Sunday, November 10, 2019

रसना छंद "पथिक आह्वाहन"

डगर कहे चीख, जरा ठहर पथिक सुनो।
कठिन सभी मार्ग, सदैव कर मनन चुनो।
जगत भरा कंट, परन्तु तुम सँभल चलो।
तमस भरी रात, प्रदीप बन स्वयम जलो।।

दुखमय संसार, अभाव अधिकतर सहे।
सुखमय तो मात्र, कुछेक सबल जन रहे।।
रह उनके साथ, विनष्ट यह जग जिनका।
कुछ करके काज, बसा घर नवल उनका।।

तुम कर के पान, समस्त दुख विपद बढ़ो।
गिरि सम ये राह, बना सरल सुगम चढ़ो।।
तुम रख सौहार्द्र, सुकार्य अबल-हित करो।
इस जग में धीर, सुवीर बन कर उभरो।।

विकृत हुआ देश, हवा बहत अब पछुआ।
सब चकनाचूर, यहाँ ऋषि-अभिमत हुआ।।
तुम बन आदर्श, कदाचरण सकल हरो।
यह फिर से देश, समृद्ध पथिक तुम करो।।
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लक्षण छंद:-

"नयसननालाग", रखें सत अरु दश यतिं।
मधु 'रसना' छंद, रचें  ललित मृदुल गतिं।

"नयसननालाग" = नगण यगण सगण नगण नगण लघु गुरु।

( 111  122  1,12  111  111  12 )
17वर्ण, यति{7-10} वर्णों पर,4 चरण
दो-दो चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-01-19

रमेश छंद "नन्ही गौरैया"

फुदक रही हो तरुवर डाल।
सुन चिड़िया दे कह निज हाल।।
उड़ उड़ छानो हर घर रोज।
तुम करती क्या नित नव खोज।।

चितकबरी रंगत लघु काय।
गगन परी सी हृदय लुभाय।।
दरखत पे तो कबहु मुँडेर।
फुर फुर जाती करत न देर।।

मधुर सुना के तुम सब गीत।
वश कर लेती हर घर जीत।।
छत पर दाना जल रख लोग।
कर इसका ले रस उपभोग।।

चहक बजाती मधुरिम साज।
इस चिड़िया का सब पर राज।।
नटखट नन्ही मन बहलाय।
अब इसको ले जगत बचाय।।
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लक्षण छंद:-

"नयनज" का दे गण परिवेश।
रचहु सुछंदा मृदुल 'रमेश'।।

"नयनज" = [ नगण यगण नगण जगण]
( 111  122  111  121 )
12 वर्ण, 4 चरण, दो-दो चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-01-19

सोरठा "कृष्ण महिमा"

नयन भरा है नीर, चखन श्याम के रूप को।
मन में नहिं है धीर, नयन विकल प्रभु दरस को।।

शरण तुम्हारी आज, आया हूँ घनश्याम मैं।
सभी बनाओ काज, तुम दीनन के नाथ हो।।

मन में नित ये आस, वृन्दावन में जा बसूँ।
रहूँ सदा मैं पास, फागुन में घनश्याम के।।

फूलों का श्रृंगार, माथे सजा गुलाल है।
तन मन जाऊँ वार, वृन्दावन के नाथ पर।।

पड़त नहीं है चैन, टपक रहे दृग बिंदु ये।
दिन कटते नहिं रैन, श्याम तुम्हारे दरस बिन।।

हे यसुमति के लाल, मन मोहन उर में बसो।
नित्य नवाऊँ भाल, भव बन्धन सारे हरो।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-04-19

सोरठा छंद 'विधान'

सोरठा छंद

दोहा छंद की तरह सोरठा छंद भी अर्ध सम मात्रिक छंद है। इसमें भी चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीय चरण विषम तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण सम कहे जाते हैं। सोरठा में दोहा की तरह दो पंक्तियाँ होती हैं और प्रत्येक पंक्ति में २४ मात्राएँ होती हैं। सोरठा छंद और दोहा छंद के विधान में कोई अंतर नहीं है केवल चरण पलट जाते हैं। दोहा के सम चरण सोरठा में विषम बन जाते हैं और दोहा के विषम चरण सोरठा के सम। तुकांतता भी वही रहती है। यानी सोरठा छंद में विषम चरण में तुकांतता निभाई जाती है जबकि पंक्ति के अंत के सम चरण अतुकांत रहते हैं।

दोहा छंद और सोरठा छंद में मुख्य अंतर गति तथा यति में है। दोहा में 13-11 पर यति होती है जबकि सोरठा छंद में 11 - 13 पर यति होती है। यति में अंतर के कारण गति में भी भिन्नता रहती है।

मात्रा बाँट प्रति पंक्ति
8+2+1, 8+2+1+2

परहित कर विषपान, महादेव जग के बने।
सुर नर मुनि गा गान, चरण वंदना नित करें।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

Tuesday, November 5, 2019

ग़ज़ल (दुनिया है अलबेली)

बहरे मीर:- 2*6

दुनिया है अलबेली,
ये अनबूझ पहेली।

कड़वा जगत-करेला,
रस लो तो गुड़-भेली।

गले लगा या ठुकरा,
पर मत कर अठखेली।

किस्मत भोज बनाये,
या फिर गंगू तेली।

नेता आज छछूंदर,
सर पे मले चमेली।

आराजक बन छाये,
सत्ता जिनकी चेली।

'नमन' उठा सर जीओ,
दुनिया बना सहेली।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
31-08-19

ग़ज़ल (छेड़ाछाड़ी कर जब कोई)

बह्र:- 2222 2222 2222 222

छेड़ाछाड़ी कर जब कोई सोया शेर जगाए तो,
वह कैसे खामोश रहे जब दुश्मन आँख दिखाए तो।

चोट सदा उल्फ़त में खायी अब तो ये अंदेशा है,
उसने दिल में कभी न भरने वाले जख्म लगाए तो।

जनता ये आखिर कब तक चुप बैठेगी मज़बूरी में,
रोज हुक़ूमत झूठे वादों से इसको बहलाए तो।

अच्छे और बुरे दिन के बारे में सोचें, वक़्त कहाँ,
दिन भर की मिहनत भी जब दो रोटी तक न जुटाए तो।

उसके हुस्न की आग में जलते दिल को चैन की साँस मिले,
होश को खो के जोश में जब भी वह आगोश में आए तो।

हाय मुहब्बत की मजबूरी जोर नहीं इसके आगे, 
रूठ रूठ कोई जब हमसे बातें सब मनवाए तो।

दुनिया के नक्शे पर लाये जिसको जिस्म तोड़ अपना,
टीस 'नमन' दिल में उठती जब खंजर वही चुभाए तो।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-10-17

ग़ज़ल (इंसान के खूँ की नहीं)

ग़ज़ल (इंसान के खूँ की नहीं)

बह्र:- 2212*4

इंसान के खूँ की नहीं प्यासी कभी इंसानियत,
पर खून बहता ही रहा, रोती रही इंसानियत।

चोले में हर इंसान के रहती छिपी इंसानियत।
पर चूर मद में नर भुला देते यही इंसानियत।

आतंक का ले कर सहारा जी रहें वे सोच लें,
लाचार दहशतगर्दी से हो कब डरी इंसानियत।

जो बन के जालिम जुल्म अबलों पर करें खूँखार बन,
वे लोग जिंदा दिख रहे पर मर गई इंसानियत।

बौछार करते गोलियों की भीड़ पर आतंकी जब,
उस भीड़ की दहशत में तब सिसकारती इंसानियत।

जग को मिटाने की कोई जितनी भी करलें कोशिशें,
दुनिया चलेगी यूँ ही जबतक है बची इंसानियत।

थक जाओगे आतंकियों तुम जुल्म कर कहता 'नमन',
आतंक के आगे न झुकना जानती इंसानियत।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-08-16

ग़ज़ल (हिन्दी हमारी जान है)

बह्र:- 2212   2212

हिन्दी  हमारी जान है,
ये देश की पहचान है।

है मात जिसकी संस्कृत,
माँ  शारदा का दान है।

साखी  कबीरा की यही,
केशव की न्यारी शान है।

तुलसी की रग रग में बसी,
रसखान की ये तान है।

ये सूर  के  वात्सल्य में,
मीरा का इसमें गान है।

सब छंद, रस, उपमा की ये
हिन्दी हमारी खान है।

उपयोग  में  लायें इसे,
अमृत का ये तो पान है।

ये  मातृभाषा विश्व में,
सच्चा हमारा मान है।

इसको करें हम नित 'नमन',
भारत की हिन्दी आन है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-09-2016

Friday, October 25, 2019

रमणीयक छंद "कृष्ण महिमा"

मोर पंख सर पे, कर में मधु बाँसुरी।
पीत वस्त्र, कटि में कछनी अति माधुरी।।
ग्वाल बाल सँग धेनु चरावत मोहना।
कौन नित्य नहिं चाहत ये छवि जोहना।।

दिव्य रूप मनमोहन का नर चाख ले।
नाम-जाप रस को मन में तुम राख ले।।
कृष्ण श्याम मुरलीधर मोहन साँवरा।
एक नाम कछु भी जपले मन बावरा।।

मैं गँवार मति पाप-लिप्त अति दीन हूँ।
भोग और धन-संचय में बस लीन हूँ।।
धर्म आचरण का प्रभु मैं नहिं विज्ञ हूँ।
भाव भक्ति अरु अर्चन से अनभिज्ञ हूँ।।

मैं दरिद्र शरणागत हो प्रभु आ गया।
हाथ थाम कर हे ब्रजनाथ करो दया।।
भीर कोउ पड़ती तुम्हरा तब आसरा।
कष्टपूर्ण भव-ताप हरो इस दास रा।।
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लक्षण छंद:-

वर्ण राख कर पंच दशं "रनभाभरा"।
छंद राच 'रमणीयक' हो मन बावरा।।

"रनभाभरा" = रगण नगण भगण भगण रगण
212 111 211 211 212 =15 वर्ण
चार चरण, दो दो या चारों समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

13-07-17

रथपद छंद "मधुर स्मृति"

जब तुम प्रियतम में खोती।
हलचल तब मन में होती।।
तुम अतिसय दुख की मारी।
विरह अगन सहती सारी।।

बरसत अँसुवन की धारा।
तन दहकत बन अंगारा।।
मरम रहित जग से हारी ।
गुजर करत सह लाचारी।।

निश-दिन तब कितने प्यारे।
जब पिय प्रणय-सुधा डारे।।
तन मन हरषित था भारी।
सरस प्रकृति नित थी न्यारी।।

मधुरिम स्मृति गठरी ढ़ोती।
स्मर स्मर कर उनको रोती।।
लहु कटु अनुभव का पीती।
बस दुख सह कर ही जीती।।
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लक्षण छंद:-

"ननुसगग" वरण की छंदा।
'रथपद' रचत सभी बंदा।।

"ननुसगग" =  नगण नगण सगण गुरु गुरु

( 111  111  112   2   2 )
11वर्ण,4 चरण, दो-दो चरण समतुकांत
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-01-19

गीता महिमा (कुण्डलिया)

गीता अद्भुत ग्रन्थ है, काटे भव की दाह।
ज्ञान अकूत भरा यहाँ, जिसकी कोइ न थाह।
जिसकी कोइ न थाह, लगाओ जितना गोता।
कटे पाप की पाश, गात मन निर्मल होता।
कहे 'बासु' समझाय, ग्रन्थ यह परम पुनीता।
सब ग्रन्थों का सार, पढें सारे नित गीता।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-12-18

Wednesday, October 23, 2019

गीत (छठ मैया)

चरणन में छठ माँ के,
कोसिया भरावण के,
दऊरा उठाई चले,
सब नर नार हो।

गंगा के घाट लगी,
भीड़ भगतन की,
देखो छठ मइया की,
महिमा अपार हो।

माथे पे सब चले दऊरा उठाई,
बबुआ, देवर, कहीं भतीजा, भाई,
सुहानी नार सजी,
बिहाने बिहाने चली,
पग में महावर लगी,
सँग भरतार हो।

जल में खड़े हो अर्घ देवन को,
उगते सूरज की पूजा करन को,
सब दिवले जलाये,
फल, पुष्पन चढाये,
माला अर्पण करे,
करो स्वीकार हो।

छठ माई पूर्ण करो इच्छाएँ सारी,
तेरी तो महिमा जग में है भारी,
अन-धन भंडार भरो,
सब को निरोग रखो,
चाही सन्तान देवो,
सुखी संसार हो।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-11-2018

नवगीत (मन-भ्रमर)

मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
पगले डोल।

जिन कलियों को नित चूमे,
जिन पर तुम गुंजार करे,
क्यों मग्न हुआ इतना झूमे,
निश्चित उनका मकरंद झरे,
लो ठीक से तोल।
  मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
  पगले डोल।

क्षणिक मधु के पीछे भागे,
नश्वर सुख में है तु रमा,
कैसे तेरे भाग हैं जागे,
जो इनमें तु रहा समा,
मन की गाँठें खोल।
  मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
  पगले डोल।

नव रस के जहाँ पुष्प खिले,
शांत, करुण तो और श्रृंगार,
वात्सल्य कभी तो भक्ति मिले,
तो वीर, हास्य की है फुहार,
जीवन में इनको घोल।
  मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
  पगले डोल।

छंदों के रंग बिरंगे हैं दल,
रस अनेक भाव के यहाँ भरे,
जीवन यहाँ का निश्छल,
अलंकार सब सन्ताप हरे,
ना इनका कोई मोल।
  मन-भ्रमर काव्य-उपवन में
  पगले डोल।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-08-2016

Sunday, October 20, 2019

कुण्डला मौक्तिका (बेटी)

(पदांत 'बेटी', समांत 'अर')

बेटी शोभा गेह की, मात पिता की शान,
घर की है ये आन, जोड़ती दो घर बेटी।।
संतानों को लाड दे, देत सजन को प्यार,
रस की करे फुहार, नेह दे जी भर बेटी।।

रिश्ते नाते जोड़ती, मधुर सभी से बोले,
रखती घर की एकता, घर के भेद न खोले।
ममता की मूरत बड़ी, करुणा की है धार,
घर का सामे भार, काँध पर लेकर बेटी।।

परिचर्या की बात हो, नारी मारे बाजी,
सेवा करती धैर्य से, रोगी राखे राजी।
आलस सारा त्याग के, करती सारे काम,
रखती अपना नाम, सभी से ऊपर बेटी।।

लगे अस्मिता दाव पे, प्रश्न शील का आए,
बड़ी जागरुक नार है, खल कामी न सुहाए।
लाख प्रलोभन सामने, इज्जत की हो बात,
नहीं छून दे गात, मारती ठोकर बेटी।।

चले नहीं नारी बिना, घर गृहस्थ की गाडी,
पूर्ण काज सम्भालती, नारी सब की लाडी।
हक देवें, सम्मान दें, उसकी लेवें राय,
दिल को लो समझाय, नहीं है नौकर बेटी।।

जिस हक की अधिकारिणी, कभी नहीं वह पाई,
नर नारी के भेद की, पाट सकी नहिं खाई।
पीछा नहीं छुड़ाइए, देकर चुल्हा मात्र,
सदा 'नमन' की पात्र, रही जग की हर बेटी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-10-2016

Friday, October 18, 2019

दुर्मिल सवैया (सरस्वती वंदना)

(8सगण)

शुभ पुस्तक हस्त सदा सजती, पदमासन श्वेत बिराजत है।
मुख मण्डल तेज सुशोभित है, वर वीण सदा कर साजत है।
नर-नार बसन्तिय पंचम को, सब शारद पूजत ध्यावत है।
तुम हंस सुशोभित हो कर माँ, प्रगटो वर सेवक माँगत है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
01-02-2017