Tuesday, November 5, 2019

ग़ज़ल (इंसान के खूँ की नहीं)

ग़ज़ल (इंसान के खूँ की नहीं)

बह्र:- 2212*4

इंसान के खूँ की नहीं प्यासी कभी इंसानियत,
पर खून बहता ही रहा, रोती रही इंसानियत।

चोले में हर इंसान के रहती छिपी इंसानियत।
पर चूर मद में नर भुला देते यही इंसानियत।

आतंक का ले कर सहारा जी रहें वे सोच लें,
लाचार दहशतगर्दी से हो कब डरी इंसानियत।

जो बन के जालिम जुल्म अबलों पर करें खूँखार बन,
वे लोग जिंदा दिख रहे पर मर गई इंसानियत।

बौछार करते गोलियों की भीड़ पर आतंकी जब,
उस भीड़ की दहशत में तब सिसकारती इंसानियत।

जग को मिटाने की कोई जितनी भी करलें कोशिशें,
दुनिया चलेगी यूँ ही जबतक है बची इंसानियत।

थक जाओगे आतंकियों तुम जुल्म कर कहता 'नमन',
आतंक के आगे न झुकना जानती इंसानियत।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-08-16

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