Wednesday, June 1, 2022

एकावली छंद (मनमीत)

किसी से, दिल लगा।
रह गया, मैं ठगा।।
हृदय में, खिल गयी।
कोंपली, इक नयी।।

मिला जब, मनमीत।
जगी है, यह प्रीत।।
आ गया, बदलाव।
उत्तंग, है चाव।।

मोम से, पिघलते।
भाव सब, मचलते।।
कुलांचे, भर रहे।
अनकही, सब कहे।।

रात भी, चुलबुली।
पलक हैं, अधखुली।।
प्रणय-तरु, हों हरे।
बाँह में, नभ भरे।।

खोलता, खिड़कियाँ।
दिखें नव, झलकियाँ।।
झिलमिली, रश्मियाँ।
उड़ें ज्यों, तितलियाँ।।

हृदय में, समा जा।
गले से, लगा जा।।
मीत जब, पास तू।
'नमन' की, आस तू।।
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एकावली छंद विधान -

एकावली छंद 10 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है जिसमें पाँच पाँच मात्राओं के दो यति खण्ड रहते हैं। यह दैशिक जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 10 मात्राओं का विन्यास दो पंचकल (5, 5) हैं। पंचकल की निम्न संभावनाएँ हैं :-

122
212
221
(2 को 11 में तोड़ सकते हैं।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
26-05-22

Saturday, May 28, 2022

मजदूरी कर पेट भराँ हाँ

(राजस्थानी गीत)

जीवन री घाणी मं पिस पिस, 
दोरा दिन स्यूँ म्हे उबराँ हाँ।
मजदूरी कर पेट भराँ हाँ।।

मँहगाई सुरसा सी डाकण,
गिटगी घर का गाबा कासण।
पेट पालणो दोरो भारी,
बिना मौत रे रोज मराँ हाँ।

पो फाटै जद घर स्यूँ जाणो,
ताराँ री छाँ पाछो आणो।
सूरज घर मं कदै न दीसै,
इसी मजूरी रोज कराँ हाँ।

आलीशान महल चिण दैवाँ,
झोंपड़ पट्ट्याँ मं खुद रैवाँ।
तपती लू, अंधड़, बिरखा सह,
म्हारी दुनिया मं इतराँ हाँ।

ठेकेदाराँ की ठकुराई,
बणियाँ री सह कर चतुराई।
सरकाराँ का बण बण मुहरा,
म्हे मजदूर सदा निखराँ हाँ।
मजदूरी कर पेट भराँ हाँ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03-05-22

Friday, May 20, 2022

अनुष्टुप छंद (गुरु पंचश्लोकी)


सद्गुरु-महिमा न्यारी, जग का भेद खोल दे।
वाणी है इतनी प्यारी, कानों में रस घोल दे।।

गुरु से प्राप्त की शिक्षा, संशय दूर भागते।
पाये जो गुरु से दीक्षा, उसके भाग्य जागते।।

गुरु-चरण को धोके, करो रोज उपासना।
ध्यान में उनके खोकेेे, त्यागो समस्त वासना।।

गुरु-द्रोही नहीं होना, गुरु आज्ञा न टालना।
गुरु-विश्वास का खोना, जग-सन्ताप पालना।।

गुरु के गुण जो गाएं, मधुर वंदना करें।
आशीर्वाद सदा पाएं, भवसागर से तरें।।
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अनुष्टुप छंद विधान -

यह छंद अर्द्ध समवृत्त है । यह द्विपदी छंद है जिसके पद में दो चरण होते हैं। इस के प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं । पहले चार वर्ण किसी भी मात्रा के हो सकते हैं । पाँचवाँ लघु और छठा वर्ण सदैव गुरु होता है । सम चरणों में सातवाँ वर्ण लघु और विषम चरणों में गुरु होता है। आठवाँ वर्ण संस्कृत में तो लघु या गुरु कुछ भी हो सकता है। संस्कृत में छंद के चरण का अंतिम वर्ण लघु होते हुये भी दीर्घ उच्चरित होता है जबकि हिन्दी में यह सुविधा नहीं है। अतः हिन्दी में आठवाँ वर्ण सदैव दीर्घ ही होता है।

(1) × × × × । ऽ ऽ ऽ, (2) × × × × । ऽ । ऽ
(3) × × × × । ऽ ऽ ऽ, (4) × × × × । ऽ । ऽ

उपरोक्त वर्ण विन्यास के अनुसार चार चरणों का एक छंद होता है। सम चरण (2, 4) समतुकांत होने चाहिए। रोचकता बढाने के लिए चाहें तो विषम चरण (1, 3) भी समतुकांत कर सकते हैं पर आवश्यक नहीं।

गुरु की गरिमा भारी, उसे नहीं बिगाड़ना।
हरती विपदा सारी, हितकारी प्रताड़ना।।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
22-07-2016

Tuesday, May 17, 2022

छंदा सागर (मङ्गलाचरण)

 "छंदा सागर" ग्रन्थ

(मङ्गलाचरण)

वीणा की माँ वादिनी, वाहन हंस विहार।
विद्या दे वागीश्वरी, वारण करो विकार।।

ब्रह्म लोक वासिनी।
दिव्य आभ भासिनी।।
वेद वीण धारिणी।
हंस पे विहारिणी।।

शुभ्र वस्त्र आवृता।
पद्म पे विराजिता।।
दीप्त माँ सरस्वती।
नित्य तू प्रभावती।।

छंद ताल हीन मैं।
भ्रांति के अधीन मैं।।
मन्द बुद्धि को हरो।
काव्य की प्रभा भरो।।

छंद-बद्ध साधना।
काव्य की उपासना।
मैं सदैव ही करूँ।
भाव से इसे भरूँ।।

मात ये विचार हो।
देश का सुधार हो।।
ज्ञान का प्रसार हो।
नष्ट अंधकार हो।।

शारदे दया करो।
ज्ञान से मुझे भरो।।
काव्य-शक्ति दे मुझे।
दिव्य भक्ति दे मुझे।।

यह रक्ता छंद की स्तुति प्रस्तुत करते हुए हिंदी के छंद शास्त्र का दिग्दर्शन कराने वाले "छंदा सागर" ग्रन्थ को विद्या बुद्धि प्रदायनी माँ सरस्वती के श्री चरणों में  आशीर्वाद की प्रार्थना के साथ अर्पित कर रहा हूँ।
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भालचन्द्र लम्बोदरा, धूम्रकेतु गजकर्णक।
एकदंत गज-मुख कपिल, गणपति विकट विनायक।।
विघ्न-नाश अरु सुमुख ये, जपे नाम जो द्वादश।
रिद्धि सिद्धि शुभ लाभ से, पाये नर मंगल यश।।

मुक्तामणि में विघ्ननाशक गणपति के द्वादश नामों को स्तुति रूप में प्रस्तुत करते हुए "छंदा सागर" ग्रन्थ के निर्विघ्न पूर्ण होने की तथा ग्रन्थ से प्रबुद्ध पाठकों का चित्त रंजन करने की मंगलकामना करता हूँ।
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सद्गुरु-महिमा न्यारी, जग का भेद खोल दे।
वाणी है इतनी प्यारी, कानों में रस घोल दे।।

गुरु से प्राप्त की शिक्षा, संशय दूर भागते।
पाये जो गुरु से दीक्षा, उसके भाग्य जागते।।

गुरु-चरण को धोके, करो रोज उपासना।
ध्यान में उनके खोकेेे, त्यागो समस्त वासना।।

गुरु-द्रोही नहीं होना, गुरु आज्ञा न टालना।
गुरु-विश्वास का खोना, जग-सन्ताप पालना।।

गुरु के गुण जो गाएँ, मधुर वंदना करें।
आशीर्वाद सदा पाएँ, भवसागर से तरें।।

अनुष्टुप छंद में यह गुरु पंच श्लोकी उन समस्त गुरुजनों को अर्पित है जिनसे मुझे आजतक किसी भी रूप में ज्ञान प्राप्त हुआ।
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बना शारदे वास, मन मन्दिर में पैठ कर। 
विनती करता दास, 'बासुदेव' कर जोड़ कर।।

कृष्ण भाव की रास, थामें मन-रथ बैठ कर।
'बासुदेव' की आस, पूर्ण करें बसुदेव-सुत।। 

व्यास देव दें दृष्टि, कार्य करूँ कल्याणकर। 
करें भाव की वृष्टि, ग्रन्थ बने ये शोक हर।।

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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

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Wednesday, May 11, 2022

सुगम्य गीता "अवतरणिका"

 सुगम्य गीता
"अवतरणिका"

कृष्ण भाव की रास, थामें मन-रथ बैठ कर।
'बासुदेव' की आस, पूर्ण करें बसुदेव-सुत।।

व्यास देव दें दृष्टि, काव्य रचूँ कल्याणकर।
करें भाव की वृष्टि, ग्रन्थ बने ये शोक हर।।

बना शारदे वास, मन मन्दिर में पैठ कर।
विनती करता दास, 'बासुदेव' कर जोड़ कर।।

 "शारदा वंदना"

कलुष हृदय में वास बना माँ,
श्वेत पद्म सा निर्मल कर दो ।
शुभ्र ज्योत्स्ना छिटका उसमें,
अपने जैसा उज्ज्वल कर दो ।।

शुभ्र रूपिणी शुभ्र भाव से,
मेरा हृदय पटल माँ भर दो ।
वीण-वादिनी स्वर लहरी से,
मेरा कण्ठ स्वरिल माँ कर दो ।।

मन उपवन में हे माँ मेरे,
कविता पुष्प प्रस्फुटित होंवे ।
मन में मेरे नव भावों के,
अंकुर सदा अंकुरित होंवे ।।

माँ जनहित की पावन सौरभ,
मेरे काव्य कुसुम में भर दो ।
करूँ काव्य रचना से जग-हित,
'नमन' शारदे ऐसा वर दो ।।

रचयिता:-
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया


Tuesday, May 10, 2022

मंदाक्रान्ता छंद

     मंदाक्रान्ता छंद "लक्ष्मी स्तुति"


लक्ष्मी माता, जगत जननी, शुभ्र रूपा शुभांगी।
विष्णो भार्या, कमल नयनी, आप हो कोमलांगी।।
देवी दिव्या, जलधि प्रगटी, द्रव्य ऐश्वर्य दाता।
देवों को भी, कनक धन की, दायिनी आप माता।।

नीलाभा से, युत कमल को, हस्त में धारती हैं।
हाथों में ले, कनक घट को, सृष्टि संवारती हैं।।
चारों हाथी, दिग पति महा, आपको सींचते हैं।
सारे देवा, विनय करते, मात को सेवते हैं।।

दीपों की ये, जगमग जली, ज्योत से पूजता हूँ।
भावों से ये, स्तवन करता, मात मैं धूजता हूँ।।
रंगोली से, घर दर सजा, बाट जोहूँ तिहारी।
आओ माते, शुभ फल प्रदा, नित्य आह्लादकारी।।

आया हूँ मैं, तव शरण में, भक्ति का भाव दे दो।
मेरे सारे, दुख दरिद की, मात प्राचीर भेदो।।
मैं आकांक्षी, चरण-रज का, 'बासु' तेरा पुजारी।
खाली झोली, बस कुछ भरो, चाहता ये भिखारी।।
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मंदाक्रान्ता छंद विधान -

"माभानाता,तगग" रच के, चार छै सात तोड़ें।
'मंदाक्रान्ता', चतुष पद की, छंद यूँ आप जोड़ें।।

"माभानाता, तगग" = मगण, भगण, नगण, तगण, तगण, गुरु गुरु (कुल 17 वर्ण की वर्णिक छंद।)
222   2,11   111  2,21   221   22  
चार छै सात तोड़ें = चार वर्ण,छ वर्ण और सात वर्ण पर यति।

(संस्कृत का प्रसिद्ध छंद जिसमें मेघदूतम् लिखा गया है।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
30-10-2016

Saturday, May 7, 2022

शब्द शिल्पी साझा अंक

लावणी छंद "सरहदी मधुशाला"

मौक्तिका "बेटी"


"ओपेन बुक्स आनलाइन" के साझा अंक 'शब्द शिल्पी' में प्रकाशित मेरी दो रचनाएँ।


डाउन लोड लिंक:-

https://drive.google.com/file/d/1D1nRQWmbstx2PfgwqtWGpEdhn1C39Qgs/view?usp=drivesdk

बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया

Wednesday, May 4, 2022

दोहा छंद

 दोहा छंद "मजदूर"


श्रम सीकर की वृष्टि से, सरसाते निर्माण।
इन मजदूरों का सभी, गुण का करें बखाण।।

हर उत्पादन का जनक, बेचारा मजदूर।
पर बेटी के बाप सा, खुद कितना मजबूर।।

छत देने हर शीश पर, जूझ रहा मजदूर।
बेछत पर वो खुद रहे, हो कर के मजबूर।।

चैन नहीं मजदूर को, मौसम का जो रूप।
आँधी हो तूफान हो, चाहे पड़ती धूप।।

बहा स्वेद को रात दिन, श्रमिक करे श्रम घोर।
तमस भरी उसकी निशा, लख न सके पर भोर।।

मजदूरों से ही बने, उन्नति का परिवेश।
नवनिर्माणों से खिले, नभ को छूता देश।।

नये कारखानें खुलें, प्रगति करें मजदूर।
मातृभूमि जगमग करें, भारत के ये नूर।।
***   ***   ***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
04-05-22

Friday, April 29, 2022

सिंहनाद छंद

 सिंहनाद छंद "विनती"


हरि विष्णु केशव मुरारी।
तुम शंख चक्र कर धारी।।
मणि वक्ष कौस्तुभ सुहाये।
कमला तुम्हें नित लुभाये।।

प्रभु ग्राह से गज उबारा।
दस शीश कंस तुम मारा।।
गुण से अतीत अविकारी।
करुणा-निधान भयहारी।।

पृथु मत्स्य कूर्म अवतारी।
तुम रामचन्द्र बनवारी।।
प्रभु कल्कि बुद्ध गुणवाना।
नरसिंह वामन महाना।।

अवतार नाथ अब धारो।
तुम भूमि-भार सब हारो।।
हम दीन हीन दुखियारे।
प्रभु कष्ट दूर कर सारे।।
================

सिंहनाद छंद विधान -

"सजसाग" वर्ण दश राखो।
तब 'सिंहनाद' मधु चाखो।।

"सजसाग" = सगण जगण सगण गुरु
(112  121 112  2) 
10 वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद, 4 चरण दो दो सम तुकान्त।
********************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
18-02-2017

Saturday, April 23, 2022

गुर्वा (ऋतु वर्णन)

ग्रीष्म गूजरी मतवाली,
स्वेद घड़ा छलकाती,
विकल सभी को कर डाली।
***

पावस पायल पहनी,
छम छम धुन बाजे,
हरियाली मन में खिली।
***

मिला शरद का आमंत्रण,
खिले हृदय में उत्सव,
शुभ्र ज्योत्सना का नर्तन।
***

बसंत बाग में बगराया,
बौर आम पर छाया,
कोकिल मधुर गान गाये।
*** ***
गुर्वा विधान जानने के लिए यहाँ क्लिक करें --->   गुर्वा विधान लिंक

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-04-21

Sunday, April 17, 2022

कुण्डलिया छंद

 कुण्डलिया छंद "विधान"


कुण्डलिया छंद दोहा छंद और रोला छंद के संयोग से बना विषम छंद है। इस छंद में ६ पद होते हैं तथा प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं। यह छंद दो छंदों के मेल से बना है जिसके पहले दो पद दोहा छंद के तथा शेष चार पद रोला छंद से बने होते हैं।

दोहा छंद एक अर्द्ध समपद छंद है। इसका हर पद यति चिन्ह द्वारा दो चरणों में बँटा होता है और दोनों चरणों का विधान एक दूसरे से अलग रहता है इसीलिए इसकी संज्ञा अर्द्ध समपद छंद है। इस प्रकार दोहा छंद के दोनों दल में चार चरण होते हैं। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण यानी विषम चरण १३-१३ मात्राओं के तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण यानी सम चरण ११-११ मात्राओं के होते हैं। 

कुण्डलिया छंद में दोहे का चौथा चरण रोला छंद के प्रथम चरण में सिंहावलोकन की तरह यथावत दोहरा दिया जाता है। रोला छंद के प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं। चूँकि दोहे का चौथा चरण कुण्डलिया छंद में रोला के प्रथम चरण में यथावत रख दिया जाता है इसलिए इस छंद में रोला छंद के चारों पदों की सम रूपता बनाये रखने के लिए रोला के चारों विषम चरणों की यति ११वीं मात्रा पर रखनी आवश्यक है, साथ ही इस चरण का अंत भी ताल यानी गुरु लघु से होना आवश्यक है। 

वैसे तो रोला छंद की मात्रा बाँट तीन अठकल की है पर कुण्डलिया छंद में रोला की प्रथम यति ताल अंत (21) के साथ ११ मात्रा पर सुनिश्चित है जिसकी मात्रा बाँट ८-३(गुरु लघु) है। अतः बाकी बची १३ मात्राएँ केवल ३-२-८ की मात्रा बाँट में ही हो सकती हैं क्योंकि रोला छंद का दूसरा अठकल केवल ३-३-२ में ही विभक्त होगा। शायद इसी कारण से इसी मात्रा बाँट में रोला छंद आजकल रूढ हो गया है।

कुण्डलिया छंद का प्रारंभ जिस शब्द या शब्द-समूह से होता है, छंद का अंत भी उसी शब्द या शब्द-समूह से होता है। सोने में सुहागा तब है जब कुण्डलिया के प्रारंभ का और अंत का शब्द एक होते हुए भी दोनों जगह अलग अलग अर्थ रखता हो। साँप की कुण्डली की तरह रूप होने के कारण ही इसका नाम कुण्डलिया पड़ा है। मेरी एक स्वरचित कुण्डलिया:-

 *कुण्डलिया छंद* (चौपाल)

धोती कुर्ता पागड़ी, धवल धवल सब धार।
सुड़क रहे हैं चाय को, करते गहन विचार।।
करते गहन विचार, किसी की शामत आई।
बैठे सारे साथ, गाँव के बूढ़े भाई।।
झगड़े सब निपटाय, समस्या सब हल होती।
अद्भुत यह चौपाल, भेद जो सब ही धोती।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Thursday, April 14, 2022

बहाग बिहू 'मुक्तक'



कपौ कुसुम का पहने गजरा, पेंपा के स्वर गुंजायें।
नाच रही हैं झूम रही हैं, असम धरा की बालायें।
महक उठी है प्रकृति मनोहर, सतरंगी आभा बिखरी।
पर्व बहाग बिहू का आया, गीत सुहाने सब गायें।।

(लावणी छंद)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14.4.22

Saturday, April 9, 2022

ग़ज़ल (आज तक बस छला गया है मुझे)

बह्र:- 2122  1212  22

आज तक बस छला गया है मुझे,
दूर सच से रखा गया है मुझे।

गाम दर गाम ख्वाब झूठे दिखा,
रोज अब तक ठगा गया है मुझे।

अब इनायत सी लगती उनकी जफ़ा,
क्यों तु ग़म इतना भा गया है मुझे।

इंतज़ार उनका करते करते अब,
सब्र करना तो आ गया है मुझे।

उसने बस चार दिन पिलाई संग,
रोज का लग नशा गया है मुझे।

मेहमाँ बन कभी जो घर में बसा,
वो भिखारी बना गया है मुझे।

बेवफ़ाओं को जल्द भूल 'नमन',
सीख कोई सिखा गया है मुझे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-10-18

Wednesday, April 6, 2022

वंशस्थ छंद

 वंशस्थ छंद "शीत-वर्णन"


तुषार आच्छादित शैल खण्ड है।
समस्त शोभा रजताभ मण्ड है।
प्रचण्डता भीषण शीत से पगी।
अलाव तापें यह चाह है जगी।।

समीर भी है सित शीत से महा।
प्रसार ऐसा कि न जाय ही सहा।
प्रवाह भी है अति तीव्र वात का।
प्रकम्पमाना हर रोम गात का।।

व्यतीत ज्यों ही युग सी विभावरी।
हरी भरी दूब तुषार से भरी।।
लगे की आयी नभ को विदारके।
उषा गले मौक्तिक हार धार के।।

लगा कुहासा अब व्योम घेरने।
प्रभाव हेमंत लगा बिखेरने।।
खिली हुई धूप लगे सुहावनी।
सुरम्य आभा लगती लुभावनी।।
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वंशस्थ छंद विधान -

"जताजरौ" द्वादश वर्ण साजिये।
 प्रसिद्ध 'वंशस्थ' सुछंद राचिये।।

"जताजरौ" = जगण, तगण, जगण, रगण
121  221  121  212

(वंशस्थ छंद प्रत्येक चरण में 12 वर्ण की वर्णिक छंद है। दो दो या चारों चरण समतुकांत।) 
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
12-01-19

Sunday, April 3, 2022

काव्य कौमुदी "होली विशेषांक"

दोहा छंद "होली"

काव्य कुञ्ज पटल के साझा काव्य संग्रह "काव्य कौमुदी (होली विशेषांक)" के आभासी संस्करण में प्रकाशित मेरी रचना।

काव्य कौमुदी डाउनलोड लिंक:-


दोहे "होली"

होली के सब पे चढ़े, मधुर सुहाने रंग।
पिचकारी चलती कहीं, बाजे कहीं मृदंग।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03.04.22