Friday, December 4, 2020

एक हास्य ग़ज़ल (मूली में है झन्नाट जो)

बह्र:- 221 1221 1221 122

मूली में है झन्नाट जो, आलू में नहीं है,
इमली सी खटाई भी तो निंबू में नहीं है।

किशमिश में लचक सी जो है काजू में नहीं है,
जो लुत्फ़ है भींडी में वो कद्दू में नहीं है।

बेडोल दिखे, गोल सदा, बाँकी की महिमा,
जो नाज़ है बरफी में वो लड्डू में नहीं है।

जितनी भी करूँ तुलना मैं घरवाली ही ऊँची,
बिल्ली में जो शोखी़ है वो भालू में नहीं है।

झाड़ू को लगाती हुईं पत्नी जी न समझें,
पोंछे सी सफाई मेरी, झाड़ू में नहीं है।

कुर्सी का रहा ठाठ सदा, औरों की मिहनत,
अफसर में भला क्या है जो बाबू में नहीं है।

चलती है जबाँ से ये तो हाथों से वो चलता,
जो बात छुरी में है वो चाकू में नहीं है।

कल न्यूज सुना, एक धराशायी हुआ पुल,
सीमेंट की मज़बूती तो बालू में नहीं है।

इलजा़म लगाते हैं जो शेरों पे सुनें वे,
जो गूंज दहाड़ों में वो ढेंचू में नहीं है।

कुर्सी से चिपक बोझ 'नमन' जो भी वतन पर,
क्यों नेता में नाम+उस का! निखट्टू में नहीं है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-08-20

ग़ज़ल (साथ सजन तो चाँद सुहाना)

बह्र:- 22  22  22  22  22  2

साथ सजन तो चाँद सुहाना लगता है,
दूर पिया तो फिर वो जलता लगता है।

मन में जब ख़ुशहाली रहती है छायी,
हर मौसम ही तब मस्ताना लगता है।

बच्चों की किलकारी घर में जब गूँजे,
गुलशन सा घर का हर कोना लगता है।

प्रीतम प्यारा जब से ही परदेश गया,
बेगाना मुझको हर अपना लगता है।

झूठे तेरे फिर से ही वे वादे सुन,
तेरा चहरा पहचाना सा लगता है।

प्रेम दया के भाव सृष्टि पर यदि रख लो,
यह जग भगवत मय तब सारा लगता है।

पात्र 'नमन' का वो बनता है नर जग में,
हर नर जिसको अपने जैसा लगता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-05-19

ग़ज़ल (यादों के जो अनमोल क्षण)

बह्र :- 2212   2212   2212   2212

यादों के जो अनमोल क्षण मन में बसा हरदम रखें,
राहत मिले जिस याद से उर से लगा हरदम रखें।

जब प्रीत की हम डोर में इक साथ जीवन में बँधे,
हम उन सुनहरे ख्वाबों को दिल में जगा हरदम रखें।

छाती हमारी शान से चौड़ी हुई थी जब कभी,
उस वक्त की रंगीन यादों को बचा हरदम रखें।

जब कुछ अलग हमने किया सबने बिठाया आँख पे,
उन वाहवाही के पलों को हम सजा हरदम रखें।

जो आग दुश्मन ने लगाई देश में आतंक की,
उस आग के शोलों को हम दिल में दबा हरदम रखें।

जो भूख से बिलखें सदा है पास जिनके कुछ नहीं,
उनके लिये कुछ कर सकें ऐसी दया हरदम रखें।

जब भी 'नमन' दिल हो उठे बेजा़र ग़म में डूब के,
बीते पलों की याद का दिल में मजा़ हरदम रखें।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-11-2016

Sunday, November 22, 2020

गुर्वा (प्रकृति-1)

गिरि से निर्झर पिघला,
सर्प रहे उड़ इठला,
गरजें मेघ लरज थर थर।
***

मेघ घिरे नभ में हर ओर,
हरित धरा, नाचे मोर,
सावन शुष्क! दूर चितचोर।
***

भोर पहन मौक्तिक माला,
दुर्वा पर बैठी,
हाथ साफ रवि कर डाला।
***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-06-20

विविध मुक्तक -4

ओ मेरे सब्र तू मुझ से न ख़फ़ा हो जाना,
छोड़ दे साथ जमाना तो मेरा हो जाना,
दर्द-ओ-ग़म भूल रखूं तुझको बसाये दिल में,
फ़ख्र जिस पे मैं करूं वो तू अना हो जाना।

(2122 1122 1122 22)

01-08-2020
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चाहे दुश्मन रहा जमाना, रीत सनातन कभी न छोड़ी,
जननी जन्म भूमि से हमने, अपनी प्रीत सदा ही जोड़ी,
आस्तीन के सांपों को भी, हमने दूध पिला पाला है,
क्या करते फ़ितरत ही ऐसी, अपनी बात अलग है थोड़ी।

(समान सवैया)

3-08-20
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जिता कर थोप लो सर पे हमारे हुक्मरानों को,
करेंगे मन की वे सारी रखो तुम चुप जुबानों को,
किया प्रतिरोध कुछ भी गर गिरा देंगे वे पल भर में,
लगा कर उम्र सारी तुम बनाये जिन ठिकानों को।

(1222*4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
09-09-20

मुक्तक (इंसान-2)

ढ़ोते जो हम बोझ चार पे, तुम वो दो पर ढ़ोते हो,
तरह हमारी तुम भी खाते, पीते, जगते, सोते हो,
पर उसने वो समझ तुम्हें दी, जिससे तुम इंसान बने,
वरना हम तुम में क्या अंतर, जो गरूर में खोते हो।

(लावणी छंद आधारित)
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बल बुद्धि शौर्य के स्वामी तुम, मानव जग में कहलाते हो,
तुम बात अहिंसा की करते, तुम ढोंग रचा बहलाते हो,
तुम नदी खून की बहा बहा, नित प्राण हरो हम जीवों के,
हम एक ईश की सन्तानें, फिर क्यों तुम यूँ दहलातेहो।

(मत्त सवैया)
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जुता रहा जीवन-कोल्हू में, एक बैल सा भरमाया,
आँखों पर पट्टी को बाँधे, लगातार चक्कर खाया,
तेरी खातिर मालिक ने तो, रची सुहानी दुनिया थी,
किंतु प्रपंचों में ही उलझा, उसको भोग न तू पाया। 

(लावणी छंद आधारित)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
5-11-19

Sunday, November 15, 2020

जनहरण घनाक्षरी

मधुवन महकत, शुक पिक चहकत,
जन-मन हरषत,  मधु रस बरसे।

कलि कलि सुरभित, गलि गलि मुखरित,
उपवन पुलकित, कण-कण सरसे।

तृषित हृदय यह, प्रभु-छवि बिन दह,
दरश-तड़प सह, निशि दिन तरसे।

यमुन-पुलिन पर, चित रख नटवर,
'नमन' नवत-सर, ब्रज-रज परसे।।

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जनहरण विधान:- (कुल वर्ण संख्या = 31 । इसमें चरण के प्रथम 30 वर्ण लघु रहते हैं तथा केवल चरणान्त दीर्घ रहता है। 16, 15 पर यति अनिवार्य। 8,8,8,7 के क्रम में लिखें तो और अच्छा।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-06-20

कर्मठता (कुण्डलिया)

कर्मठता नहिँ त्यागिए, करें सदा कुछ काम।
कर्मवीर नर पे टिका, देश धरा का नाम।
देश धरा का नाम, करें वो कुल को रौशन।
कर्म कभी नहिँ त्याग, यही गीता का दर्शन।
कहे 'बासु' समझाय, करो मत कभी न शठता।
सौ झंझट भी आय, नहीं छोड़ो कर्मठता।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-12-16

दोहा गीतिका (सम्मान)

काफ़िया- आ, रदीफ़-सम्मान

देश वासियों नित रखो, निज भाषा सम्मान।
स्वयं मान दोगे तभी, जग देगा सम्मान।।

सब से हमको यश मिले, मन में तो यह चाह।
पर सीखा नहिं और को, कुछ देना सम्मान।।

गुणवत्ता अरु पात्र का, जरा न सोच विचार।
खुले आम बाज़ार में, अब बिकता सम्मान।।

देख देख फटता जिया, काव्य मंच का हाल।
सिंह मध्य श्रृंगाल का, खुल होता सम्मान।।

मुँह की खाते लोग जो, मिथ्या गाल बजाय।
औरन की सुनते न बस, निज-गाथा सम्मान।।

दीन दुखी के काम आ, नहीं कमाया नाम।
उनका ही आशीष तो, है सच्चा सम्मान।। 

'नमन' हृदय क्यों रो रहा, लख जग की यह चाल।
स्वारथ का व्यापार सब, मतलब का सम्मान।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-12-2018

Wednesday, November 11, 2020

32 मात्रिक छंद "हम और तुम"

बम बम के हम उद्घोषों से, धरती गगन नाद से भरते।
बोल 'बोल बम' के पावन सुर, आह्वाहन भोले का करते।।
पर तुम हृदयहीन बन कर के, मानवता को रोज लजाते।
बम के घृणित धमाके कर के, लोगों का नित रक्त बहाते।।

हर हर के हम नारे गूँजा, विश्व शांति को प्रश्रय देते।
साथ चलें हम मानवता के, दुखियों की ना आहें लेते।।
निरपराध का रोज बहाते, पर तुम लहू छोड़ के लज्जा।
तुम पिशाच को केवल भाते, मानव-रुधिर, मांस अरु मज्जा।।

अस्त्र हमारा सहनशीलता, संबल सब से भाईचारा।
परंपरा में दानशीलता, भावों में हम पर दुख हारा।।
तुम संकीर्ण मानसिकता रख, करते बात क्रांति की कैसी।
भाई जैसे हो कर भी तुम, रखते रीत दुश्मनों जैसी।।

डर डर के आतंकवाद में, जीना हमने तुमसे सीखा।
हँसे सदा हम तो मर मर के, तुमसे जब जब ये दिल चीखा।।
तुम हो रुला रुला कर हमको, कभी खुदा तक से ना डरते।
सद्बुद्धि पा बदल सको तुम, पर हम यही प्रार्थना करते।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया 
1-05-2016

पीयूष वर्ष छंद "वर्षा वर्णन"

पीयूष वर्ष छंद / आनंद वर्धक छंद

बिजलियों की गूंज, मेघों की घटा।
हो रही बरसात, सावन की छटा।।
ढोलकी हर ओर, रिमझिम की बजी।
हो हरित ये भूमि, नव वधु सी सजी।।

नृत्य दिखला मोर, मन को मोहते।
जुगनुओं के झूंड, जगमग सोहते।।
रख पपीहे आस, नभ को तक रहे।
स्वाति की जलधार, कब नभ से बहे।।

नार पिय से दूर, रह कर जो जिए।
अग्नि सम ये वृष्टि, उसके है लिए।।
पीड़ मन की व्यक्त, मेघों से करे।
क्यों हृदय में ज्वाल, वारिद तू भरे।।

छा गया उत्साह, कृषकों में नया।
दूर सब अवसाद, मन का हो गया।।
नारियों के झूंड, कजरी गा रहे,
कर रहे हैं नृत्य, हाथों को गहे।।
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पीयूष वर्ष छंद विधान -

पीयूष वर्ष छंद चार पदों का 19 मात्रा का सम पद मात्रिक छंद है। प्रत्येक पद 10, 9 मात्रा के दो चरणों में विभक्त रहता है। दो दो पद  सम तुकांत रहने आवश्यक हैं।

पद की मात्रा बाँट 2122  21, 22  21S होती है। गुरु वर्ण को 2 लघु करने की छूट है। पद का अंत लघु दीर्घ (1S) वर्ण से होना आवश्यक है।

आनंद वर्धक छंद विधान - पीयूष वर्ष छंद में जब यति की बाध्यता न हो तो यही 'आनंद वर्धक छंद' कहलाता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03-08-20

शीर्षा छंद (शैतानी धारा)

शीर्षा छंद / शिष्या छंद

शैतानी जो थी धारा।
जैसे कोई थी कारा।।
दाढों में घाटी सारी।
भारी दुःखों की मारी।।

लूटों का बाजे डंका।
लोगों में थी आशंका।।
हत्याएँ मारामारी।
सांसों पे वे थी भारी।।

भोले बाबा की मर्जी।
वैष्णोदेवी माँ गर्जी।।
घाटी की होनी जागी।
आतंकी धारा भागी।।

कश्मीरी की आज़ादी।
उन्मादी की बर्बादी।
रोयेंगे पाकिस्तानी।
गायेंगे हिंदुस्तानी।।
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शीर्षा छंद / शिष्या छंद विधान -

शीर्षा छंद जो कि शिष्या छंद के नाम से भी जाना जाता है, ७ वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद है।

"मामागा" कोई राखे।
'शीर्षा' छंदस् वो चाखे।।

"मामागा" = मगण मगण गुरु
222 222 2 = 7 दीर्घ वर्ण की वर्णिक छंद।दो-दो चरण समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
05-10-20

Thursday, November 5, 2020

ग़ज़ल (जो गिरे हैं उन्हें हम उठाते रहे)

बह्र:- 212*4

जो गिरे हैं उन्हें हम उठाते रहे,
दर्द में उनके आँसू बहाते रहे।

दीप हम आँधियों में जलाते रहे।
लोग कुछ जो इन्हें भी बुझाते रहे।

जो गरीबी की सह मार बेज़ार हैं,
आस जीने की उन में जगाते रहे।

राह मज़लूम की तीरगी से घिरी,
रस्ता जुगनू बने हम दिखाते रहे।

खुद परस्ती ओ नफ़रत के इस दौर में,
हम जमाने से दामन बचाते रहे।

अम्न की आस जिनसे लगा के रखी,
पीठ में वे ही खंजर चुभाते रहे।

ये ही फ़ितरत 'नमन' तुम को करती अलग,
बाँट खुशियाँ ग़मों को छुपाते रहे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-09-19

ग़ज़ल (रहे जो गर्दिशों में ऐसे अनजानों)

बह्र:- 1222 1222 1222 1222

रहे जो गर्दिशों में ऐसे अनजानों पे क्या गुज़री,
किसे मालूम उनके दफ़्न अरमानों पे क्या गुज़री।

कमर झुकती गयी पर बोझ जो फिर भी रहे थामे,
न जाने आज की औलाद उन शानों पे क्या गुज़री।

अगर इस देश में महफ़ूज़ हम हैं तो ज़रा सोचें।
वतन की सरहदों के उन निगहबानों पे क्या गुज़री।

मुहब्बत की शमअ पर मर मिटे जल जल पतंगे जो,
खबर किसको कि उन नाकाम परवानों पे क्या गुज़री।

'नमन' अपनों की कोई आज चिंता ही नहीं करता,
सभी को फ़िक्र बस रहती कि बेगानों पे क्या गुज़री।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-2-18

ग़ज़ल (कैसी ये मज़बूरी है)

बह्र:- 2222 2222 2222 222

गदहे को भी बाप बनाऊँ कैसी ये मज़बूरी है,
कुत्ते सा बन पूँछ हिलाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

एक गाम जो रखें न सीधा चलना मुझे सिखायें वे,
उनकी सुन सुन कदम बढ़ाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

झूठ कपट की नई बस्तियाँ चमक दमक से भरी हुईं,
अपना घर में वहाँ बसाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

सबसे पहले ऑफिस आऊँ और अंत में घर जाऊँ,
मगर बॉस को रिझा न पाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

ऊँचे घर में तोरण मारा पहले सोच नहीं पाया,
अब नित उनके नाज़ उठाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

सास ससुर से माथा फोड़ूं  साली सलहज एक नहीं,
मैं ऐसे ससुराल में जाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

डायटिंग घर में कर कर के पीठ पेट मिल एक हुये,
पर दावत में ठूँस के खाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

कारोबार किया चौपट है चंदे के इस धंधे ने,
हर नेता से आँख चुराऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

पहुँच बना कर लगी नौकरी तनख्वाह में अब सेंध लगी,
ऊपर सबका भाग भिजाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

झूठी वाह का दौर सुखन में 'नमन' आज ऐसा आया,
नौसिखियों को मीर बताऊँ कैसी ये मज़बूरी है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-04-18