Thursday, July 22, 2021

मुक्तक (कलम, कविता -2)

कवियों के मन-भाव कलम से, बाहर में जब आते हैं,
तब पहचान जगत में सच्ची, कविगण सारे पाते हैं,
चमड़ी के चहरों का क्या है, पल पल में बदलें ये तो,
पर कलमों के चहरे मन में, हरदम थिर रह जाते हैं।

(ताटंक छंद)
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कलम शक्ति को कम ना आँकें, बड़ों बड़ों को नृत्य करा दे,
मानव मन के उद्गारों को, हर मानस तक ये पहुँचा दे,
मचा जगत में उथल पुथल दे, बड़े बड़े कर ये परिवर्तन,
सत्ताऐँ तक इससे पलटें, राजतन्त्र को भी थर्रा दे।

लल्लो चप्पो करने वाले आज कुकुरमुत्तों से छाए,
राजनीति को क्यों कोसें ये भर साहित्य जगत में आए,
बेपेंदी के इन लोटों से रहें दूर कलमों के साधक, 
थोथी वाहों की क्या कीमत जो बस मुँह लख तिलक लगाए।

(32 मात्रिक छंद)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-08-2016

2 comments:

  1. आदरणीय बासुदेव भैया,कलम की सार्थकता पर आपके उम्दा विचार 'काव्यशुचिता' पर साझा करने हेतु हार्दिक आभार।
    बहुत सुंदर एवं सार्थक सृजन।

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  2. शुचिता बहन टिप्पणी का हार्दिक धन्यवाद।

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