Saturday, February 9, 2019

ग़ज़ल (जिधर वो रहते मैं क्योंकर)

बह्र:- 1212  1122  1212  22/112

जिधर वो रहते मैं क्योंकर उधर से निकला था,
बड़ा मलाल जो उनकी नज़र से निकला था।

मिले थे राह में पर आँख भी उठाई नहीं,
उन्हीं से मिलने की ले आस घर से निकला था।

कदम कदम पे मुझे ज़िंदगी में ख़ार मिले,
गुलों की चाह में मैं हर डगर से निकला था।

बुला रहीं हैं मुझे अब भी उनकी यादें क्यों,
मैं मुश्किलों से ही उनके असर से निकला था।

रकीब सारे मिले पर न हमसफ़र कोई,
मैं ज़िंदगी की सभी रहगुज़र से निकला था।

टिकी गणित है हमारे ही जिन उसूलों पर,
तमाम फ़लसफ़ा वो इक सिफ़र से निकला था,

'नमन' जो गुम हों अँधेरों में क्या हो उन को खबर,
सितारा आस का उनकी किधर से निकला था।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-05-17

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