मैं पूण्य भारत धरा, पर जन्म लेऊँ।
संस्कार वैदिक मिले, सब देव सेऊँ।।
यज्ञोपवीत रखके, नित नेम पालूँ।
माथे लगा तिलक मैं, रख गर्व चालूँ।।

गीता व मानस करे, दृढ़ राह सारी।
सत्संग प्राप्ति हर ले, भव-ताप भारी।।
सिद्धांत विश्व-हित के, मन में सजाऊँ।
हींसा प्रवृत्ति रख के, न स्वयं लजाऊँ।।

सारी धरा समझलूँ, परिवार मेरा।
हो नित्य ही अतिथि का, घर माँहि डेरा।।
देवों समान उनको, समझूँ सदा ही।
मैं आर्ष रीति विधि का, बन जाऊँ वाही।।

प्राणी समस्त सम हैं, यह भाव राखूँ।
ऐसे विचार रख के, रस दिव्य चाखूँ।।
हे नाथ! पूर्ण करना, मन-कामना को।
मेरी सदैव रखना, दृढ भावना को।।
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वसन्त तिलका (लक्षण छंद)

"ताभाजजागगु" गणों पर वर्ण राखो।
प्यारी 'वसन्त तिलका' तब छंद चाखो।।

"ताभाजजागगु" = तगण, भगण, जगण, जगण और दो गुरु।

221  211  121  121  22

वसन्त तिलका चौदह वर्णों का छन्द है। यति 8,6 पर रखने से छंद मधुर लगता है पर आवश्यक नहीं है। उदाहरण देखिए:

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा | 
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां में कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ||
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08-01-2019

मालिनी छंद ("हनुमत स्तुति")

पवन-तनय प्यारा, अंजनी का दुलारा।
तपन निगल डारा, ठुड्ड टेढ़ा तुम्हारा।।
हनुमत बलवाना, वज्र देही महाना।
सकल गुण निधाना, ज्ञान के हो खजाना।।

जलधि उतर पारा, सीय को खोज डारा।
कनक-नगर जारा, राम का काज सारा।।
अवधपति सहायी, नित्य रामानुयायी।
अतिसय सुखदायी, भक्त को शांतिदायी।।

भुजबल अति भारी, शैल आकार धारी।
दनुज दलन कारी, व्योम के हो विहारी।।
घिर कर जग-माया, घोर संताप पाया।
तव दर प्रभु आया, नाथ दो छत्रछाया।।

सकल जगत त्राता, मुक्ति के हो प्रदाता।
नित गुण तव गाता, आपका रूप भाता।।
भगतन हित कारी, नित्य हो ब्रह्मचारी।
प्रभु शरण तिहारी, चाहता ये पुजारी।।
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मालिनी छंद विधान -

"ननिमयय" गणों में, 'मालिनी' छंद जोड़ें।
यति अठ अरु सप्ता, वर्ण पे आप तोड़ें।।

"ननिमयय" = नगण, नगण, मगण, यगण, यगण।
111  111  22,2  122  122 = 15 वर्ण की वर्णिक छंद।

मालिनी छन्द में प्रत्येक पद में 15 वर्ण होते हैं और इसमें यति आठवें और सातवें वर्णों के बाद होती है। सुंदर काण्ड का 'अतुलित बलधामं' श्लोक इसी छंद में है।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
09-09-2019

Friday, December 7, 2018

इंद्रवज्रा छंद "शिव पंचश्लोकी"

इंद्रवज्रा छंद आधारित "शिव पंचश्लोकी"

चाहे पुकारे जिस हाल में जग
     शंकर महादेव हे ज्ञान राशी।
पीड़ा हरे नाथ संसार की सब
     त्रिपुरारि भोले कैलाश वासी।।

जब देव दानव सागर मथे थे
     निकला हलाहल विष घोर भारी।
व्याकुल हुए सब तुम याद आए
     दूजा न कोई सन्ताप हारी।।

धारण गले में विष के किये से
     नीला पड़ा कंठ मृणाल जिसका।
गंगा भगीरथ लाये धरा पे
     धारण जटा में किया वेग उसका।।

फुफकार मारे विषधर गले से
     माथे सजे चाँद सबका दुलारा।
तेरे लिये ही काशी का गौरव
     ऐसा हमारा है नाथ न्यारा।।

भोले हमारे सब कष्ट हर लो
     खुशियाँ हमारे जीवन में भर दो।
माथा नवा के करते 'नमन' हम
     आशा हमारी सब पूर्ण कर दो।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-07-2016

(इन्द्रवज्रा छंद वाचिक स्वरूप में है)