Thursday, February 4, 2021

ग़ज़ल (जब से अंदर और बाहर)

बह्र:- 2122 2122 2122 212

जब से अंदर और बाहर एक जैसे हो गये,
तब से दुश्मन और प्रियवर एक जैसे हो गये।

मन की पीड़ा आँख से झर झर के बहने जब लगी,
फिर तो निर्झर और सागर एक जैसे हो गये।

लूट हिंसा और चोरी, उस पे सीनाजोरी है,
आजकल तो जानवर, नर एक जैसे हो गये।

अर्थ के या शक्ति के या पद के फिर अभिमान में,
आज नश्वर और ईश्वर एक जैसे हो गये।

हाल कुछ ऐसा ही है संसद का इस जन-तंत्र में,
फिर से क्या नर और वानर एक जैसे हो गये।

साफ़ छवि रख काम कोई कैसे कर सकता यहाँ,
भ्रष्ट सब जब एक होकर एक जैसे हो गये।

जब से याराना फकीरी से 'नमन' का हो गया,
मान अरु अपमान के स्वर एक जैसे हो गये।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-09-20

2 comments:

  1. Very Nice your all post. i love so many & more shayari i read your post its very good post and images . thank you for sharing

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