Tuesday, May 21, 2024

चन्द्र शेखर आज़ाद (मुक्तक)

         

(चन्द्र शेखर आज़ादजी की पुण्य तिथि पर। जन्म 1906।)

तुम शुभ्र गगन में भारत के, चमके जैसे चन्दा उज्ज्वल।
ऐंठी मूंछे, चोड़ी छाती, आज़ाद खयालों के प्रतिपल।
अंग्रेजों को दहलाया था, दे अपना उत्साही यौवन।
हे शेखर! 'नमन' तुम्हें शत शत, जो खिले हृदय में बन शतदल।।

(मत्त सवैया आधारित)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया 

Tuesday, May 14, 2024

योग-महिमा (कुण्डलिया)

योग साधना देन है, भारत की अनमोल।
मन को उत्साहित करे, काया करे सुडोल।
काया करे सुडोल, देन ऋषियों की भारी।
रखे देह से दूर, रोग की विपदा सारी।
निर्मल करती गात, शुद्ध यह करे भावना।
कहे 'बासु' कविराय, करो नित योग साधना।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
21-06-2016

Tuesday, May 7, 2024

"ग्रीष्म वर्णन"

प्रसारती आज गर्मी पूर्ण बल को
तपा रही है आज पूरे अवनि तल को।
दर्शाते हुए उष्णता अपनी प्रखर
झुलसा रही वसुधा को लू की लहर।।1।।

तप्त तपन तप्त ताप राशि से अपने
साकार कर रहा है प्रलय सपने।
भाष्कर की कोटि किरणें भी आज
रोक रही भूतल के सब काम काज।।2।।

कर रहा अट्टहास ग्रीष्म आज जग में
बहा रहा पिघले लावे को रग रग में।
समेटे अपनी हंसी में जग रुदन
कर रहा तांडव नृत्य हो खुद में मगन।।3।।

व्यथा से व्याकुल हो रहा भू जन
ठौर नहीं छुपाने को कहीं भी तन।
त्याग आवश्यक कार्य कलाप वह सब
व्यथा सागर में डूबा हुआ है यह भव।।4।।

झुलसती भू सन्तान ग्रीष्म प्रभाव से
द्रुम लतादिक भी बचे न इसके दाव से।
झुलसाते असहाय विटप समूह को
बह रहा आतप ले लू समूह को।।5।।

हो विकल पक्षी भटक रहे पुनि पुनि
त्याग कल क्रीड़ा अरु समधुर धुनि।
अनेक पशु टिक अपने लघु आवास में
टपका रहे विकलता हर श्वास में।।6।।

शुष्क हुए सर्व नदी नद कूप सर
दर्शाता जलाभाव तपन ताप कर।
अति व्यथित हो इस सलिल अभाव से
बन रहे जन काल ग्रास इस दाव से।।7।।

खौला उदधि जल को भीषण ताप से
झुलसा जग जन को इस संताप से।
मुदित हो रहा ग्रीष्म अपने भाव में
न नाम ले थमने का अपने चाव में।।8।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता

Thursday, May 2, 2024

अयोध्या मंदिर निर्माण (दोहे)

 दोहा छंद

अवधपुरी भगवा हुई, भू-पूजन की धूम।
भारतवासी के हृदय, आज रहे हैं झूम।।

दिव्य अयोध्या में बने, मंदिर प्रभु का भव्य।
सकल देश का स्वप्न ये, सबका ही कर्तव्य।।

पाँच सदी से झेलते, आये प्रभु वनवास।
असमंजस के मेघ छँट, पूर्ण हुई अब आस।।

मन में दृढ संकल्प हो, कछु न असंभव काम।
करने की ठानी तभी, खिला हुआ प्रभु-धाम।।

डर बिन सठ सुधरैं नहीं, बड़ी सार की बात।
काज न हो यदि बात से, आवश्यक तब लात।।

रामलला के नाम से, कटते सारे पाप।
रघुपति का संसार में , ऐसा प्रखर प्रताप।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
05-08-20

Tuesday, April 23, 2024

सुलक्षण छंद "मन की बात"

कहनी आज मन की बात।
होंगे व्यक्त सब आघात।।
वाणी रुद्ध दृग में नीर।
आयी पीर अंतस चीर।।

आर्यावर्त भारत देश।
अति प्राचीन इसका वेश।।
वैभवपूर्ण क्षिति, जल, अन्न।
रहा सदैव यह संपन्न।।

धीर सुवीर यहाँ नरेश।
सदा सुशांति का परिवेश।।
आश्रय नित्य पाये सर्व।
त्यज कर भेद रख कर गर्व।।

लेकिन आज हम बल हीन।
सत्तारूढ़ फिर भी दीन।।
खो वह ओज पढे कुपाठ।
हुआ विलीन वह सब ठाठ।।

रीति रिवाज सारे भग्न।
त्याग स्वधर्म कायर मग्न।।
ओछे स्वार्थ का है जोर।
शासन व्यर्थ करता शोर।।

हैं अलगाव के सुर तेज।
सबको राष्ट्र से परहेज।।
मिलजुल देश करे विचार।
हों अब शीघ्र 'नमन' सुधार।।
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सुलक्षण छंद विधान -

सुलक्षण छंद 14 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है। यह मानव जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 पद होते हैं और छंद के दो दो या चारों पद सम तुकांत होने चाहिए। इन 14 मात्राओं की मात्रा बाँट चौकल + ताल (21) चौकल + ताल (21) है। चौकल में 22, 211, 112, 1111 आ सकते हैं। इसके अतिरिक्त चौकल में 3+1 भी रख सकते हैं।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
03-06-22

Sunday, April 14, 2024

 "जागो देश के जवानों"

जाग उठो हे वीर जवानों,
आज देश पूकार रहा है।
त्यज दो इस चिर निंद्रा को,
हिमालय पूकार रहा है।।1।।

छोड़ आलस्य का आँचल,
दुश्मन का कर दो मर्दन।
टूटो मृग झुंडों के ऊपर,
गर्जन करते केहरि बन।।2।।

मंडरा रहे हैं संकट के घन,
इस देश के गगन में।
शोषणता व्याप्त हुयी है,
जग के जन के मन में।।3।।

घिरा हुवा है आज देश,
चहुँ दिशि से अरि सेना से।
शोषण नीति टपक रही,
पर देशों के नैना से।।4।।

भूल गयी है उन्नति का पथ,
इधर इसी की सन्तानें।
भटक गयी है सच्चे पथ से,
स्वार्थ के पहने बाने।।5।।

दीवारों में है छेद कर रही,
वो अपने ही घर की।
धर्म कर्म अपना बिसरा,
ठोकर खाती दर दर की।।6।।

चला जा रहा आज देश,
गर्त में अवनति के गहरे।
आज इसी के विस्तृत नभ में,
पतन पताका है फहरे।।7।।

त्राहि त्राहि है मची हुयी,
देश के हर कोने में।
पड़ी हुयी सारी जनता है,
आज देश की रोने में।।8।।

अब तो जाग उठो जवानों,
जी में साहस ले कर।
काली बन अरि के सीने का,
दिखलाओ शोणित पी कर।।9।।

जग को अब तुम दिखलादो,
वीर भगत सिंघ बन कर।
वीरों की यह पावन भूमि,
वीर यहां के सहचर।।10।।

गांधी सुभाष बन कर के तुम,
भारत का मान बढ़ाओ।
जाति धर्म देश सेवा हित,
प्राणों की बलि चढ़ाओ।।11।।

मोहन बन कर के तुम जन को,
गीता का पाठ पढ़ाओ।
भूले भटके राही को तुम,
सच्ची राह दिखाओ।।12।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता।

Wednesday, April 10, 2024

सरस छंद "ममतामयी माँ"

माँ तुम्हारा, छत्र सर पर।
छाँव देता, दिव्य तरुवर।।
नेह की तुम, खान निरुपम।
प्रेम की हो, रश्मि चमचम।।

जीव का कर, तुम अवतरण।
शिशु का करो, पोषण भरण।।
माँ सृष्टि को, कर प्रस्फुटित।
भाव में बह, होती मुदित।।

मातृ आँचल, शीतल सुखद।
दूर करता, ये हर विपद।।
माँ की कांति, रवि सम प्रखर।
प्रीत की यह, बहती लहर।।

वात्सल्य की, प्रतिमूर्ति तुम।
भाल पर ज्यों, दिव्य कुमकुम।।
भगवान हैं, माँ के चरण।
इन बिन कहाँ, फिर है शरण।।

माँ दुलारी, ज्यों विशद नभ।
जो बनाए, हर पथ सुलभ ।।
गोद में हैं, सब तीर्थ स्थल।
तार दें जो, जीवन सकल।।

माँ तुम्हारी, ममता परम।
कोई नहीं, इसका चरम।।
पीड़ मेरी, करती शमन।
प्रति दिन करूँ, तुमको 'नमन'।।
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सरस छंद -

सरस छंद 14 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है जिसका अंत नगण (111) से होना आवश्यक है। इसमें 7 - 7 मात्राओं पर यति अनिवार्य है। यह मानव जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 पद होते हैं और छंद के दो दो या चारों पद सम तुकांत होने चाहिए। इन 14 मात्राओं की मात्रा बाँट 2 5, 2 5 है। पंचकल की निम्न संभावनाएँ हैं :-

122
212
221
(2 को 11 में तोड़ सकते हैं, पर पद का अंत सदैव तीन लघु (111) से होना चाहिए।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
01-06-22

Thursday, April 4, 2024

"अनाथ"

यह कौन लाल है जीर्ण शीर्ण वस्त्रों में,
छिपा हुआ है कौन इन विकृत पत्रों में।
कौन बिखेर रहा है दीन दशा मुख से,
बिता रहा है कौन ऐसा जीवन दुःख से।।1।।

यह अनाथ बालक है छिपा हुआ चिथड़ा में,
आनन लुप्त रखा अपना गहरी पीड़ा में।
अपना मित्र बनाया दारुण दुःख को जिसने,
ठान लिया उसके संग रहना इसने।।2।।

फटे हुए चिथड़ों में लिपटा यह मोती,
लख जग की उपेक्षा आँखें प्रतिदिन रोती।
कर में अवस्थित है टूटी एक कटोरी,
पर हा दैव! वह भी है बिल्कुल कोरी।।3।।

है अनाथ जग में कोई नहीं इसका है,
परम परमेश्वर ही सब कुछ जिसका है।
मात पिता से वंचित ये जग में भटकता,
जग का कोई जन नाता न इससे रखता।।4।।

एक सहारा इसका भिक्षा की थोड़ी आशा,
दया कर दे का स्वर ही है इसकी भाषा।
बड़ा ही कृशकाय है इसका अबल तन,
पर बड़ा गम्भीर है बालक का अंतर्मन।।5।।

लघु ललाम लोचन चंचल ही बड़े हैं,
जग भर की आशा निज में समेटे पड़े हैं।
ओठ शुष्क पड़े हैं भूख प्यास के कारण,
दुःख संसार भर का कर रखे हैं धारण।।6।।

गृह कुटिया से यह सर्वथा है बंचित,
रखता न पास यह धरोहर भी किंचित।
नगर पदमार्ग आवास इसका परम है,
उसी पर यह जीवन के करता करम है।।7।।

हाथ मुँह कर शुद्ध प्रातःकाल में यह,
भिक्षाटन को निकलता सदैव ही वह।
उदर के लिए यह घर घर में भटकता,
भिक्षा मांगता यह ईश का नाम कहता।।8।।

याचना करता यह परम दीन बन के,
टिका हुआ है ये सहारे पे जग जन के।
आनन से इसके महा दीनता टपकती,
रोम रोम से इसके करुणा छिटकती।।9।।

जग में इस अनाथ का कोई नहीं है,
भावना जग जन की स्वार्थ में रही है।
इसका सहारा केवल एक वही ईश्वर,
'नमन' उसे जो पालता यह जग नश्वर।।10।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता।

Friday, March 29, 2024

"डायमांटे कविता"

डायमांटे हीरे के लिए इतालवी शब्द है। यह 16 शब्द लंबी कविता है जिसका आकार हीरे के जैसा होता है। सर्व प्रथम यह कविता 1969 में एक अमेरिकन कवि 'आयरिश मैक्लान टायड' द्वारा प्रकाश में लायी गयी।

इस कविता के 16 शब्द सात पंक्तियों में सजाये जाते हैं। साथ ही शब्दों के भेद भी पूर्व निर्धारित हैं।

प्रथम और सातवीं पंक्ति - 1 शब्द (केवल संज्ञा शब्द)
दूसरी और छठी पंक्ति - 2 शब्द (केवल विशेषण शब्द)
तीसरी और पाँचवी पंक्ति - 3 शब्द (केवल क्रियायें)
चौथी पंक्ति - 4 शब्द (केवल संज्ञा शब्द)

डायमांटे कविता दो प्रकार की होती है।
(1) पर्याय डायमांटे (इसमें सातवीं पंक्ति का शब्द प्रथम पंक्ति के संज्ञा शब्द का पर्यायवाची शब्द होता है।)
(2) विलोम डायमांटे (इसमें सातवीं पंक्ति का शब्द प्रथम पंक्ति के संज्ञा शब्द का विलोम अर्थ देने वाला शब्द होता है।)

यदि कोई रचनाकार इस कविता का शीर्षक देना चाहता है तो वह प्रथम पंक्ति के शब्द को शीर्षक के रूप में भी प्रयोग कर सकता है।

अरुण (पर्याय डायमांटे कविता)

            अरुण
      प्रभापूर्ण, सुखकर
   निकला,  बढा,    फैला
आकाश, दिन, प्रकाश, कोलाहल
   चमकाता, जलाता, सताता
         तेज, ज्वलंत
              सूर्य
******   ******

पद्म (पर्याय डायमांटे कविता)

              पद्म
       कोमल, नीला
   खिला, हँसा, महका
सरोवर, विष्णु, प्रातःकाल, पंखुड़ी
   उपजता, निकलता, फैलता
       सुखद, आभायुक्त
            कमल
******   ******

धूप ( विलोम डायमांटे कविता)

              धूप
      प्रखर, कड़कती
   तपाये, झुलसाये, सताये
पंखा,   सूर्य,   पेड़,    ठण्डक
   सिहराती, लुभाती, कँपाती
      शीतल, सुहावनी
              छाँव
******   ******

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28.03.24


Friday, March 22, 2024

"प्रातः वर्णन"

उदित हुआ प्रभाकर प्रखर प्रताप लेके,
समस्त जग को सन्देश स्फूर्ति का देके।
रक्त वर्ण रम्य रश्मियाँ लेके आया,
प्राची दिशि को अरुणिमा से सजाया।।1।।

पद्म खण्ड सुंदर सरोवरों में उपजे,
तुषार बिंदुओं से प्रसस्त पल्लव सजे।
विहग समूह भी आनन्द में समाया,
मधुर कलरव से दिग दिगन्त गूँजाया।।2।।

हर्ष में खिले हैं विभिन्न पशु पक्षी गण,
क्रियाकलाप में लगा सबका ही जीवन।
हर्षोन्माद छाया चहुँ दिशि ओ गगन में, 
उठी उमंग की लहर जनमानस मन में।।3।।

प्रातः शोभा में जग उद्यान लहराया,
दिशाओं में आलोक आवरण छाया।
घोर अंधकार अभी जहां संसार में था,
नीरवता का शासन पूर्ण प्रसार में था।।4।।

कहाँ छिपा रखा था तिमिर वधु निशा ने,
रखा दूर शोभा को कौनसी दिशा ने।
कहाँ से है आयी सुबह की ये शोभा,
कहाँ छिपी थी यह अरुणिमा मन लोभा।।5।।

जीविका के कारण जाना था जिनको बाहर,
जाने लगे वे सजधज गृह को त्यज कर।
रत हुई गृहणियाँ गृह कार्यों में नाना,
आलस्य त्यज नव स्फूर्ति का पहना बाना।।6।।

जलाशय कूपों पर जन समूह छाया,
स्नान पेय हेतु जल उनको भाया।
गो पालक भी अब अकाज न दिखते,
गो दुहन की तैयारी अब वे करते।।7।।

भगवत आलयों में घण्टा घोष छाया,
वातावरण को आरतियों से गूँजाया।
जीवन्त हो उठे हैं विद्यालयों के प्रांगण,
फैलाते प्रार्थनाओं की छात्र नभ में गूँजन।।8।।

कृषक समुदाय भी कुछ खा पी कर,
चल पड़े खेतों में हल बैल ले कर।
सींच रहे मालीगण वाटिकाओं को,
दाना डाल रहे कुछ कपोत सारिकाओं को।।9।।

खिलने लगे मन्जुल कमल सरोवरों में,
आनन्द तरंग उठने लगी चकोरों में।
सुबह के ही कारण यह हर्षोल्लास छाया,
कार्य सागर में अब जग जा समाया।।10।।

नव जागृति का है यह सुंदर सवेरा,
नाना कार्यों की चाह ने जग जन को घेरा।
'नमन' इसे सब कार्य प्रारम्भ इस में होते,
जो इसमें सोते अपना सर्वस्व खोते।।11।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
(1970 की लिखी कविता)

Saturday, March 9, 2024

दोहे "शिव वंदन"

दोहा छंद

सोम बिराजे शीश पे, प्रभु गौरा के कंत।
राज करे कैलाश पर, महिमा दिव्य अनंत।।

काशी के प्रभु छत्र हैं, औघड़ दानी आप।
कष्ट निवारण कर सकल, हरिये कलिमय पाप।।

काशी पावन धाम में, जो जन‌ त्यागें प्राण।
सद्गति पाते जीव वे, होता भव से त्राण।।

त्रिपुरारी सब कष्ट को, दूर करो प्रभु आप।
कृपा-दृष्टि जिस पर पड़े, मिटते भव संताप।।

जो जग का हित साधने, करे गरल का पान।
शिव समान इस विश्व में, उसका होता मान।।

चमके मस्तक चन्द्रमा, सजे कण्ठ पर सर्प।
नन्दीश्वर तुमको 'नमन', दूर करो सब दर्प।

विश्वनाथ को कर 'नमन', दोहे रचे अनूप।
हे प्रभु वन्दन आपको, भर दीज्यो रस रूप।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
30-04-19

Thursday, March 7, 2024

ग़ज़ल (जाने की जिद है)

बह्र:- 221 2121 1221 212

जाने की जिद है या है दिखावा कहें जिसे,
छेड़ा नया क्या अब ये शगूफ़ा कहें जिसे।

घर में लगेगी आग उठेगा धुँआ सनम,
देखेंगे सारे लोग तमाशा कहें जिसे।

महबूब मान जाओ भी कुछ तो बता सबब,
हालत हमारी देख लो खस्ता कहें जिसे।

रूठा है यार दिखती न सूरत मनाने की,
कोई न दे रहा है दिलासा कहें जिसे।

रो लेंगे हम सकून से गर छोड़ जाए वो,
मरहूम कब से लज्जत-ए-गिरिया कहें जिसे।

यादों में उसकी भटकेंगें हम क़ैस की तरह,
उठ जाए चाहे क्यों न जनाज़ा कहें जिसे।

खुदगर्ज़ और लोगों सा बनना नहीं 'नमन',
हरक़त न करना लोग कि बेजा कहें जिसे।

शगूफा = झगड़े की जड़ वाली बात
लज्जत-ए-गिरिया = रोने का स्वाद
क़ैस = मजनूँ

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया 
20-09-18

Saturday, March 2, 2024

"दो राही"

एक पथिक था चला जा रहा अपने पथ पर
मोह माया को त्याग बढ़ रहा जीवन रथ पर।
जग के बन्धन तोड़ छोड़ आशा का आँचल
पथ पर हुवा अग्रसर लिये अपना मन चंचल।1।

जग की नश्वरता लख उसे वैराग्य हुवा था
क्षणभंगुर इस जीवन पर उसे नैराश्य हुवा था।
जग की दाहक ज्वाला से मन झुलस उठा था
नितप्रति बढ़ती तृष्णा से मन भर चुका था।2।

इस नश्वर जग के प्रति घृणा के अंकुर उपजे
ज्ञान मार्ग अपनाने के मन में भाव सजे।
विचलित हुवा जग से लख जग की स्वार्थपरता
अर्थी जग की ना देख सका वह धनसंचयता।3।

लख इन कृत्रिम कर्मों को छोड़ चला जग को
लगा विचारने मार्ग शांति देने का मन को।
परम शांति का एक मार्ग उसने वैराग्य विचारा
आत्मज्ञान का अन्वेषण जीवन का एक सहारा।4।

एक और भी राही इस जग में देह धरा था
मोह माया का संकल्प उसके जीवन में भरा था।
वृत्ती उसने अपनायी केवल स्वार्थ से पूरित
लख इस वृत्ती को वह अधम हो रहा मोहित।5।

पथ पर हुवा अग्रसर वह पाप लोभ मद के
तट पर था वह विचरता दम्भ क्षोभ नद के।
स्वार्थ दुकूल लपेटे कपटी राहों में भटकता
तृष्णा के झरने में नित वो अपनी प्यास बुझाता।6।

धन संचय ही बनाया एकमात्र जीवन का कर्म
अन्यों का शोषण करना था उसका पावन धर्म।
अपने से अबलों पर जुल्म अनेकों ढ़ाह्ता
अन्यों की आहों पर निज गेह बनाना चाहता।7।

इन दोनो पथिकों में अंतर बहुत बड़ा है
एक चाहता मुक्ति एक बन्धन में पड़ा है।
त्यज जग पहले राही ने मोक्ष मार्ग अपनाया
अपना मोह माया दूजेने जग में रुदन मचाया।8।

इस नश्वर जग में धन्यवान पहले जन
वृत्ती सुधा सम अपना करते अमर वो जीवन।
ज्ञान रश्मि से वे जग में आलोक फैलाते
जग मन उपवन में सुधा वारि बरसाते।9।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-05-1971

Saturday, February 24, 2024

भजन (कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ)

कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ।
थर थर काँपत विनवत गोपिन यमुना जल बिच ठाडी गल तउ।।

सुन बोले मृदु हाँसी धर के बैठे शाख कदम्ब कन्हाई।
एक एक कर या फिर सँग में तोकु पड़ेगा बाहर आई।
बन कर भोले कान्ह कहे ये बाहर आ वस्त्रन ले जाहउ।
कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ।।

परम ब्रह्म का रूप तिहारा भला बुरा जो सारा जानें।
तुम्हीं बताओ अब हे ज्ञानी अनुचित कहना कैसन मानें।
चीर देय दउ सो घर जाएँ देर भई तो डाँटिन पड़हउ।
कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ।।

नग्न होय शुचि यमुना पैठो बात ज्ञान की हमें सिखावत।
शुद्धि मिलन की तभी भएगी तन मन से जो हो प्रायश्चत।
'बासु' कहे शुचि मन बाहर आ ब्रह्म प्रकृति का भेद मिटाहउ।
कान्हा वस्त्र हमारे दे दउ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-12-2018

Tuesday, February 13, 2024

"कहाँ से कहाँ"

मानव तुम कहाँ थे कहाँ पहुँच चुके हो।
ज्ञान-ज्योति से जग आलोकित कर सके हो।
वानरों की भाँति तुम वृक्षों पे बसते थे।
जंगलों में रह कर निर्भय हो रमते थे।।1।।

सभ्यता की ज्योति से दूर थे भटकते।
ज्ञान की निधि से तुम दूर थे विचरते।
कौन है पराया और कौन तेरा अपना।
नहीं समझ पाते थे प्रकृति की रचना।।2।।

परुष पाषाण ही थे अस्त्र शस्त्र तेरे।
जीविका के हेतु लगते थे कितने फेरे।
तेरे थे परम पट पत्र और छालें।
वन-सम्पदा पर तुम देह को थे पाले।।3।।

बिता रहा था पशुवत बन में तु जीवन।
दूर भागता था देख अपने ही स्वजन।
मोह का न नाता वियोग का न दुख था।
धन की न तृष्णा समाज का न सुख था।।4।।

पर भिन्न पशु से हुआ तेरा तुच्छ जीवन।
मन-उपवन में जब खिला ज्ञान का सुमन।
आगे था प्रसस्त तेरे प्रगति का विशाल अम्बर।
चमक उठा उसमें तेरा ज्ञान का दिवाकर।।5।।

त्याग अंध जीवन आ गये तुम प्रकाश में।
लगी गूंजने सभ्यता तेरी हर श्वास में।
लगा बाँधने विश्व ज्ञान के तुम गुण में।
छाने लगी प्रेम शांति अब तुम्हारे गुण में।।6।।

होने लगा लघु जग फैलाने लगा पाँव अपने।
लगा साकार करने भविष्य के समस्त सपने।
रचकर के अनेक यन्त्र जीवन सुलभ बनाया।
मानवी-विकास नई ऊँचाइयों पे पहुँचाया।।7।।

आने लगा इन सब से विलास तेरे जीवन में।
ऊँच नीच के भाव आने लगे तेरे मन में।
भूल गये तुम मिलजुल के साथ चलना।
चाहने लगे तुम अन्यों के श्रम पे पलना।।8।।

कहलाते हो सभ्य यद्यपि इस युग में।
मुदित हो रहे हो इस नश्वर सुख में।
उच्च बन रहे हो अभिमान के तुम रंग में।
मस्त हो रहे घोर स्वार्थ की तरंग में।।9।।

उत्थान और पतन जग का अमिट नियम है।
जीवन और मरण का भी अटल नियम है।
आज उन्नति के शिखर पर पहुँच चुके हो।
अब पतनोन्मुख होने के लिये रुके हो।।10।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1970 की लिखी कविता