Wednesday, September 7, 2022

सुगम्य गीता (द्वितीय अध्याय 'द्वितीय भाग')

द्वितीय अध्याय (भाग -२)

नष्ट न करे प्रयत्न ये, होय न कुछ प्रतिकूल। 
स्वल्प साधना बुद्धि की, हरे मृत्यु की शूल।।२६।। 

एक बुद्धि इस योग में, निश्चित हो कर रहती। 
अस्थिर मन में बुद्धि की, कई तरंगें बहती।।२७।। मुक्तामणि छंद

इच्छाओं में चूर जो, करके शास्त्र सहायी। 
कर्म करे ठहरा उचित, निम्न भोग फल दायी।।२८।। मुक्तामणि छंद

त्रिगुणाश्रित फल वेद दे, ऊँचा उठ तू पार्थ। 
चाह न कर अप्राप्य की, रहे प्राप्य कब साथ।।२९।। 

चित्त लगा उस नित्य में, जो जल-पूर्ण तड़ाग। 
गड्ढों से बाहर निकल, क्षुद्र कामना त्याग।।३०।। 

कर्म सदा अधिकार में, फल न तुम्हारे हाथ। 
त्यज तृष्णा फल-हेतु जो, त्यज न कर्म का साथ।।३१।। 

सफल-विफल में सम रहो, ये समता ही योग। 
योगास्थित हो कर्म कर, तृष्णा का त्यज रोग।।३२।। 

बुद्धि-योग बिन कर्म सब, निम्न कोटि के जान। 
आश्रय ढूँढो बुद्धि में, दीन फलाशा मान।।३३।। 

पाप-पुण्य के फेर से, बुद्धि-युक्त है मुक्त। 
समता से ही कर्म सब, होते कौशल युक्त।।३४।। 

बुद्धि मुक्त जब मोह के, होती झंझावात से। 
मानव मन न मलीन हो, सुनी सुनाई बात से।।३५।। उल्लाला छंद

कर्मों से फल प्राप्त जो, बुद्धि-युक्त त्यज कर उसे।
जन्म-मरण से मुक्त हो, परम धाम में जा बसे।।३६।। उल्लाला छंद

भाँति भाँति के सुन वचन, भ्रमित बुद्धि जो पार्थ।
थिर जब हो वह आत्म में, मिले योग का साथ।।३७।। 

क्या लक्षण, बोले, चले, बैठे जो थिर प्रज्ञ। 
चार प्रश्न सुन पार्थ के, बोले स्वामी यज्ञ।।३८।। 

मन की सारी कामना, त्यागे नर जिस काल। 
तुष्ट स्वयं में जो रहे, थिर-धी बिरला लाल।।३९।। 

सुख में कोउ न लालसा, दुःख न हो उद्विग्न। 
राग क्रोध भय मुक्त जो, वो नर थिर-धी मग्न।।४०।। 

स्नेह-रहित सर्वत्र जो, मिले शुभाशुभ कोय। 
प्रीत द्वेष उपजे नहीं, नर वो थिर-धी होय।।४१।। 

विषय-मुक्त कर इन्द्रियाँ, कच्छप जैसे अंग। 
हर्षित मन थिर-धी रहे, आशु-बुद्धि के संग।।४२।। 

इन्द्रिय संयम से भले, होते विषय निवृत्त, 
सूक्ष्म चाह फिर भी रहे, मिटे तत्त में चित्त।।४३।। 

बहुत बड़ी बलवान, पीड़ादायी इन्द्रियाँ। 
यत्नशील धीमान, का भी मन बल से हरे।।४४।। सोरठा छंद 

मेरे आश्रित बैठ, वश कर सारी इन्द्रियाँ। 
जिसकी मुझ में पैठ, थिर-मति जग उसको कहे।।४५।। सोरठा छंद

विषय-ध्यान आसक्ति दे, फिर ये बाढ़े कामना। 
पूर्ण कामना हो न जब, हुवे क्रोध से सामना।।४६।। उल्लाला छंद

मूढ़ चित्त हो क्रोध से, उससे स्मृति-भ्रम होय फिर।
बुद्धि-नाश भ्रम से हुवे, अंत पतन के गर्त गिर।।४७।। उल्लाला छंद

राग द्वेष से जो रहित, इन्द्रिय-जयी प्रवीन। 
विषय-भोग उपरांत भी, चिरानन्द में लीन।।४८।। 

धी-अयुक्त में भावना, का है सदा अभाव। 
शांति नहीं इससे मिले, मिटे न भव का दाव।।४९।। 

मन जिस इन्द्रिय में रमे, वही हरे फिर बुद्धि। 
उस अयुक्त की फिर कहो, किस विध मन की शुद्धि।।५०।। 

अतः महाबाहो उसे, थिर-धी नर तुम जान। 
जिसने अपनी इन्द्रियाँ, वश कर राखी ठान।।५१।। 

जो सबकी है रात, संयमी उस में जागे। 
जिसमें जागे लोग, निशा लख साधु न पागे।।५२।। रोला छंद 

सागर फिर भी शांत, समाती नदियाँ इतनी। 
निर्विकार त्यों युक्त, कामना घेरें जितनी।।५३।। रोला छंद

सभी कामना त्याग, अहम् अभिलाषा ममता।
विचरै जो स्वच्छंद, शांति अरु पाता समता।।५४।। रोला छंद 

ये ब्राह्मी स्थिति पार्थ, पाय नर हो न विमोहित। 
सफल करे वो अंत, ब्रह्म में होय समाहित।।५५।। रोला छंद 

सुगम्य गीता इति द्वितीय अध्याय (भाग -२)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 14-4-2017 से प्रारम्भ और 17 -4-2017 को समापन)



Saturday, September 3, 2022

गंग छंद "गंग धार"

गंग छंद

गंग की धारा।
सर्व अघ हारा।।
शिव शीश सोहे।
जगत जन मोहे।।

पावनी गंगा।
करे तन चंगा।।
नदी वरदानी।
सरित-पटरानी।।

तट पे बसे हैं।
तीरथ सजे हैं।।
हरिद्वार काशी।
सब पाप नाशी।।

ऋषिकेश शोभा।
हृदय की लोभा।।
भक्त गण आते।
भाग्य सरहाते।।

तीर पर आ के।
मस्तक झुका के।।
पितरगण  सेते।
जलांजलि देते।।

मंदाकिनी माँ।
अघनाशिनी माँ।।
भव की तु तारा।
'नमन' शत बारा।।
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गंग छंद विधान -

गंग छंद 9 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है जिसका अंत गुरु गुरु (SS) से होना आवश्यक है। यह आँक जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 9 मात्राओं का विन्यास पंचकल + दो गुरु वर्ण (SS) हैं। पंचकल की निम्न संभावनाएँ हैं :-

122
212
221
(2 को 11 में तोड़ सकते हैं, पर अंत सदैव दो गुरु (SS) से होना चाहिए।)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
25-05-22

Friday, August 26, 2022

सुगम्य गीता (द्वितीय अध्याय 'प्रथम भाग')

 द्वितीय अध्याय (भाग -१)

मृत या मरणासन्न पर, आह नहीं पण्डित भरे।
शोक-योग्य दोनों नहीं, बात ज्ञानियों सी करे।।१।।
उल्लाला छंद

तुम मैं या ये भूप सब, वर्तमान हर काल में। 
रहने वाले ये सदा, आगे भी हर हाल में।।२।। उल्लाला छंद

तीन अवस्था देह को, जैसे होती प्राप्त। 
देही को तन त्यों मिले, मोह हृदय क्यों व्याप्त।।३।। 

आते जाते ही रहें, विषयों के संयोग। 
सहन करो सम भाव से, सुख-दुख योग-वियोग।।४।। 

सुख-दुख में जो सम रहे, होय विषय निर्लिप्त।
पार करे आवागमन, मोक्ष-अमिय से तृप्त।।५।। 

सत की सत्ता सर्वदा, असत न स्थाई होय। 
तत्त्वों के इस सार को, सके न लख हर कोय।।६।। 

अविनाशी उसको समझ, जिससे यह सब व्याप्त।
शाश्वत अव्यय नाश को, कभी न होता प्राप्त।।७।। 

परे प्रमाणों से सखा, आत्म तत्त्व को जान। 
देह असत सत आतमा, करो युद्ध मन ठान।।८।। 

मरे न ये मारे कभी, षट छूये न विकार। 
नित शाश्वत अज अरु अमर, इसको सदा विचार।।९।। 

नये वस्त्र पहने यथा, लोग पुराने छोड़। 
देही नव तन से तथा, नाता लेता जोड़।।१०।। 

कटे नहीं ये शस्त्र से, जला न सकती आग। 
शुष्क पवन से ये न हो, जल की लगे न लाग।।११।। 

शोक करो तुम त्यक्त, इस विध लख इस आत्म को। 
अविकारी अव्यक्त, चिंतन पार न पा सके।।१२।। सोरठा छंद

मन में लो यदि धार, जन्म मरण धर्मी इसे। 
फिर भी करो विचार, शोभनीय क्या शोक यह।।१३।। सोरठा छंद

जन्म बाद मरना अटल, पुनर्जन्म त्यों जान। 
मान इसे त्यज शोक को, नर-वश ये न विधान।।१४।। 

प्रकट न ये नृप आदि में, केवल अभी समक्ष।
होने वाले लुप्त ये, फिर क्यों भीगे अक्ष।।१५।। 

कहे सुने देखे इसे, ज्ञानी अचरज मान। 
सुन कर भी कुछ मोह में, इसे न पाये जान।।१६।। 

आत्म तत्त्व हर देह का, नित अवध्य है पार्थ। 
मोह त्याग निर्द्वन्द्व हो, कैसा नाता स्वार्थ।।१७।। 

क्षत्रिय का सबसे बड़ा, धर्म-युद्ध है कर्म। 
धर्म दुहाई व्यर्थ है, युद्ध तुम्हारा धर्म।।१८।। 

भाग्यवान तुम हो बड़े, स्वयं मिला जो युद्ध। 
स्वर्ग-द्वार को मोह से, करो न तुम अवरुद्ध।।१९।। 

युद्ध-विमुखता पार्थ ये, करे कीर्ति का नाश। 
क्षात्र-धर्म के त्याग से, मिले पाप की पाश।।२०।। 

अर्जित तूने कर रखा, जग में नाम महान। 
होगी जब आलोचना, नहीं रहे वो मान।।२१।। 

रण-कौशल तेरा रहा, सदा सूर्य सा दिप्त। 
उसमें ग्रहण लगा रहे, भय में हो कर लिप्त।।२२।। 

मृत्यु मिले या जय मिले, उभय लाभ के काज।
एक स्वर्ग दे दूसरा, भू मण्डल का राज।।२३।। 

हार-जीत सुख-दुःख को, एक बराबर मान। 
युद्ध करो सब त्याग कर, पाप पुण्य का भान।।२४।। 

आत्मिक विषयक सांख्य का, अबतक दीन्हा ज्ञान। 
बुद्धि-योग अब दे तुझे, कर्म-बन्ध से त्रान।।२५।। 

सुगम्य गीता इति द्वितीय अध्याय (भाग -१)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 11-4-2017 से प्रारम्भ और 14 -4-2017 को समापन)


Monday, August 22, 2022

32 मात्रिक छंद "शारदा वंदना"

कलुष हृदय में वास बना माँ,
श्वेत पद्म सा निर्मल कर दो ।
शुभ्र ज्योत्स्ना छिटका उसमें,
अपने जैसा उज्ज्वल कर दो ।।

शुभ्र रूपिणी शुभ्र भाव से,
मेरा हृदय पटल माँ भर दो ।
वीण-वादिनी स्वर लहरी से,
मेरा कण्ठ स्वरिल माँ कर दो ।।

मन उपवन में हे माँ मेरे,
कविता पुष्प प्रस्फुटित होंवे ।
मन में मेरे नव भावों के,
अंकुर सदा अंकुरित होंवे ।।

माँ जनहित की पावन सौरभ,
मेरे काव्य कुसुम में भर दो ।
करूँ काव्य रचना से जग-हित,
'नमन' शारदे ऐसा वर दो ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
08-05-2016



Tuesday, August 16, 2022

छंदा सागर (छंद और घटक)

पाठ - 01

"छंदा सागर" ग्रन्थ

(छंद और घटक)

मात्रा या वर्ण की निश्चित संख्या, ह्रस्व स्वर और दीर्घ स्वर की विभिन्न आवृत्ति, यति, गति तथा अन्त्यानुप्रास के नियमों में आबद्ध पद्यात्मक इकाई छंद कहलाता है। ह्रस्व स्वर के उच्चारण में जितना समय लगता है दीर्घ स्वर के उच्चारण में उसका दुगुना समय लगता है। इसी उच्चारण की विभिन्नता से अनेकानेक छंद का सृजन होता है जिनकी अपनी अपनी लय होती है। छंदों में ह्रस्व स्वर की एक मात्रा गिनी जाती है जिसे लघु के नाम से जाना जाता है। इसे 1 की संख्या से भी प्रकट किया जाता है। दीर्घ स्वर की दो मात्रा होती है जिसे गुरु के नाम से जाना जाता है और 2 की संख्या से भी प्रकट किया जाता है।

उपरोक्त नियमों की विभिन्नता से अनेक लय का निर्माण होता है, जिनके आधार पर अनेकानेक छंद का निर्माण होता है। पदांत में केवल एक लघु की वृद्धि कर देने से ही छंद की लय, गति में अंतर आ जाता है और वह छंद का एक अलग भेद हो जाता है। संरचना, लक्षण और किसी छंद में काव्य सृजन के नियमों के आधार पर प्रस्तुत ग्रन्थ में छंदों को तीन वर्गों में रखा गया है।

1- वर्णिक छंद:- वर्णिक छंद उसे कहा जाता है जिसके प्रत्येक पद में वर्णों का क्रम तथा वर्णों की संख्या नियत रहती है। जब लघु गुरु का क्रम और उनकी संख्या निश्चित है तो मात्रा स्वयंमेव सुनिश्चित है। वर्णिक छंद की रचना में उस के वर्णों के क्रम का सम्यक ज्ञान और पद के मध्य की यति या यतियों का ज्ञान होना ही पर्याप्त है। वर्णिक छंदो में रचना करने के लिए ह्रस्व या दीर्घ मात्रा के अनुसार केवल शब्द चयन आवश्यक है। जैसे - मेरी "सुमति छंद" की रचना का एक उदाहरण देखें जिसका वर्ण विन्यास- 111 212 111 122 है। 

"प्रखर भाल पे हिमगिरि न्यारा।
बहत वक्ष पे सुरसरि धारा।।
पद पखारता जलनिधि खारा।
अनुपमेय भारत यह प्यारा।।"

रचना के हर चरण में ठीक 12 वर्ण हैं। वर्णिक छंदों में छंद के ह्रस्व दीर्घ के क्रम से कहीं भी च्युत नहीं हुआ जा सकता।

2- मात्रिक छंद:- मात्रिक छंद के पद में वर्णों की संख्या और वर्णों का क्रम निर्धारित नहीं रहता है परंतु मात्रा की संख्या निर्धारित रहती है। फिर भी हिन्दी में वर्णिक छंदों की अपेक्षा मात्रिक छंदों का प्रचलन अधिक है। मात्रिक छंदों की लय भी बहुत  मधुर तथा लोचदार होती है। यह लय केवल मात्राओं के बंधन से नहीं आती बल्कि उन मात्राओं को भी एक निश्चित क्रम में सजाने से प्राप्त होती है। मात्राओं के इस निश्चित क्रम का आधार है कल संयोजन। अधिकांश छंद समकल अर्थात द्विकल, चतुष्कल, षटकल, अठकल आदि पर आधारित रहते हैं परन्तु कई छंद में केवल विषम कल भी रहते हैं या समकलों के मध्य विषम कलों का भी समावेश रहता है। इस ग्रन्थ में आगे एक पूरा पाठ ही कलों पर है जिसमें कलों की पूर्ण विवेचना की गई है। कलों के अतिरिक्त कई मात्रिक छंद वर्ण-गुच्छक पर भी आधारित रहते हैं या कई छंदों के पदांत में वर्ण-गुच्छक रह सकता है। गुच्छक के पाठ में गुच्छक की संपूर्ण संरचना और विवेचना समाहित है। वर्ण गुच्छक में लघु गुरु का क्रम सुनिश्चित रहता है परंतु मात्रिक छंदों में गुरु को दो लघु में तोड़ा जा सकता है जबकि यह छूट वर्णिक छंदों में नहीं है। मेरी एक चौपाई का उदाहरण देखें जिसके प्रत्येक चरण में 16 मात्रा आवश्यक है।

"भोले की महिमा है न्यारी।
औघड़ दानी भव-भय हारी।।
शंकर काशी के तुम नाथा।
रखो शीश पर हे प्रभु हाथा।।"

उदाहरण के चरणों में वर्ण संख्या क्रमशः 9, 11, 10, 11 है। पर मात्रा हर चरण में 16 एक समान है। और लय सधी हुई है।

3- वाचिक स्वरूप:- वर्तमान में हिंदी में वाचिक स्वरूप में सृजन करने का प्रचलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। वाचिक का स्वरूप तो वर्णिक है पर इसके सृजन में न तो वर्णों की संख्या का बंधन है और न ही मात्राओं का। इसमें उच्चारण की प्रमुखता है और इस आधार पर गुरु को दो लघु में भी तोड़ा जा सकता है और कहीं कहीं गुरु वर्ण को लघु रूप में भी लिया जा सकता है जिस पर ऐसे छंदों के आवंटित पाठ में प्रकाश डाला जायेगा। वाचिक में रचे गये मेरे एक मुक्तक का उदाहरण जिसकी मापनी (221  1222)*2 है।

"पहचान ले' नारी तू, ताकत जो' छिपी तुझ में,
कारीगरी' उसकी जो, सब ही तो' सजी तुझ में,
मंजिल न को'ई ऐसी, तू पा न सके जिसको,
भगवान दिखे उसमें, ममता जो' बसी तुझ में।"

रचना में चिन्हित कई स्थान पर दीर्घाक्षरों का लघुवत् उच्चारण है।

उपरोक्त तीन वर्ग के आधार पर छंद के एक पद में प्रयुक्त लघु गुरु के निश्चित क्रम को दिग्दर्शित करने के लिए इस ग्रन्थ में अष्ट गणों के आधार पर नवीन अवधारणा ली गयी है। इस नवीन अवधारणा के तीन घटक हैं जो क्रमशः वर्ण, गुच्छक और छंदा के नाम से परिभाषित किये गये हैं। लघु, गुरु और लघु गुरु के मेल से बने चार द्विवर्णी वर्ण ले कर कुल छह वर्ण हैं, यगण आदि आठ गण हैं, गण में इन वर्णों के संयोग से गणक बनते हैं। ये गण और गणक सम्मिलित रूप में गुच्छक कहलाते हैं। गुच्छक और वर्णों के मेल से छंदा बनती है। छंदा के अनुसार काव्य रचना करने से छंद का एक पद पूर्ण हो जाता है। द्विपदी छंद में ऐसे दो पद रचे जाते हैं और चतुष्पदी छंद में चार पद।

आगे के पाठों में एक एक घटक की पूर्ण विवेचना की जायेगी, छंदाओं में प्रयुक्त विशेष संकेतक के लिए एक अलग से पाठ है। एक पाठ कल विवेचन का है और उसके बाद विविध छंदाओं के वर्गीकृत पाठ हैं। हर छंदा का उस छंदा में प्रयुक्त गुच्छक और संकेतक के आधार पर एक नाम है जिसमें उस छंदा के पूरे विधान का समावेश है। इस पूरे विधान का इस प्रकार निर्माण किया गया है कि छंदा का नाम संक्षिप्त हो और उच्चारण में सरल हो जिससे कि उसे याद रखने में सरलता हो। जिसने भी इस विधान को समझ लिया है वह छंदा का नाम सामने आते ही छंद के पूरे पद की रचना आसानी से कर सकता है। विधान भी बहुत तर्कसंगत बनाया गया है जिससे कि उसे समझने में भी आसानी हो और स्मरण रखना भी सरल हो। मुझे पूर्ण आशा है कि हिन्दी के काव्य सृजकों को इस ग्रन्थ से बहुत सहायता मिलेगी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
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Sunday, August 14, 2022

उज्ज्वला छंद "हल्दीघाटी"

 उज्ज्वला छंद

कुल सिसोदिया की आन को।
सांगा के कुल के मान को।।
ले जन्मे वीर प्रचंड वे।
राणा प्रताप मार्तंड वे।।

मेवाड़ी गुण की खान थे।
कुंभलगढ़ के वरदान थे।।
मुगलों के काल कराल वे।
क्षत्रिय वीरों के भाल वे।।

अकबर की आज्ञा को लिये।
जब मान सिंह हमला किये।।
हल्दीघाटी का युद्ध था।
हर क्षत्री योद्धा क्रुद्ध था।।

फिर तो राणा खूंखार थे।
झट चेतक पर असवार थे।।
रजपूती सेना साथ ले।
रण का बीड़ा वे हाथ ले।।

हल्दीघाटी में आ डटे।
अरि दल पर बिजली से फटे।।
फिर रुण्ड मुण्ड कटने लगे।
ज्यों शिव तांडव करने जगे।।

चेतक चण्डी सा हो पड़ा।
अरि सिर पर आ होता खड़ा।।
राणा झट रिपु सिर काटते।
भू कटे माथ से पाटते।।

यह घोर युद्ध चलता रहा।
यवनों का बल लुटता रहा।।
कर मस्तक उच्च अरावली।
गाये रण की विरुदावली।।

माटी का कण कण गा रहा।
यह अमर युद्ध सबसे महा।।
जो त्यजा धरा हित प्रान को।
शत 'नमन' प्रताप महान को।।
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उज्ज्वला छंद विधान -

उज्ज्वला छंद 15 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है। यह तैथिक जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 15 मात्राओं की मात्रा बाँट:- द्विकल + अठकल + S1S (रगण) है। द्विकल में 2 या 11 रख सकते हैं तथा अठकल में 4 4 या 3 3 2 रख सकते हैं।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
09-06-22

Tuesday, August 9, 2022

ग़ज़ल (नेकियों का आजकल मिलता)

 बह्र:- 2122  2122  2122  212

नेकियों का आजकल मिलता सिला कुछ भी नहीं,
ये जमाने का चलन है कर गिला कुछ भी नहीं।

दूर उनसे हैं बहुत ही जी रहे पर सोच यह,
जब तलक वे दिल में बसते फ़ासिला कुछ भी नहीं।

घूम आवारा कटें दिन और फुटपाथों पे शब,
ज़ीस्त का सुख आज तक हमको मिला कुछ भी नहीं।

आप आयें तो महक उट्ठेगा उजड़ा गुलसिताँ,
मुद्दतों से इस चमन में है खिला कुछ भी नहीं।

खाना, पीना, उठना, सोना सब ही बेतरतीब अब,
दूर वे जब से गये हैं सिलसिला कुछ भी नहीं।

चाहे कोई युग हो पुरुषों की अना के सामने,
द्रौपदी, सीता, अहिल्या, उर्मिला कुछ भी नहीं।

चंद साँसें साथ हैं बस पर 'नमन' कुछ कर दिखा,
यूँ तो लम्बी राह में ये काफ़िला कुछ भी नहीं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-01-2019

Thursday, August 4, 2022

अरिल्ल छंद "सावन"

अरिल्ल छंद / डिल्ला छंद


सावन की शोभा है अनुपम।
रिमझिम की छायी है छमछम।।
नभ में काले बादल छायें।
तृषित धरा की प्यास बुझायें।।

मोर पपीहा शोर मचायें।
वर्षा की ये आस जगायें।।
कूक रही बागों में कोयल।
रसिक हृदय में करती हलचल।।

बाग बगीचों में हरियाली।
खिली हुई तरु की हर डाली।।
झूलों का हर ओर धमाका।
घर घर में है धूम धड़ाका।।

सावन की नित नवल तरंगें।
मन में भरतीं मृदुल उमंगें ।।
छटा प्रकृति की है यह न्यारी।
'नमन' हृदय इस पर बलिहारी।।
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अरिल्ल छंद विधान -

अरिल्ल छंद 16 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है। यह संस्कारी जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। यह छंद भी पादाकुलक परिवार का ही एक छंद है। प्रति चरण चार चौकल के अतिरिक्त अरिल्ल छंद में चरणांत की बाध्यता है। यह चरणांत दो लघु (11) या यगण (1SS) का हो सकता है। इस प्रकार अरिल्ल छंद की मात्रा बाँट:- 4*3 211 या 4*2 3 1SS सिद्ध होती है। 3 1SS को 211 SS भी कर सकते हैं।

भानु कवि के छंद प्रभाकर में पादाकुलक छंद के प्रकरण में इससे मिलते जुलते कई छंदों की सोदाहरण व्याख्या की गयी है। यहाँ मैं अरिल्ल छंद से मिलता जुलता एक और छंद उदाहरण सहित प्रस्तुत कर रहा हूँ। ।

डिल्ला छंद विधान - डिल्ला छंद संस्कारी जाति का 16 मात्रिक छंद है। इसमें चार चौकल के अतिरिक्त चरणांत भगण (S11) से होना चाहिए।
अरिल्ल छंद में भी चरणांत में दो लघु मान्य हैं परंतु भगण की बाध्यता नहीं है। इस प्रकार डिल्ला छंद का हर चरण अरिल्ल छंद में भी मान्य रहता है परंतु अरिल्ल छंद के चरण का डिल्ला छंद का चरण होना आवश्यक नहीं। डिल्ला छंद की मात्रा बाँट:- 4*3 S11 है।

डिल्ला छंद 'सावन'


रिमझिम करता आया सावन।
रसिक जनों का मन हरषावन।।
उमड़ घुमड़ के छाये बादल।
विरहणियों को करते घायल।।

धरणी से फूटे नव अंकुर।
बोल रहें दादुर हों आतुर।।
महिना सावन का है पावन।
सबका प्यारा ये मनभावन।।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
14-06-22

Saturday, July 30, 2022

किशोर छंद "किशोर मुक्तक"

 किशोर छंद (मुक्तक - 1)

एक आसरो बचग्यो थारो, बालाजी।
बेगा आओ काम सिकारो, बालाजी।
जद जद भीड़ पड़ी भकताँ माँ, थे भाज्या।
दोराँ दिन सें आय उबारो, बालाजी।।

किशोर छंद (मुक्तक - 2)

भारी रोग निसड़्लो आयो, कोरोना,
सगलै जग मैं रुदन मचायो, कोरोना,
मिनखाँ नै मिनखाँ सै न्यारा, यो कीन्यो,
कुचमादी चीन्याँ रो जायो, कोरोना।
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किशोर छंद विधान -

किशोर छंद मूल रूप सें एक मात्रिक छंद है जिसमे चार पद समतुकांत होते हैं । प्रत्येक पद में 22 मात्राएँ होती हैं। यति 16 व 6 मात्राओं पर होती है। यदि तीसरे पद को भिन्न तुकांत कर दें तो यही 'किशोर मुक्तक' में परिवर्तित हो जाता है।

इसमें चरणांत मगण 222 से हो तो यह और भी सुंदर हो जाता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
5-11-17

Tuesday, July 26, 2022

मुक्तक "बचपन"

कहाँ बचपन सुहाना छोड़ आया।
वो खुल हँसना हँसाना छोड़ आया।
नहीं कुछ फ़िक्र तब होती थी मन में।
कहाँ आलम पुराना छोड़ आया।।

(1222 1222 122)
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हमको ये मालूम नहीं है, किस्मत हमरी क्यों फूटी है,
जीवन जीने की आशाएँ, बचपन से ही क्यों टूटी है,
सड़कों पर कागज हम बीनें, हँस कर के तुम पढ़ते लिखते,
बसने से ही पहले दुनिया, किसने हमरी यूँ लूटी है।

(22×4//22×4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-12-18

Tuesday, July 19, 2022

गिरिधारी छंद "दृढ़ संकल्प"

खुद पे रख यदि विश्वास चलो।
जग को जिस विध चाहो बदलो।।
निज पे अटल भरोसा जिसका।
यश गायन जग में हो उसका।।

मत राख जगत पे आस कभी।
फिर देख बनत हैं काम सभी।।
जग-आश्रय कब स्थायी रहता।
डिगता जब मन पीड़ा सहता।।

मन-चाह गगन के छोर छुए।
नहिं पूर्ण हृदय की आस हुए।।
मन कार्य करन में नाँहि लगे।
अरु कर्म-विरति के भाव जगे।।

हितकारक निज का संबल है।
पर-आश्रय नित ही दुर्बल है।।
मन में दृढ़ यदि संकल्प रहे।
सब वैभव सुख की धार बहे।।
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गिरिधारी छंद विधान -

"सनयास" अगर तू सूत्र रखे।
तब छंदस 'गिरिधारी' हरखे।।

"सनयास" = सगण, नगण, यगण, सगण।
112  111  122  112 = 12 वर्ण का वर्णिक छंद। चार चरण, दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
8-1-17

Wednesday, July 13, 2022

सुगम्य गीता (प्रथम अध्याय)

प्रथम अध्याय 

धर्म-क्षेत्र कुरुक्षेत्र में, रण-लोलुप एकत्र। 
मेरे अरु उस पाण्डु के, पुत्र किये क्या तत्र ।।१।।

सुन वाणी धृतराष्ट्र की, बोले संजय शांत। 
व्यास देव की दृष्टि से, पूरा कहूँ वृतांत।।२।। 

लख रिपु-दल का मोरचा, दुर्योधन मन भग्न। 
गुरु समीप जा ये कहे, वचन कुटिलता मग्न।।३।।
 
धृष्टद्युम्न को देखिए, खड़ा चमू ले घोर। 
योग्य शिष्य ये आपका, शत्रु-पुत्र मुँह जोर।।४।। 

चाप बड़े धारण किये, खड़े अनेकों वीर। 
अर्जुन भीम विराट से, द्रुपद युधिष्ठिर धीर।।५।। 

महारथी सात्यकि वहाँ, कुन्तिभोज रणधीर। 
पाण्डु-पौत्र सब श्रेष्ठ हैं, पुरजित शैव्य अधीर।।६।। 

अपने में भी कम नहीं, सबका लें संज्ञान। 
पुत्र सहित खुद आप हैं, गंगा-पुत्र महान।।७।। 

सोमदत्त का पुत्र है, कृपाचार्य राधेय। 
और अनेकों वीर हैं, मरना जिनका ध्येय।।८।।

सैना नायक भीष्म से, अजय हमारी सैन्य। 
बड़ बोले उस भीम से, शत्रु अवस्था दैन्य।।९।।

साथ पितामह का सभी, देवें उनको घेर। 
हर्षाने युवराज को, जगा वृद्ध तब शेर।।१०।।
 
शंख बजाया भीष्म ने, बाजे ढ़ोल मृदंग। 
हुआ भयंकर नाद तब, फड़कन लागे अंग।।११।। 

भीषण सुन ये नाद, शंख पाण्डवों के बजे। 
चहुँ दिशि था उन्माद, श्री गणेश हृषिकेश से।।१२।। सोरठा छंद

श्वेत अश्व से युक्त, रथ विशाल कपि केतु युत।। 
पाञ्चजन्य उन्मुक्त, फूंके माधव बैठ रथ।।१३।। सोरठा छंद

पौंड्र बजाया भीम ने, देवदत्त को पार्थ। 
माद्रि-पुत्र अरु ज्येष्ठ भी, शंख बजाए साथ।।१४।। 

उनके सभी महारथी, मिलके शंख बजाय। 
दहल उठे कौरव सभी, भू नभ में रव छाय।।१५।। 

लख कौरव के व्यूह को, बोला तब यूँ पार्थ। 
सैनाओं के मध्य में, रथ हाँको अब नाथ।।१६।। 

हाथों में गांडीव था, मुख से ये उद्गार। 
माधव उनको जान लूँ, करते जो प्रतिकार।।।१७।।
 
भलीभाँति देखूँ उन्हें, परखूँ उनका साज। 
कौन साधने आ गये, दुर्योधन का काज।।१८।। 

भीष्म द्रोण के सामने, झट रथ लाये नाथ। 
लख लो सब को ठीक से, जिनके लड़ना साथ।।१९।। 

आँखों में छाने लगे, सुनते ही माधव वचन। 
चाचा ताऊ भ्रात सब, दादा मामा अरु स्वजन।।२०।। उल्लाला छंद 

श्वसुर और आचार्य थे, पुत्र पौत्र अरु मित्र वर। 
बोले पार्थ विषाद से, अपनों को ही देख कर।।२१।। उल्लाला छंद

हाथ पैर फूलन लगे, देख स्वजन समुदाय। 
जीह्वा तालू से लगी, काँपे सारी काय।।२२।। 

हाथों से गांडीव भी, लगा सरकने मित्र। 
त्वचा बहुत ही जल रही, लगती दशा विचित्र।।२३।। 

लक्षण भी शुभ है नहीं, कारण से अनजाण। 
अपनों को ही मार कर, दिखे नहीं कल्याण।।२४।। 

भोग विजय सुख राज्य का, जीवन में क्या अर्थ। 
जिनके लिए अभीष्ट ये, माने वे ही व्यर्थ।।२५।। 

त्यजूं त्रिलोकी राज्य भी, इनके प्राण समक्ष। 
पृथ्वी के फिर राज्य का, क्यों हो मेरा लक्ष।।२६।। 

बन्धु आततायी अगर, लोभ वृत्ति में चूर। 
त्यज विवेक उनके सदृश, पाप करें क्यों क्रूर।।२७।। 

कुल-वध भीषण पाप है, वे इससे अनजान। 
समझदार हम क्यों न लें, समय रहत संज्ञान।।२८।। 

कुल-क्षय से कुल-धर्म का, सुना नाश है होता। 
धर्म-नाश फिर वंश में, पाप-बीज है बोता।।२९।। मुक्तामणि छंद

अच्युत पाप बिगाड़ता, नारी कुल की सारी। 
वर्ण संकरों को जने, तब ये दूषित नारी।।३०।। मुक्तामणि छंद

पिण्डदान अरु श्राद्ध से, संकर सदा विहीन। 
पितर अधोगति प्राप्त हों, धर्म सनातन क्षीन।।३१।। 

नर्क वास नर वे करें, जिनका धर्म विनष्ट। 
हाय समझ सब क्यों करें, घोर युद्ध का कष्ट।।३२।। 

शस्त्र-हीन उद्यम-रहित, लख वे देवें मार। 
समझ इसे कल्याणकर, करूँ मृत्यु स्वीकार।।३३।। 

राजन ऐसा बोल कर, चाप बाण वह छोड़। 
बैठा रथ के पृष्ठ में, रण से मुख को मोड़।।३४।। 

कृपण विकल लख मित्र तब, बोले कृष्ण मुरार। 
असमय में यह मोह क्यों, ये न आर्य आचार।।३५।। 

कीर्ति स्वर्ग भी ये न दे, तुच्छ हृदय की पीर। 
त्यज मन के दौर्बल्य को, उठो युद्ध कर वीर।।३६।। 

बोले विचलित पार्थ तब, किस विध हो ये युद्ध। 
भीष्म द्रोण हैं पूज्य वर, कैसे लड़ूँ विरुद्ध।।३७।। 

लहु-रंजीत इस राज्य से, भीख माँगना श्रेष्ठ। 
लोभ-प्राप्त को भोगने, क्यूँ मारूँ जो ज्येष्ठ।।३८।। 

युद्ध उचित है या नहीं, या जीतेगा कौन।
मार इन्हें जी क्या करूँ, प्रश्न सभी हैं मौन।।३९।। 

मूढ़ चित्त मैं हो रहा, मुझको दें उपदेश। 
शिष्य बना प्रभु सब हरें, कायर मन के क्लेश।।४०।। 

सुर-दुर्लभ यह राज्य भी, हरे न इंद्रिय-शोक। 
नाथ शरण ले लें मुझे, कातर दीन विलोक।।४१।। 

नहीं लड़ूँ कह कृष्ण से, हुआ मौन तब पार्थ। 
सौम्य हास्य धर तब कहे, तीन लोक के नाथ।।४२।। 

सुगम्य गीता इति प्रथम अध्याय 

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 5-4-2017 रामनवमी के शुभ दिन से प्रारम्भ और 10-4-2017 को 
समापन।


Sunday, July 10, 2022

गाथ छंद "वृक्ष-पीड़ा"

वृक्ष जीवन देते हैं।
नाहिं ये कुछ लेते हैं।
काट व्यर्थ इन्हें देते।
आह क्यों इनकी लेते।।

पेड़ को मत यूँ काटो।
भू न यूँ इन से पाटो।
पेड़ जीवन के दाता।
जोड़ लो इन से नाता।।

वृक्ष दुःख सदा बाँटे।
ये न हैं पथ के काँटे।
मानवों ठहरो थोड़ा।
क्यों इन्हें समझो रोड़ा।।

मूकता इनकी पीड़ा।
काटता तु उठा बीड़ा।
बुद्धि में जितने आगे।
स्वार्थ में उतने पागे।।
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गाथ छंद विधान -

सूत्र राच "रसोगागा"।
'गाथ' छंद मिले भागा।।

"रसोगागा" = रगण, सगण, गुरु गुरु  
212  112  22 = 8 वर्ण
चार चरण, दो दो समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
21-03-2017

Wednesday, July 6, 2022

छंदा सागर (प्रस्तावना)

"छंदा सागर" ग्रन्थ

(प्रस्तावना)

हिन्दी छंदों का संसार अत्यंत विशाल है। हिन्दी को अनेकानेक वर्ण वृत्त संस्कृत साहित्य से विरासत में मिले हुये हैं। फिर भक्ति कालीन, रीतिकालीन और अर्वाचीन कवियों ने कल आधारित अनेक नये नये मात्रिक छंदों का निर्माण किया है। समय के साथ साथ ग़ज़ल शैली में उच्चारण के आधार पर वाचिक स्वरूप में छंदों में काव्य सृजन का प्रचलन बढ़ा है। इस प्रकार आज के काव्य सृजकों के पास छंदों की विविधता की कोई कमी नहीं है। आज हमारे पास वर्णिक, मात्रिक और वाचिक रूप में छंदों का विशाल अक्षय कोष है।

मस्तिष्क में एक स्वभाविक सा प्रश्न उठता है कि हिन्दी साहित्य में आखिर इन तीनों स्वरूप के कितने या लगभग कितने छंद होंगे। छंदों के प्रमाणिक ग्रंथ "छंद प्रभाकर" में भानु कवि ने कुल 800 के आसपास वर्णिक और मात्रिक छंदों का सोदाहरण वर्णन किया है। और एक मोटे अनुमान के अनुसार लगभग इतने ही छंद और हो सकते हैं
जिनका नाम और पूर्ण विधान उपलब्ध हो। इस संख्या की तुलना में छंदों की कुल संख्या का उत्तर शायद अधिकांश साहित्य सृजकों की परिकल्पना से बाहर का हो। छंदों के प्राचीन आचार्यों के पिंगल ग्रंथों में कुल छंदों की गणना के सूत्र दिये हुये हैं।

कोई भी वर्ण या तो लघु होगा या दीर्घ होगा। तो एक वर्णी इकाई के दो भेद या छंद-प्रस्तार हुये। इसी प्रकार दो वर्णी इकाई के इसके दुगुने चार होंगे क्योंकि लघु के पश्चात लघु या दीर्घ जुड़ कर 11 या 12 तथा दीर्घ के पश्चात लघु या दीर्घ जुड़ कर 21 या 22 कुल चार छंद-प्रस्तार होंगे। इसी विधान से त्रिवर्णी गण के चार के दुगुने कुल आठ प्रस्तार संभव है और ये आठ प्रस्तार हमारे गण हैं जिन पर समस्त छंदों का संसार टिका है। इसी अनुसार:-
4 वर्ण के 8*2 =16 प्रस्तार
5 वर्ण के 16*2 =32 प्रस्तार
6 वर्ण के 32*2 =64 प्रस्तार
7 वर्ण के 64*2 =128 प्रस्तार
26 वर्ण के छंदों की प्रस्तार के नियम के अनुसार कुल संख्या होगी 6,71,08,864 प्रस्तार

एक वर्णी से लेकर 26 वर्णी तक के छंदों का योग करें तो यह संख्या होगी -
6,71,08,864*2-2 = 13,42,17,726

26 वर्ण तक के छंद सामान्य छंद में आते हैं तथा इससे अधिक के दण्डक छंद कहलाते हैं जो 48 वर्णों तक के मिलते हैं। उनके प्रस्तार की संख्या को छोड़ दें तो ही ठीक है। यह सब वर्णिक छंदों के प्रस्तार हैं।

इसी प्रकार मात्रिक छंदों के प्रस्तार हैं, जिनकी गणना 1,2,3,5,8,13,21,34 के क्रम में बढती है। मात्रिक छंद 32 मात्रा तक के सामान्य की श्रेणी में आते हैं तथा इससे अधिक के दण्डक की श्रेणी में आते हैं। इस विधान के अनुसार 32 मात्रा के मात्रिक छंदों के प्रस्तार की कुल संख्या 35,24,578 है। एक से 32 मात्रा के मात्रिक छंदों का कुल योग करोड़ से भी अधिक आयेगा।

अब आप स्वयं देखलें कि कुल छंदों की संख्या क्या है, कितने छंदों का नामकरण हो चुका है और सभी छंदों का कभी भी नामकरण संभव है क्या।
इन प्रस्तार के नियमों का विश्लेषण करने से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है कि वर्णिक और मात्रिक छंदों में लघु दीर्घ वर्णों का जो भी क्रम संभव है वह अपने आप में छंद है। छंद कहलाने के लिये किसी विशेष वर्ण-क्रम का होना छंद शास्त्र में कहीं भी निर्दिष्ट नहीं है। लघु दीर्घ का कोई भी क्रम 1 से 26 तक की वर्ण संख्या में सामान्य वर्णिक और 1 से 32 तक की मात्रा संख्या में सामान्य मात्रिक छंद कहलाता है। 

अब ऐसा कोई भी क्रम जिसका नामकरण नहीं हुआ है, प्रचलन में नहीं आया है उसे कवि लोग नाम दे कर, यति आदि सुनिश्चित कर, उसमें रचनाएँ लिख कर प्रचलन में लाते हैं और वह यदि प्रचलित हो गया तो कालांतर में नया छंद बन जाता है।

प्रस्तुत ग्रंथ में सैंकड़ों मात्रिक व वर्णिक छंदों की गहराई में उतरते हुये उन छंदों की संरचना के आधार पर उस छंद का ऐसा नामकरण किया गया है कि उस नाम में ही उस छंद का पूरा विधान छिपा है। नाम के एक एक अक्षर का विश्लेषण करने से छंद का पूरा विधान स्पष्ट हो जाएगा।

उदाहरणार्थ विधाता छंद एक बहु प्रचलित और लोकप्रिय छंद है। गणों के अनुसार इसकी संरचना यगण, रगण, तगण, मगण, यगण तथा गुरु वर्ण है। 
'यरातामायगा' राखो विधाता छंद को पाओ।

गण विधान के अनुसार विधाता छंद का सूत्र 'यरातामायगा' है जिसमें छंद की संरचना आबद्ध है। इस पुस्तक में जो अवधारणा मैं प्रस्तुत करने जा रहा हूँ उसके अनुसार विधाता छंद का नाम होगा "यीचा" जिसमें छंद का पूरा विधान छिपा है। 
साथ ही यीचा से यह भी पता चलता है कि इसे वर्णिक, मात्रिक या वाचिक किसी भी स्वरूप में लिख सकते हैं।

हिन्दी भाषा के छंदों के विशाल भंडार को एक गुलदस्ते में सजाकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना ही इस ग्रन्थ का उद्देश्य है। प्रस्तुत पुस्तक में छंदों के तीन वर्ग - वर्णिक, मात्रिक, वाचिक स्वरूप का संयोजन कर हर छंद की एक छंदा बना कर दी गयी है। इसीलिए इस ग्रन्थ का बहुत ही सार्थक नाम "छंदा-सागर" दिया गया है। छंदा एक परिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है किसी छंद विशेष के विधान का पूर्ण स्वरूप। छंदा से संबन्धित पाठ में इसकी विस्तृत विवेचना की गयी है। इस ग्रंथ की पाठ्य सामग्री विभिन्न पाठों में संकलित की गयी है।

किसी भी छंदा की संरचना के अनुसार नामकरण की प्रणाली हिन्दी के लिये बिल्कुल नयी है। जिसने भी कुछ प्रयास से इस पूरी प्रणाली को, अवधारणा को ठीक से समझ लिया है उसके सामने छंदा का नाम आते ही उस से संबन्धित छंद की संरचना का पूरा खाका आँखों के सामने छा जाएगा।

प्रारंभ में कुछ धैर्य की अपेक्षा है। पूरा विधान अपनी गण आधारित प्रणाली पर ही टिका हुआ है, इसलिये समझने में बहुत सरल है। बस थोड़े से धैर्य के साथ ग्रंथ को आद्यांत पढ़ने का है। छंद प्रेमी ग्रंथ से बिल्कुल भी निराश नहीं होंगे। उन्हें अनेकों नये नये मात्रिक व वर्णिक छंद प्राप्त होने वाले हैं। इस ग्रंथ में सैंकड़ों प्रचलित और ऐसे छंद मिलेंगे जिनका नामकरण हो चुका है और उससे कई गुणा अधिक ऐसे अनाम छंद मिलेंगे जिनकी संरचना का आधार प्रचलित छंदों की संरचना ही है। जिस भी छंद का नाम मेरे संज्ञान में आया है उस छंद का नाम उस की छंदा के नाम के साथ साथ कोष्ठक में दिया गया है।

इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि छंदा का नाम छोटा सा तथा स्मरण रखने योग्य हो। छंदा का नाम संरचना के आधार पर है अतः यह सार्थक शब्द हो ऐसा संभव नहीं है। जैसे 'यरातामायगा' कोई सार्थक शब्द नहीं है वैसे ही अभी तो 'यीचा' भी कोई सार्थक शब्द नहीं है। परन्तु यीचा नाम अपने लघुरूप के कारण याद रखने में अत्यंत सुगम है।

मेरा यह प्रयास आज के रचनाकारों, समालोचकों और प्रबुद्ध पाठकों के लिये कुछ भी सहायक सिद्ध होता है, उनका चित्त रंजन करने वाला होता है, उन्हें कुछ नवीनता प्रदान करता है तो मैं इसे सार्थक समझूँगा।

जहाँ तक मुझसे संभव हो सका है छंदों के मान्य विधान को ही प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है फिर भी  कोई त्रुटि या मतांतर हो तो पाठकगण मुझे संबोधित करने का अनुग्रह करें।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
01-01-2020

Tuesday, July 5, 2022

उड़ियाना छंद 'विरह'

क्यों री तू थमत नहीं, विरह की मथनिया।
मथत रही बार बार, हॄदय की मटकिया।।
सपने में नैन मिला, हँसत है सजनिया।
छलकावत जाय रही, नेह की गगरिया।।

गरज गरज बरस रही, श्यामली बदरिया।
झनकारै हृदय-तार, कड़क के बिजुरिया।।
ऐसे में कुहुक सुना, वैरन कोयलिया।
विकल करे कबहु मिले, सजनी दुलहनिया।।

तेरे बिन शुष्क हुई, जीवन की बगिया।
बेसुर में बाज रही, बैन की मुरलिया।।
सुनने को विकल श्रवण, तेरी पायलिया।
तेरी ही बाट लखे, सूनी ये कुटिया।।

विरहा की आग जले, कटत न अब रतिया।
रह रह मन उठत हूक, धड़कत है छतिया।।
'नमन' तुझे भेज रहा, अँसुवन लिख पतिया।
बेगी अब आय मिलो, सुन मन की बतिया।।
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उड़ियाना छंद विधान -

उड़ियाना छंद 22 मात्रा का सम मात्रिक छंद है। यह प्रति पद 22 मात्रा का छंद है। इस में 12,10 मात्रा पर यति विभाजन है। यति से पहले त्रिकल आवश्यक।

मात्रा बाँट :- 6+3+3, 6+1+1+2 (S) 

(त्रिकल के तीनों रूप (21, 12, 111) मान्य। अंत सदैव दीर्घ वर्ण से। चार पद, दो दो पद समतुकांत या चारों पद समतुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
14-03-18