Saturday, October 29, 2022

सुगम्य गीता (तृतीय अध्याय 'प्रथम भाग')

तृतीय अध्याय (भाग -१)

श्रेयस्कर यदि कर्म से, आप मानते ज्ञान। 
फिर क्यों झोंकें घोर रण, जो है कर्म प्रधान।।१।। 

समझ न पाया ठीक से, कर्म श्रेय या बुद्धि।
निश्चित कर प्रभु कीजिए, भ्रम से मन की शुद्धि।।२।। 

अर्जुन के सुन कर वचन, बोले श्री भगवान। 
दो निष्ठा संसार में, जिन्हें पुरातन जान।।३।। 

ज्ञानयोग से सांख्य की, हुवे साधना पार्थ। 
निष्ठा जुड़ती योग की, कर्मयोग के साथ।।४।। 

प्राप्त न हो निष्कर्मता, बिना कर्म प्रारम्भ। 
कर्म-त्याग नहिं सिद्धि दे, देवे हठ अरु दम्भ।।५।। 

कर्म रहित नहिं हो सके, मनुज किसी भी काल।
कर्म हेतु करता विवश, प्रकृति जनित गुण जाल।।६।। 

इन्द्रिन्ह हठ से रोक शठ, बैठे बगुले की तरह।
भोगे मन से जो विषय, मिथ्याचारी मूढ़ वह।।७।। उल्लाला 

वश में कर संकल्प से, सभी इन्द्रियाँ धैर्य धर।
कर्मेन्द्रिय से जो करे, कर्मयोग वह श्रेष्ठ नर।।८।। उल्लाला 

शास्त्र विहित कर्त्तव्य कर, यह अकर्म से श्रेष्ठ।
जीवन का निर्वाह भी, कर्म बिना न यथेष्ठ।।९।। 

यज्ञ हेतु नहिं कर्म जो, कर्म-बन्ध दे पार्थ। 
जग के नित कल्याण हित, यज्ञ-कर्म लो हाथ।।१०।। 

यज्ञ सहित रच कर प्रजा, ब्रह्मा रचे विधान। 
यज्ञ तुम्हें करते रहें, इच्छित भोग प्रदान।।११।। 

करो यज्ञ से देवता, सब विध तुम सन्तुष्ट। 
यूँ ही वे तुमको करें, धन वैभव से पुष्ट।।१२।। 

बढ़े परस्पर यज्ञ से, मेल जोल के भाव। 
इससे उन्नत सृष्टि हो, चहुँ दिशि होय उछाव।।१३।। 

यज्ञ-पुष्ट ये देवता, बिन माँगे सब देय। 
देव-अंश राखे बिना, भोगे वो नर हेय।।१४।। 

अंश सभी का राख जो, भोगे वह अघ-मुक्त। 
देह-पुष्टि स्वारथ पगी, सदा पाप से युक्त।।१५।। 

प्राणी उपजें अन्न से, बारिस से फिर अन्न। 
वर्षा होती यज्ञ से, यज्ञ कर्म-उत्पन्न।।१६।। 

कर्म सिद्ध हों वेद से, अक्षर-उद्भव वेद। 
अतः प्रतिष्ठित यज्ञ में, शाश्वत ब्रह्म अभेद।।१७।। 

चलें सभी इस भाँति, सृष्टि चक्र प्रचलित यही।
जरा न उनको शांति, भोगों में ही जो पड़े।।१८।।सोरठा 

छोड़ राग अरु द्वेष, अपने में ही तृप्त जो। 
करना कुछ नहिं शेष, आत्म-तुष्ट नर के लिए।।१९।।सोरठा छंद

कुछ न प्रयोजन कर्म में, आत्म-तुष्ट का पार्थ। 
नहीं प्राणियों में रहे, लेश मात्र का स्वार्थ।।२०।। 

अतः त्याग आसक्ति सब, सदा करो कर्त्तव्य। 
ऐसे ही नर श्रेष्ठ का, परम धाम गन्तव्य।।२१।। 

इति सुगम्य गीता तृतीय अध्याय (भाग - 1)

रचयिता
बासुदेव अग्रवाल नमन 


Friday, October 21, 2022

गोपाल छंद "वीर सावरकर"

 गोपाल छंद / भुजंगिनी छंद


सावरकर की कथा महान।
देश करे उनका गुणगान।।
सन अट्ठारह आठ व तीन।
दामोदर के पुत्र प्रवीन।।

बड़े हुए बिन सिर पर हाथ ।
मात पिता का मिला न साथ।।
बचपन से ही प्रखर विचार।
देश भक्ति का नशा सवार।।

मातृभूमि का रख कर बोध।
बुरी रीत का किये विरोध।।
किये विदेशी का प्रतिकार।
दिये स्वदेशी को अधिकार।।

अंग्रेजों के हुये विरुद्ध।
छेड़ कलम से बौद्धिक युद्ध।।
रुष्ट हुई गोरी सरकार।
मन में इनकी अवनति धार।।

अंडमान में दिया प्रवास।
आजीवन का जेल निवास।।
कैदी ये थे वहाँ छँटैल।
जीये कोल्हू के बन बैल।।

कविता दीवारों पर राच।
जेल बिताई रो, हँस, नाच।।
सैंतिस में छोड़ी जब जेल।
जाति वाद की यहाँ नकेल।।

अंध धारणा में सब लोग।
छुआछूत का कुत्सित रोग।।
किये देश में कई सुधार।
देश जाति हित जीवन वार।।

महासभा के बने प्रधान।
हिंदू में फूंके फिर जान।।
सन छाछठ में त्याग शरीर।
'नमन' अमर सावरकर वीर।।
***********

गोपाल छंद / भुजंगिनी छंद विधान -

गोपाल छंद जो भुजंगिनी छंद के नाम से भी जाना जाता है, 15 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है। यह तैथिक जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 15 मात्राओं की मात्रा बाँट:- अठकल + त्रिकल + 1S1 (जगण) है। त्रिकल में 21, 12 या 111 रख सकते हैं तथा अठकल में 4 4 या 3 3 2 रख सकते हैं। इस छंद का अंत जगण से होना अनिवार्य है। त्रिकल + 1S1 को 2 11 21 रूप में भी रख सकते हैं।



******************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
10-06-22

Monday, October 17, 2022

छंदा सागर (छंद के घटक "गुच्छक")

                       पाठ - 03

छंदा सागर ग्रन्थ 

(छंद के घटक "गुच्छक")

पिछले पाठ में हमने प्रथम घटक वर्ण के विषय में विस्तार से जाना। इस पाठ में हम दूसरे घटक गुच्छक के बारे में जानेंगे। जैसा कि नाम से स्पष्ट हो रहा है यह शब्द समूह का वाचक है। 

गुच्छक:- गुच्छक गणों के आधार पर तीन से छह लघु दीर्घ वर्णों का विशिष्ट समूह है। 8 गणों में वर्ण जुड़ कर गणक बनाते हैं। ये गण और गणक सम्मिलित रूप से गुच्छक कहलाते हैं। गुच्छक कहने से उसमें गण भी आ जातें हैं और गणक भी आ जाते हैं। इस प्रकार गुच्छक तीन से छह लघु दीर्घ वर्णों का विशिष्ट क्रम है जिसका संरचना के आधार पर एक नाम है तथा वर्ण संकेतक (ल, गा आदि) की तरह ही एक संकेतक है। छंदाओं के नामकरण में इसी संकेतक का प्रयोग है। इस पाठ में गणकों के नाम के रूप में कई नयी संज्ञायें एकाएक पाठकों के समक्ष आयेंगी। यदि किसी पाठक को वे कुछ उबाऊ लगें तो उनमें अधिक उलझने की आवश्यकता नहीं है। गणक की संरचना के आधार पर प्रत्येक गणक विशेष को एक संज्ञा दे दी गयी है जिनका आगे के पाठों में नगण्य सा प्रयोग है। पाठकों को केवल हर गुच्छक के संकेतक को समझना है। ये संकेतक ही समक्ष छंदाओं के नामकरण के आधार हैं।

"यमाताराजभानसलगा" सूत्र के अनुसार त्रिवर्णी 8 गण हैं। इन 8 गण में छह वर्णों के संयोजन से गणक बनते हैं। 8 गण में तीन गुर्वंत वर्ण युज्य के रूप में जुड़ कर 24 मूल गणक बनाते हैं। ये तीन वर्ण निम्न हैं - 
गुरु = 2
इलगा = 12
ईगागा = 22

गणक संकेतक:- गणक के संकेतक में गण के 8 वर्ण प्रयुक्त होते हैं जो क्रमशः य, म, त, र, ज, भ, न और स हैं। पर इन अक्षरों पर क्या मात्रा लगी हुई है, उसीसे गण और विभिन्न गणक की जानकारी मिलती है। जैसे मूल वर्णों में 'ई' कार से गुरु वर्ण तथा 'ऊ' कार से लघु वर्ण जुड़ता है वैसे ही विभिन्न मात्राओं से गणों में 3 गुर्वंत वर्ण (2, 12, 22) जुड़ते हैं।

इस पाठ में त्रीवर्णी 8 गण, गणों में तीन गुर्वंत वर्ण जुड़ उनसे बने 24 मूल गणक तथा साथ ही इन 8 गण और 24 गणों के अंत में लघु वर्ण जुड़ कर उनसे बने वृद्धि गणक की आगे तालिकाएँ दी जा रही हैं। साथ ही गण में ऊलल वर्ण 11 के संयोग की तालिका भी है।

विभिन्न मात्राओं का क्रमवार विवरण निम्न प्रकार से है।

1 - 'अ' तथा 'आ' की मात्रा से 8 गणों के संकेतक दिग्दर्शित किये जाते हैं। जिनका वर्ण विन्यास, संकेतक और गण का नाम निम्न तालिका में है।

122 = य, या = यगण
222 = म, मा = मगण
221 = त, ता = तगण
212 = र, रा = रगण
121 = ज, जा = जगण
211 = भ, भा = भगण
111 = न, ना = नगण
112 = स, सा = सगण

किसी भी छंदा के वर्ण विन्यास के आधार ये 8 गण हैं। इनका सम्यक ज्ञान किसी भी रचनाकार के लिये अत्यंत आवश्यक है। पिंगल शास्त्र के आचार्यों ने इसके लिये एक सूत्र दिया है जिसे प्रत्येक छंद साधक को स्मरण रखना चाहिए। सूत्र है - "यमाताराजभानसलगा"। जिस भी गण का वर्णिक विन्यास जानना हो उसके गणाक्षर और बाद के दो वर्ण का विन्यास देख लें। जगण का विन्यास जभान (121) से तुरंत जाना जा सकता है। सलगा तक 8 गण समाप्त हो जाते हैं। ल लघु का वाचक तथा गा गुरु का वाचक है। वर्ण के संकेत का परिचय पिछले पाठ में दे दिया गया है।

गणों से काव्य-रूप निखरे,
इन्हीं से छंद-शास्त्र पनपे,
गणों का सूत्र ये 'नमन' दे,
'यमी तीरेजु भानु सुलगे'।

यह छंद रूप में है और इस सूत्र को लिखने में इस नये छंद का अस्तित्व में आना भी अनायास हो गया। इस नये छंद को काव्य प्रेमी 'नमन' छंद से स्वीकार करें तो मेरे लिए अत्यंत हर्ष की बात होगी। 'यमी तीरेजु भानु सुलगे' अर्थात संध्या काल है और अस्ताचल जाते सूर्य की जल में झिलमिलाती रश्मियाँ यमी (यमुना) के तट से ऐसे लग रही हैं मानो सूर्य सुलग रहा हो। यह 10 वर्ण प्रति पद का छंद यगण, रगण, नगण, गुरु के विन्यास में है।

छंद रूप में दिये गये इस सूत्र को स्मरण रखना सुगम है। इससे भी प्रत्येक गण का विन्यास जाना जा सकता है।
****

2 - 'इ' तथा 'ई' की मात्रा गण में गुरु वर्ण = 2 जोड़ देती है। इस युज्य से प्राप्त 8 चतुष वर्णी गणक ईगक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

122+2 = 1222 = यि, यी = ईयग
222+2 = 2222 = मि, मी = ईमग
221+2 = 2212 = ति, ती = ईतग
212+2 = 2122 = रि, री = ईरग
121+2 = 1212 = जि, जी = ईजग
211+2 = 2112 = भि, भी = ईभग
111+2 = 1112 = नि, नी = ईनग
112+2 = 1122 = सि, सी = ईसग

(युग्म वर्ण की नामकरण की परंपरा के अनुसार ही गणक का नाम भी संरचना के अनुसार दिया गया है। 'ईगक' का अर्थ 'ई' कार से गणों में 'ग' यानी गुरु वर्ण जुड़ता है। इसी प्रकार ईयग आदि को समझें। ईयग का अर्थ यगण+गुरु = 1222 जो 'य' में 'ई' कार से दर्शाया जाता है।
****

3 - 'उ' और 'ऊ' की मात्रा गण में इलगा वर्ण  = 12 का संयोग कर देती है। इस युज्य से प्राप्त 8 पंच वर्णी गणक उलगक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

122+12 = 12212 = यु, यू = ऊयालग
222+12 = 22212 = मु, मू = ऊमालग
221+12 = 22112 = तु, तू = ऊतालग
212+12 = 21212 = रु, रू = ऊरालग
121+12 = 12112 = जु, जू = ऊजालग
211+12 = 21112 = भु, भू = ऊभालग
111+12 = 11112 = नु, नू = ऊनालग
112+12 = 11212 = सु, सू = ऊसालग
****

4 - 'ए' तथा 'ऐ' की मात्रा गण में ईगागा वर्ण = 22 का संयोग कर देती है। इस युज्य से प्राप्त 8 पंच वर्णी गणक एगागक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

122+22 = 12222 = ये = एयागग
222+22 = 22222 = मे = एमागग
221+22 = 22122 = ते = एतागग
212+22 = 21222 = रे = एरागग
121+22 = 12122 = जे = एजागग
211+22 = 21122 = भे = एभागग
111+22 = 11122 = ने = एनागग
112+22 = 11222 = से = एसागग
****

वृद्धि गणक:- मूल गणक का अंत गुरु से होता है क्योंकि ये गुर्वंत वर्ण के जुड़ने से निर्मित हैं। परंतु किसी भी गुरु वर्ण से अंत होनेवाली छंदा में अंत में लघु वर्ण की वृद्धि कर एक नयी छंदा बनायी जा सकती है। दोनों की लय में बड़ा अंतर आ जाता है। हिन्दी में ऐसे कई बहुप्रचलित छंद भी  हैं। जैसे लावणी छंद और आल्हा छंद। इस ग्रंथ में प्रायः छंदाओं की लघु वृद्धि की छंदा भी दी गयी हैं।
इस पाठ में अब तक हम 8 गण और 24 मूल गणक सीख चुके हैं।

वृद्धि गणक गण और मूल गणक में लघु वर्ण जुड़ने से बनते हैं। ऊपर हमने 8 गण और 24 मूल गणक की तालिकाओं का अवलोकन किया। लगभग सभी छंद साधक गणों से पहले से ही परिचित हैं। गणाक्षरों में अ, आ की मात्रा से गण का भान होना उनके लिए सामान्य है। इसी परंपरा को थोड़ा आगे बढाने से मूल गणकों के संकेतक का नक्शा भी पाठकों के मस्तिष्क में आसानी से अपनी पैठ जमा लेगा। स्वर क्रम में अकार के पश्चात ईकार, ऊकार और एकार है। गणाक्षर में ईकार से गण मेंं द्विमात्रिक 2 जुड़ता है, ऊकार से त्रिमात्रिक 12 जुड़ता है और एकार से चतुष् मात्रिक 22 जुड़ता है।

इन सब के वृद्धि गणक बनाने में हमें केवल इन्हीं मात्राओं पर अनुस्वार का प्रयोग कर देना है। इन सब की तालिकाएँ भी यहाँ संलग्न है तथा सब की विशिष्टता के लिए संज्ञा भी दी गयी है।

5 - 'अं' की मात्रा गण में लघु वर्ण = 1 का संयोग कर देती है। इस संयोग से प्राप्त 8 वृद्धि गणक अंलक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

1221 = यं, यल = अंयल
2221 = मं, मल = अंमल
2211 = तं, तल = अंतल
2121 = रं, रल = अंरल
1211 = जं, जल = अंजल
2111 = भं, भल = अंभल
1111 = नं, नल = अंनल
1121 = सं, सल = अंसल

(कई बार छंदाओं के उच्चारण की सुगमता के लिए अनुस्वार के स्थान पर गण संकेत में 'ल' जोड़ दिया जाता है। जैसे यं और यल एक ही है।)
*****

6 - 'ईं' की मात्रा ईगक गणक में लघु वर्ण = 1 का संयोग कर देती है। इसके अतिरिक्त यह गण में ऊगाल वर्ण = 21 का संयोग भी करती है। दोनों का अर्थ और स्वरूप एक ही है। इस संयोग से प्राप्त 8 वृद्धि गणक ईंगालक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

12221 = यीं, यिल = ईंयागल
22221 = मीं, मिल = ईंमागल
22121 = तीं, तिल = ईंतागल
21221 = रीं, रिल = ईंरागल
12121 = जीं, जिल = ईंजागल
21121 = भीं, भिल = ईंभागल
11121 = नीं, निल = ईंनागल
11221 = सीं, सिल = ईंसागल
*****

केवल लघु वर्ण ऐसा है जो गण के साथ साथ मूल गणक में भी जुड़ सकता है। ईगक गणक में लघु के जुड़ने से  इंगालक गणक बनते हैं। ईगक गणक में  गुरु वर्ण जुड़ा हुआ है। इसमें फिर लघु जुड़ने से 21 रूप बना जो कि ऊगाल वर्ण है। परंतु यह लघु वर्ण दो पंच वर्णी मूल गणक उलगक और एगागक में भी जुड़ता है। उलगक में 12 पहले ही जुड़ा हुआ है। इसमें लघु वृद्धि होने से 121 रूप बनता है जो कि जगण है। इसी प्रकार एगागक में 22 पहले ही जुड़ा हुआ है जिसमें लघु वृद्धि होने से 221 रूप बनता है जो कि तगण है। जगण और तगण दो ऐसे गण हैं जो दूसरे गण से युज्य के रूप में जुड़ कर वृद्धि गणक बना सकते हैं। युज्य के रूप में जगण ऊंलिल युज्य कहलाता है और इसका संकेतक लीं है। तगण ऐंगिल युज्य कहलाता है और इसका संकेतक गीं है। इनसे 16 वृद्धि गणक बनते हैं जो निम्न हैं।

7 - 'ऊं' की मात्रा उलगक गणक में लघु वर्ण = 1 का संयोग कर देती है। इस ऊंलिल युज्य के संयोग से प्राप्त 8 वृद्धि गणक ऊंलीलक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं। ये षट वर्णी गणक हैं।

122121 = यूं, युल = ऊंयालिल
222121 = मूं, मुल = ऊंमालिल
221121 = तूं, तुल = ऊंतालिल
212121 = रूं, रुल = ऊंरालिल
121121 = जूं, जुल = ऊंजालिल
211121 = भूं, भुल = ऊंभालिल
111121 = नूं, नुल = ऊंनालिल
112121 = सूं, सुल = ऊंसालिल
*****

8 - 'ऐं' की मात्रा एगागक गणक में लघु वर्ण = 1 का संयोग कर देती है। इस ऐंगिल युज्य के संयोग से प्राप्त 8 षट वर्णी वृद्धि गणक ऐंगीलक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

122221 = यैं, येल = ऐंयागिल
222221 = मैं, मेल= ऐंमागिल
221221 = तैं, तेल = ऐंतागिल
212221 = रैं, रेल = ऐंरागिल
121221 = जैं, जेल = ऐंजागिल
211221 = भैं, भेल = ऐंभागिल
111221 = नैं, नेल = ऐंनागिल
112221 = सैं, सेल = ऐंसागिल
*****

इन 8 तालिकाओं से हमें 8 गण और 24 मूल गणक के रूप में 32 गुच्छक प्राप्त हुये और इन सब के अंत में लघु वर्ण की वृद्धि करने से वृद्धि गणक के रूप में अन्य 32 गुच्छक प्राप्त हो गये।
अब गण में ऊलल वर्ण (11) का संयोग रह गया।यह लघ्वांत वर्ण विशिष्ट वर्ण है। वाचिक स्वरूप में ये दोनों लघु स्वतंत्र लघु की श्रेणी में आते हैं जो लघु रूप में एक शब्द में साथ साथ नहीं आ सकते। मात्रिक और वर्णिक स्वरूप में स्वतंत्र लघु जैसी कोई अवधारणा नहीं है। इन दोनों स्वरूप में ऊलल वर्ण के दोनों लघु सामान्य लघु के रूप में ही व्यवहृत होते हैं जो एक शब्द या दो शब्द में साथ साथ रह सकते हैं। मात्रिक स्वरूप में जैसे दीर्घ वर्ण को दो लघु के रूप में तोड़ा जा सकता है वैसे ऊलल वर्ण के दोनों लघु कभी भी दीर्घ में रूपांतरित नहीं हो सकते।

गण में ऊलल वर्ण का संयोग गणाक्षर में ओकार से प्रगट किया जाता है। इसकी तालिका निम्न है।

9 - अंत में 'ओ' की मात्रा गण में ऊलल वर्ण (11) का संयोग करती है। इस संयोग से प्राप्त 8 गणक ओलालक गणक कहलाते हैं जो निम्न हैं।

12211 = यो = ओयालल
22211 = मो = ओमालल
22111 = तो = ओतालल
21211 = रो = ओरालल
12111 = जो = ओजालल
21111 = भो = ओभालल
11111 = नो = ओनालल
11211 = सो = ओसालल
*****

इस प्रकार 8 गण, 24 मूल गणक, 32 वृद्धि गणक, 8 ओलालक गणक  मिल कर कुल 72 गुच्छक हैं जो समस्त छंदाओं के आधार हैं। जिन गुच्छक में दो से अधिक लघु एक साथ आये हैं उनमें वाचिक स्वरूप की छंदाएँ इस ग्रंथ में नहीं दी जा रही हैं, क्योंकि ऐसी छंदाओं में तीनों लघु का स्वतंत्र लघु के रूप में प्रयोग करना होगा। वाचिक में स्वतंत्र लघु की अवधारणा है जो 1 की संख्या से दर्शाया जाता है और दो से अधिक स्वतंत्र लघु साधारणतया एक साथ नहीं आते।  परन्तु मात्रिक और वर्णिक छंदाओं में स्वतंत्र लघु की अवधारणा नहीं है। इसके अतिरिक्त ऊंलीलक गणक जिनमें ली+ल (121) जुड़ा हुआ है और ऐंगीलक गणक जिनमें गी+ल (221) जुड़ा हुआ है, विशेष गणक हैं। गण में केवल वर्ण के संयोग से गणक बनते हैं। परन्तु लघु वृद्धि गण के साथ साथ मूल गणक की भी हो सकती है और इस विशेष छूट के कारण ही जगण और तगण युज्य के रूप में गण से जुड़ कर वृध्दि गणक बना सकते हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Thursday, October 13, 2022

करवाचौथ मुक्तक

 हरिगीतिका छंद वाचिक



त्योहार करवाचौथ का नारी का है प्यारा बड़ा,
इक चाँद दूजे चाँद को है देखने छत पे खड़ा,
लम्बी उमर इक चाँद माँगे वास्ते उस चाँद के,
जो चाँद उसकी जिंदगी के आसमाँ में है जड़ा।

हरिगीतिका छंद विधान - 

हरिगीतिका छंद चार पदों का एक सम-पद मात्रिक छंद है। प्रति पद 28 मात्राएँ होती हैं तथा यति 16 और 12 मात्राओं पर होती है। यति 14 और 14 मात्रा पर भी रखी जा सकती है।

इसकी भी लय गीतिका छंद वाली ही है तथा गीतिका छंद के प्राम्भ में गुरु वर्ण बढ़ा देने से हरिगीतिका छंद हो जाती है। गीतिका छंद के प्रारंभ में एक गुरु बढ़ा देने से इसका वर्ण विन्यास निम्न प्रकार से तय होता है।

2212  2212  2212  221S

चूँकि हरिगीतिका छंद एक मात्रिक छंद है अतः गुरु को आवश्यकतानुसार 2 लघु किया जा सकता है परंतु 5 वीं, 12 वीं, 19 वीं, 26 वीं मात्रा सदैव लघु होगी। अंत सदैव गुरु वर्ण से होता है। इसे 2 लघु नहीं किया जा सकता। चारों पद समतुकांत या 2-2 पद समतुकांत होते हैं।

इस छंद की धुन  "श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन" वाली है।

एक उदाहरण:-
मधुमास सावन की छटा का, आज भू पर जोर है।
मनमोद हरियाली धरा पर, छा गयी चहुँ ओर है।
जब से लगा सावन सुहाना, प्राणियों में चाव है।
चातक पपीहा मोर सब में, हर्ष का ही भाव है।।
(स्वरचित)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Tuesday, October 11, 2022

रचनाकार पत्रिका "विधा विशेषांक"

उड़ियाना छंद

"रचनाकार पत्रिका" के विधा विशेषांक जनवरी 2021 में प्रकाशित मेरी  रचना।



डाउन लोड लिंक:-

https://drive.google.com/file/d/1HAP29TimYShQropDhuTc_mYiV-1HxFMZ/view?usp=drivesdk


बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया 

Thursday, October 6, 2022

ग़ज़ल (हम जहाँ में किसी से कम तो नहीं)

बह्र:- 2122  1212  112/22

हम जहाँ में किसी से कम तो नहीं,
दब के रहने की ही कसम तो नहीं।

आँख दिखला के जीत लेंगे ये दिल,
ये कहीं आपका बहम तो नहीं।

हो भी सकता है इश्क़ जोर दिखा,
सोच भी ले ये वो सनम तो नहीं।

अम्न की बात गोलियों से करें,
आपका नेक ये कदम तो नहीं।

बात कर नफ़रतें मिटा जो सकें,
ऐसा भी आपमें है दम तो नहीं।

सोचिये, इतने बेक़रार हैं क्यों,
आपका ही दिया ये ग़म तो नहीं।

हर्फों से क्या 'नमन' रुला न सके,
इतनी कमजोर भी कलम तो नहीं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-06-19

Sunday, October 2, 2022

दोहा छंद "वयन सगाई अलंकार"

वयन सगाई अलंकार / वैण सगाई अलंकार

चारणी साहित्य मे दोहा छंद के कई विशिष्ट अलंकार हैं, उन्ही में सें एक वयन सगाई अलंकार (वैण सगाई अलंकार) है। दोहा छंद के हर चरण का प्रारंभिक व अंतिम शब्द एक ही वर्ण से प्रारंभ हो तो यह अलंकार सिद्ध होता है।

'चमके' मस्तक 'चन्द्रमा', 'सजे' कण्ठ पर 'सर्प'।
'नन्दीश्वर' तुमको 'नमन', 'दूर' करो सब 'दर्प'।।

'चंदा' तेरी 'चांदनी', 'हृदय' उठावे 'हूक'।
'सन्देशा' पिय को 'सुना', 'मत' रह वैरी 'मूक'।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Saturday, September 24, 2022

विविध मुक्तक -10

जिनको गले लगाया हमने, अक्सर गला दबाये वे।
जिनकी खुशियाँ लख हम पुलके, बारंबार रुलाये वे।
अच्छाई का सारा ठेका, हमने सर पर लाद लिया।
अपनी मक्कारी से लेकिन, बाज़ कभी ना आये वे।।

(लावणी छंद आधारित)
***   ***

इतनी क्यों बेरुखी दिखाओ तुम,
आँख से आँख तो मिलाओ तुम,
खुद की नज़रों से तो गिरा ही हूँ,,
अपनी नज़रों से मत गिराओ तुम।

(21221 212 22)
***  ***

मेरी उजड़ी ये दुनिया बसा कौन दे,
गुल महब्बत के इसमें खिला कौन दे,
तिश्नगी बढ़ रही सब समुंदर उधर,
बनके दरिया इसे अब बुझा कौन दे।

(212*4)
***  ***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-07-22

Sunday, September 18, 2022

छंदा सागर (छंद के घटक "वर्ण")

पाठ - 02


"छंदा सागर" ग्रन्थ

(छंद के घटक "वर्ण")

इस छंदा-सागर ग्रन्थ की रचना हिन्दी में प्रचलित वर्णिक, मात्रिक और वाचिक स्वरूप के छंदों को एक एक छंदा के रूप में पिरो कर आपके कर कमलों में प्रस्तुत करने के लिए की गयी है। छंदा वर्ण, गुच्छक और विभिन्न संकेतकों का एक विशिष्ट क्रम होती है जिसमें किसी एक छंद के पद की पूर्ण संरचना, मात्रा क्रम  और स्वरूप छिपा रहता है। छंद मात्राओं या वर्णों के विशिष्ट क्रम पर आधारित 2 से 6 पद की काव्यात्मक संरचना होती है। इस विशिष्ट क्रम के तीन घटक हैं जिनका नाम क्रमशः वर्ण, गुच्छक और छंदा दिया गया है। अब हम एक एक कर हर घटक का विस्तृत अध्ययन करेंगे। इस पाठ में हम प्रथम घटक 'वर्ण' का अध्ययन करने जा रहे हैं।

वर्ण :- हमारे इस विधान की लघुतम मूल इकाई 'वर्ण' के नाम से जानी जाती है। दो मूल वर्ण लघु और गुरु हैं जो कि एक वर्णी हैं तथा इनके मेल से हमें चार और द्विवर्णी वर्ण प्राप्त होते हैं। इस प्रकार इस नयी अवधारणा में कुल वर्ण 6 हैं।

अब आगे हम एक एक वर्ण का स्वरूप देखने जा रहे हैं :-

(1) लघु वर्ण: मात्रा =1; संकेत = ल या ला तथा 1 की संख्या।
अ, इ, उ, ऋ और इन स्वरों से युक्त समस्त व्यंजन और शब्द के आदि में आया संयुक्त वर्ण जैसे प्र स्व त्र क्ष आदि लघु मात्रिक होते हैं। जैसे - भृगु, तुम, रस में दोनों लघु हैं, प्रकृति, कमल में तीनों लघु हैं। अनुनासिक (चन्द्र बिंदु) से युक्त व्यंजन भी लघु होता है जैसे हँसना में हँ, मुँह में मुँ आदि।

(2) गुरु वर्ण: मात्रा = 2; संकेत = ग या गा तथा 2 की संख्या।
आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अनुस्वार और विसर्ग से युक्त समस्त व्यंजन गुरु होते हैं। संयुक्त वर्ण अपने आप में गुरु नहीं होता पर यह यदि शब्द के मध्य या अंत में हो तो इसके पूर्व का लघु गुरु हो जाता है या गुरु है तो गुरु ही रहता है। जैसे अस्त में अ, कक्ष में क, रिश्ता में रि, नाश्ता में ना आदि। इसके कुछ अपवाद भी हैं। अल्प प्राण वर्ण जो पाँच वर्ग के प्रथम और तृतीय अक्षर होते हैं उनमें 'ह' का संयोग होने से उनका महाप्राण रूप ख, घ, फ आदि के रूप में अलग वर्ण हैं जो वर्ग के द्वितीय और चतुर्थ अक्षर होते हैं। किंतु न, म और ल में ह का योग होने से अलग से अक्षर नहीं है। अतः लिखा तो न्ह, म्ह, ल्ह जाता है परन्तु शब्द में उसके पहले आये लघु को गुरुत्व प्राप्त नहीं होता जैसे तुम्हारा में तु, कन्हाई में क, मल्हार में म आदि। स में ह के योग के लिए श वर्ण है। य र में ह के योग का कोई शब्द ही नहीं है। इसमें भी उच्चारण के अनुसार कहीं कहीं अपवाद हैं। यो यौ से युक्त संयुक्त वर्ण से पहले आये लघु को भी गुरुत्व प्राप्त नहीं होता। जैसे कह्यो में क को सुन्यो में सु को।

वाचिक स्वरूप की छंदाओं में जब एक ही शब्द में दो लघु साथ साथ हों जैसे कि तुम, क-लश, मन-भा-वन आदि तो उन्हें गुरु वर्ण माना जाता है। इस उदाहरण में तुम, लश, मन, वन गुरु वर्ण हैं। इन्हें हम शास्वत दीर्घ कहते हैं। इन छंदाओं में यह शास्वत दीर्घ 2 स्वतंत्र लघु से भिन्न है। जैसे रूप छटा के प और छ दो स्वतंत्र लघु हैं जबकि पछताना में पछ मिलकर गुरु वर्ण है।

इन दो मूल वर्णों के संभावित योग से हमें 4 युग्म वर्ण प्राप्त होते हैं। मैने उनको भी वर्ण के अंतर्गत ही रखा है। उनका नामकरण भी उनकी संरचना के आधार पर ही किया गया है। ये चार युग्म वर्ण निम्न हैं:-

(3) इलगा वर्ण: मात्रा = 3; संकेत - लि या ली तथा 12- लघु वर्ण में गुरु वर्ण के संयोग से यह युग्म वर्ण बनता है। जैसे दया, कलश, खिला आदि। 

दो मूल वर्णों में गुरु वर्ण का संयोग उन वर्णों में 'ई' कार जोड़ के दर्शाया जाता है। जैसे लि, ली या गि, गी। 'इलगा' नाम में 'इ' संकेतक स्वर है तथा 'लगा' लघु गुरु वर्ण का द्योतक है।

(4) ईगागा वर्ण: मात्रा = 4; संकेत - गि या गी तथा 22- दो गुरु वर्ण का संयोग ईगागा वर्ण कहलाता है। यह युग्म वर्ण है। इसके उदाहरण हलचल, बरछी, पावन, कोई आदि हैं। यह दो शास्वत दीर्घ, शास्वत दीर्घ तथा गुरु, गुरु तथा शास्वत दीर्घ, या दो गुरु इन चार रूप में से किसी भी रूप में हो सकता है। वर्णिक स्वरूप में ईगागा वर्ण दो गुरु के रूप में रहता है, जैसे स्वामी, भाला आदि। वर्णिक में गुरु वर्ण को दो लघु में नहीं तोड़ा जा सकता।

(5) ऊलल वर्ण: मात्रा = 1+1; संकेत = लु या लू तथा 11-
'ऊलल' भी युग्म वर्ण है जो दो लघु के संयोग से बनता है। वाचिक स्वरूप की छंदाओं में ये दोनों लघु स्वतंत्र लघु होते हैं जो एक शब्द में साथ साथ नहीं हो सकते। एक शब्द में 2 लघु साथ होने से वह गुरु वर्ण माना जाता है जो शास्वत दीर्घ कहलाता है। एक शब्द में 'ऊलल' वर्ण तभी हो सकता है जब ऐसे एक या दोनों लघु की मात्रा, पतन के नियमों के अंतर्गत गिराई जाए। जैसे- हमें में ह और में को दो स्वतंत्र लघु के रूप में माना जा सकता है। बात बने' में त और ब स्वतंत्र लघु हैं और दोनों मिलकर 'ऊलल' वर्ण बनाते हैं; जबकि तब के यही त और ब मिलकर गुरु वर्ण है। मात्रिक और वर्णिक छंदों में स्वतंत्र लघु की अवधारणा नहीं है और इन छंदों में ऊलल वर्ण दो सामान्य लघु के रूप में ही प्रयुक्त होता है।

दो मूल वर्णों में लघु वर्ण का संयोग उन वर्णों में 'ऊ' कार जोड़ के दर्शाया जाता है। जैसे लु, लू या गु, गू। 'ऊलल' नाम में 'ऊ' संकेतक स्वर है तथा 'लल' दो लघु वर्ण का द्योतक है।

(6) ऊगाल वर्ण: मात्रा = 3; संकेत = गु या गू तथा 21- गुरु में लघु के संयोग से यह त्रिमात्रिक युग्म वर्ण बनता है। श्याम, राम, चन्द्र, भव्य, रात आदि इसके उदाहरण हैं।

संकेत के अनुसार वर्ण सारणी:-
ल, ला= 1 (लघु)
ग, गा = 2 (गुरु)
लि, ली = 12 (इलगा)
गि, गी = 22 (ईगागा)
लु, लू = 11 (ऊलल)
गु, गू = 21 (ऊगाल)

गुरु लघु की आदि और अंत की स्थिति के अनुसार वर्णों के चार भेद हैं। हर भेद में तीन तीन वर्ण हैं।
गुर्वादि वर्ण :- 2, 21, 22
लघ्वादि वर्ण :- 1, 11, 12
गुर्वंत वर्ण :- 2, 12, 22
लघ्वंत वर्ण :- 1, 11, 21

इस प्रकार कुल छह वर्णों में लघु और गुरु दो मूल वर्ण हैं तथा इन दोनों मूल वर्ण के संभावित संयोग से हमें चार द्वि वर्णी वर्ण प्राप्त होते हैं जो युग्म वर्ण कहलाते हैं। इनमें इलगा और ऊगाल दो वर्ण त्रिमात्रिक हैं। ये दोनों ही त्रिकल के अंतर्गत आते हैं जिसकी पूर्ण जानकारी कल आधारित पाठ में दी जायेगी। बाकी ऊलल में दो स्वतंत्र लघु हैं और ईगागा में दोनों गुरु वर्ण हैं। स्वतंत्र लघु की अवधारणा केवल वाचिक स्वरूप की छंदाओं में है। मात्रिक और वर्णिक में लघु सदैव सामान्य लघु रहते हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Monday, September 12, 2022

श्री साम्ब शिवार्पण मस्तु

रजनी   का   क्रूर विकट   क्रंदन
प्रतिपद      प्राणों का अवमंंदन
निर्देशक    कर     बैठा    मंचन।

नयनों    से       बहती  अश्रुधार
ज्वाला      की  लपटें   आरपार
सति का शव, शिव ने लिया धार।

मन  में  कौंधे   कुत्सित  विचार
माया   विमुग्ध, बनता    कहार
भावो   का  सरित, अजस्र धार।

मै   प्रलयंकर,     मैं   महाकाल
मैं रूद्र   परम्, मैं  प्रखर ज्वाल
मेरा   स्वरूप, क्रोधित   कराल।

मैं जगविजयी, मैं    जगकारण
मुझसे   डरते , सुर, नर, रावण
मैं    ही   सृष्टा, पालक,  तारण।

संरक्षित  यदि नहीं रही  सुसति
जग    देखे अब अपनी कुगति
फल  कैसी  पाती    है  कुमति।

तांडव  आतुर  अब   जगन्नाथ
प्रेतादिक  सब अब हुए   साथ
जग होना चाहे  अब    अनाथ।

ब्रह्मादिक  सुर  सब हुए  मौन
जगरक्षण, उतरे कहो    कौन
संस्तब्ध प्रकृति यह निखिल भौन।

हरि  ने  तब   एक  उपाय  किया
अतिलघु स्वरूप निज धार लिया
निज  चक्र सहित कटुघूँट   पिया।

उस समय   यज्ञभू डोल उठी
कुपित शिवा मुख खोल उठी
गणदल के हृदय हबोल उठी।

उस  समय वहाँ प्रलयानल  था
रण  आतुर   भूतों का दल  था
अज डरा, मनस में जो मल था।

भृगु   का सर मुंडित हुआ वहाँ
माता   का   घातक, दुष्ट  कहाँ
हर  और  मुंड  थे, यहाँ    वहाँ।

ब्रह्मा  का    शिर   ले  वीरभद्र 
रोये  और  नाचे, तनिक    मद्र
अब कौन  कहे  वे  सूक्त  भद्र।

भैरव  ने    नृत्य  कराल  किया
अज   माथहीन  तत्काल किया
पदतल अपने, वह भाल किया।

हर  ओर  मचा  था   कोलाहल
मानों दाहक  सा   खुला  गरल
बस त्राहि त्राहि कहता सुरदल। 

तब    विश्वंभर  विकराल  हुए
सब गण तत्क्षण नतभाल हुए
जब रक्षक   ही जगकाल  हुए। 

सब नष्ट भ्रष्ट कर  वह अध्वर
गूँजा वह क्रोधित  कटुकस्वर
अब सत्य करो, सब कुछ नश्वर। 

सति  अंग उठा    कर विश्वभंर
बढ़ चले, प्रबल   माया के स्वर
तारक  गण छोड़ चले  अंबर। 

पदतल   का  दुर्दम   घमघमाट
कुपित  कालिका    रक्त   चाट
शोणित सरिता के खड़ी  घाट। 

तब हरि ने अद्भुत किया कृत्य
देखा हर का वह प्रलय   नृत्य 
सति देह प्रविष्टित बने   भृत्य। 

शनै     शनै    कट  रहे   अंग
मानो   कटता  वह   मोहसंग
पार्थिव तन   होता  है  अनंग। 

पावन   वसुधा   होती  जाती
शक्तीपीठ, वर      से    पाती
जग को अद्भुत अनुपम थाती।

इक्कावन  अंग   विदेह   हुए
संबंध  तनिक से  खेह    हुए
अब शिथिल देह के स्नेह हुए।

मन में स्वात्म पद का परिचय
निर्भाव निरंतर     का   संचय
मिटता  जाता  है मोह  अमय।

शिव  के मन में उठते   विचार
कहती सति ही, निज रूप धार
प्रभु   क्षमा, यह   दुख  असार।

मैं   देह  नहीं, जो  छिन   जाऊँ
प्रिय   प्राणेश्वर, मैं   गुण   गाऊँ
फल नाथ, अवज्ञा  का     पाऊँ।

हे   आत्म  मेरे, मैं    सदा   संग
तन का  ही तो बस, हुआ  भंग
सादर अर्पित. पर, मनस   अंग।

तब   जाग उठा अद्भुत   विराग
माया   निद्रा  का    हुआ  त्याग
और जागे जगती     के  सुभाग।
*******************

उचित समयक्रम जान कर, हरि सम्मुख नत माथ।
कहा रोकिए यह प्रलय, माया प्रेरित नाथ।।

मेरी सति, कह रो पड़े, महाकाल योगीश।
विनय सहित कहने लगे, आप्त वचन जगदीश।।

सभी खेल प्रारब्ध के, संचित वा क्रियमाण।
होना ही था नाथ यह, निश्चित महाप्रयाण।।

पंचभूत मय देह का, अंत सुनिश्चित तात।
तव नियुक्त इस मृत्यु को, करना पड़ता घात।।

हे अनादि, इस शोक का, अब हो उपसंहार।
क्षमादान का दीजिए, हम सब को उपहार।।

यह सुन हो आत्मस्थ शिव, करने लगे विचार।
अरे, मोह का हो गया, कैसा आज प्रहार।।

शव तो शव है सति कहाँ, क्यों और कैसा मोह।
माया मुझ पर व्यापती, ज्यों सूरज पर कोह।।

भोले तत्क्षण हँस पड़े, बाजा डमरू नाद।
जय मायापति आपकी, हुआ सुखद संवाद।।

शेष देह को कर दिया, अग्न्यापर्ण शुभकृत्य।
देख ठठाकर हँस पड़े, भैरवादि सब भृत्य।।

भस्म हो रहे देह को, देख सोचते ईश।
सत्य जगत का है यही, पक्का बिस्वा बीस।।

यही सोच मलने लगे, निज अंगों पर खेह।
जगी परमशिव चेतना, जागे, हुए विदेह।।

भावमुग्ध गतक्षोभ अब, हुए सुखद शुभ शांत।
नृत्य मधुर करने लगे, लय थी अद्भुत कांत।।
******************

खेल रहे शिवशंकर होरी (गीत)


खेल रहे शिवशंकर होरी
भस्म गुलाल मले अंगहिँ, गणदल संग बहोरी।

चेत गई सब सुप्त चितायें, अगन बढ़ी घनघोरी।
तेहि महुँ ज्वालमाल से नाचें, देखो आज अघोरी।
खेल रहे शिवशंकर होरी।

विषय, काम, अरू क्रोध, भावना की जलती है होरी
भस्म उठाय कहे बाबाजी, सब प्रपंच झूठो री।
खेल रहे शिवशँकर होरी।

भूत प्रेत सब संग हो लिये, नागमुखी है कमोरी। 
विष की धार छूटती जिससे, अद्भुत रंग जम्यो री। 
खेल रहे शिवशंकर होरी। 

विष्णु मृदंग बजावन हारे, ध्रुवपद राग उठ्यो री।
ताल देत हैं ब्रह्मा संग में, नृत्यत नाथ, अहो री।।
खेल रहे शिवशंकर होरी। 
जो गावे यह शिव की होरी, ताँसों काम डर्यो री। 
दास गोबिंदो विनय करत है, जय जय नाथ अघोरी। 
खेल रहे शिवशंकर होरी।

    
          सुप्रभात पटल
        जय गोविंद शर्मा 
             लोसल

Sunday, September 11, 2022

सार छंद "रजनी"

सार छंद / ललितपद छंद

श्यामल अम्बर में सजधज के, लो रजनी भी आयी।
जगत स्वयंवर में जयमाला, तम की ये लहरायी।।
सन्ध्या ने अभिवादन करने, सुंदर थाल सजाया।
रक्तवर्ण परिधान पहन कर, मंगल स्वर बिखराया।।

सांध्य जलद भी हाथ बांधकर, खड़ा हुआ स्वागत को।
दबा रखा है अभिवादन की, वह अपनी चाहत को।।
सुंदर सन्ध्या का पाकर शुभ, गौरवपूर्ण निमन्त्रण।
प्राची से उतरी वह भू का, करने हेतु निरीक्षण।।

तारों भरी ओढ़ के चुनरी, मधुर यामिनी उतरी।
अंधकार की सैना ले कर, तेज भानु पर उभरी।।
प्यारा चंदा सजा रखा है, भाल तिलक में अपने।
विस्तृत नभ से आयी जग को, देने सुंदर सपने।।

निद्रा रानी के आँचल से, आच्छादित जग कर ली।
दिन भर की पीड़ा थकान की, सकल जीव से हर ली।।
निस्तब्धता घोर है छायी, रजनी का अब शासन।
जग समेट के कृष्ण वस्त्र में, निशा जमायी आसन।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
17-04-2016

Wednesday, September 7, 2022

सुगम्य गीता (द्वितीय अध्याय 'द्वितीय भाग')

द्वितीय अध्याय (भाग -२)

नष्ट न करे प्रयत्न ये, होय न कुछ प्रतिकूल। 
स्वल्प साधना बुद्धि की, हरे मृत्यु की शूल।।२६।। 

एक बुद्धि इस योग में, निश्चित हो कर रहती। 
अस्थिर मन में बुद्धि की, कई तरंगें बहती।।२७।। मुक्तामणि छंद

इच्छाओं में चूर जो, करके शास्त्र सहायी। 
कर्म करे ठहरा उचित, निम्न भोग फल दायी।।२८।। मुक्तामणि छंद

त्रिगुणाश्रित फल वेद दे, ऊँचा उठ तू पार्थ। 
चाह न कर अप्राप्य की, रहे प्राप्य कब साथ।।२९।। 

चित्त लगा उस नित्य में, जो जल-पूर्ण तड़ाग। 
गड्ढों से बाहर निकल, क्षुद्र कामना त्याग।।३०।। 

कर्म सदा अधिकार में, फल न तुम्हारे हाथ। 
त्यज तृष्णा फल-हेतु जो, त्यज न कर्म का साथ।।३१।। 

सफल-विफल में सम रहो, ये समता ही योग। 
योगास्थित हो कर्म कर, तृष्णा का त्यज रोग।।३२।। 

बुद्धि-योग बिन कर्म सब, निम्न कोटि के जान। 
आश्रय ढूँढो बुद्धि में, दीन फलाशा मान।।३३।। 

पाप-पुण्य के फेर से, बुद्धि-युक्त है मुक्त। 
समता से ही कर्म सब, होते कौशल युक्त।।३४।। 

बुद्धि मुक्त जब मोह के, होती झंझावात से। 
मानव मन न मलीन हो, सुनी सुनाई बात से।।३५।। उल्लाला छंद

कर्मों से फल प्राप्त जो, बुद्धि-युक्त त्यज कर उसे।
जन्म-मरण से मुक्त हो, परम धाम में जा बसे।।३६।। उल्लाला छंद

भाँति भाँति के सुन वचन, भ्रमित बुद्धि जो पार्थ।
थिर जब हो वह आत्म में, मिले योग का साथ।।३७।। 

क्या लक्षण, बोले, चले, बैठे जो थिर प्रज्ञ। 
चार प्रश्न सुन पार्थ के, बोले स्वामी यज्ञ।।३८।। 

मन की सारी कामना, त्यागे नर जिस काल। 
तुष्ट स्वयं में जो रहे, थिर-धी बिरला लाल।।३९।। 

सुख में कोउ न लालसा, दुःख न हो उद्विग्न। 
राग क्रोध भय मुक्त जो, वो नर थिर-धी मग्न।।४०।। 

स्नेह-रहित सर्वत्र जो, मिले शुभाशुभ कोय। 
प्रीत द्वेष उपजे नहीं, नर वो थिर-धी होय।।४१।। 

विषय-मुक्त कर इन्द्रियाँ, कच्छप जैसे अंग। 
हर्षित मन थिर-धी रहे, आशु-बुद्धि के संग।।४२।। 

इन्द्रिय संयम से भले, होते विषय निवृत्त, 
सूक्ष्म चाह फिर भी रहे, मिटे तत्त में चित्त।।४३।। 

बहुत बड़ी बलवान, पीड़ादायी इन्द्रियाँ। 
यत्नशील धीमान, का भी मन बल से हरे।।४४।। सोरठा छंद 

मेरे आश्रित बैठ, वश कर सारी इन्द्रियाँ। 
जिसकी मुझ में पैठ, थिर-मति जग उसको कहे।।४५।। सोरठा छंद

विषय-ध्यान आसक्ति दे, फिर ये बाढ़े कामना। 
पूर्ण कामना हो न जब, हुवे क्रोध से सामना।।४६।। उल्लाला छंद

मूढ़ चित्त हो क्रोध से, उससे स्मृति-भ्रम होय फिर।
बुद्धि-नाश भ्रम से हुवे, अंत पतन के गर्त गिर।।४७।। उल्लाला छंद

राग द्वेष से जो रहित, इन्द्रिय-जयी प्रवीन। 
विषय-भोग उपरांत भी, चिरानन्द में लीन।।४८।। 

धी-अयुक्त में भावना, का है सदा अभाव। 
शांति नहीं इससे मिले, मिटे न भव का दाव।।४९।। 

मन जिस इन्द्रिय में रमे, वही हरे फिर बुद्धि। 
उस अयुक्त की फिर कहो, किस विध मन की शुद्धि।।५०।। 

अतः महाबाहो उसे, थिर-धी नर तुम जान। 
जिसने अपनी इन्द्रियाँ, वश कर राखी ठान।।५१।। 

जो सबकी है रात, संयमी उस में जागे। 
जिसमें जागे लोग, निशा लख साधु न पागे।।५२।। रोला छंद 

सागर फिर भी शांत, समाती नदियाँ इतनी। 
निर्विकार त्यों युक्त, कामना घेरें जितनी।।५३।। रोला छंद

सभी कामना त्याग, अहम् अभिलाषा ममता।
विचरै जो स्वच्छंद, शांति अरु पाता समता।।५४।। रोला छंद 

ये ब्राह्मी स्थिति पार्थ, पाय नर हो न विमोहित। 
सफल करे वो अंत, ब्रह्म में होय समाहित।।५५।। रोला छंद 

सुगम्य गीता इति द्वितीय अध्याय (भाग -२)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 14-4-2017 से प्रारम्भ और 17 -4-2017 को समापन)



Saturday, September 3, 2022

गंग छंद "गंग धार"

गंग छंद

गंग की धारा।
सर्व अघ हारा।।
शिव शीश सोहे।
जगत जन मोहे।।

पावनी गंगा।
करे तन चंगा।।
नदी वरदानी।
सरित-पटरानी।।

तट पे बसे हैं।
तीरथ सजे हैं।।
हरिद्वार काशी।
सब पाप नाशी।।

ऋषिकेश शोभा।
हृदय की लोभा।।
भक्त गण आते।
भाग्य सरहाते।।

तीर पर आ के।
मस्तक झुका के।।
पितरगण  सेते।
जलांजलि देते।।

मंदाकिनी माँ।
अघनाशिनी माँ।।
भव की तु तारा।
'नमन' शत बारा।।
***********

गंग छंद विधान -

गंग छंद 9 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है जिसका अंत गुरु गुरु (SS) से होना आवश्यक है। यह आँक जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 9 मात्राओं का विन्यास पंचकल + दो गुरु वर्ण (SS) हैं। पंचकल की निम्न संभावनाएँ हैं :-

122
212
221
(2 को 11 में तोड़ सकते हैं, पर अंत सदैव दो गुरु (SS) से होना चाहिए।)
******************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
25-05-22

Friday, August 26, 2022

सुगम्य गीता (द्वितीय अध्याय 'प्रथम भाग')

 द्वितीय अध्याय (भाग -१)

मृत या मरणासन्न पर, आह नहीं पण्डित भरे।
शोक-योग्य दोनों नहीं, बात ज्ञानियों सी करे।।१।।
उल्लाला छंद

तुम मैं या ये भूप सब, वर्तमान हर काल में। 
रहने वाले ये सदा, आगे भी हर हाल में।।२।। उल्लाला छंद

तीन अवस्था देह को, जैसे होती प्राप्त। 
देही को तन त्यों मिले, मोह हृदय क्यों व्याप्त।।३।। 

आते जाते ही रहें, विषयों के संयोग। 
सहन करो सम भाव से, सुख-दुख योग-वियोग।।४।। 

सुख-दुख में जो सम रहे, होय विषय निर्लिप्त।
पार करे आवागमन, मोक्ष-अमिय से तृप्त।।५।। 

सत की सत्ता सर्वदा, असत न स्थाई होय। 
तत्त्वों के इस सार को, सके न लख हर कोय।।६।। 

अविनाशी उसको समझ, जिससे यह सब व्याप्त।
शाश्वत अव्यय नाश को, कभी न होता प्राप्त।।७।। 

परे प्रमाणों से सखा, आत्म तत्त्व को जान। 
देह असत सत आतमा, करो युद्ध मन ठान।।८।। 

मरे न ये मारे कभी, षट छूये न विकार। 
नित शाश्वत अज अरु अमर, इसको सदा विचार।।९।। 

नये वस्त्र पहने यथा, लोग पुराने छोड़। 
देही नव तन से तथा, नाता लेता जोड़।।१०।। 

कटे नहीं ये शस्त्र से, जला न सकती आग। 
शुष्क पवन से ये न हो, जल की लगे न लाग।।११।। 

शोक करो तुम त्यक्त, इस विध लख इस आत्म को। 
अविकारी अव्यक्त, चिंतन पार न पा सके।।१२।। सोरठा छंद

मन में लो यदि धार, जन्म मरण धर्मी इसे। 
फिर भी करो विचार, शोभनीय क्या शोक यह।।१३।। सोरठा छंद

जन्म बाद मरना अटल, पुनर्जन्म त्यों जान। 
मान इसे त्यज शोक को, नर-वश ये न विधान।।१४।। 

प्रकट न ये नृप आदि में, केवल अभी समक्ष।
होने वाले लुप्त ये, फिर क्यों भीगे अक्ष।।१५।। 

कहे सुने देखे इसे, ज्ञानी अचरज मान। 
सुन कर भी कुछ मोह में, इसे न पाये जान।।१६।। 

आत्म तत्त्व हर देह का, नित अवध्य है पार्थ। 
मोह त्याग निर्द्वन्द्व हो, कैसा नाता स्वार्थ।।१७।। 

क्षत्रिय का सबसे बड़ा, धर्म-युद्ध है कर्म। 
धर्म दुहाई व्यर्थ है, युद्ध तुम्हारा धर्म।।१८।। 

भाग्यवान तुम हो बड़े, स्वयं मिला जो युद्ध। 
स्वर्ग-द्वार को मोह से, करो न तुम अवरुद्ध।।१९।। 

युद्ध-विमुखता पार्थ ये, करे कीर्ति का नाश। 
क्षात्र-धर्म के त्याग से, मिले पाप की पाश।।२०।। 

अर्जित तूने कर रखा, जग में नाम महान। 
होगी जब आलोचना, नहीं रहे वो मान।।२१।। 

रण-कौशल तेरा रहा, सदा सूर्य सा दिप्त। 
उसमें ग्रहण लगा रहे, भय में हो कर लिप्त।।२२।। 

मृत्यु मिले या जय मिले, उभय लाभ के काज।
एक स्वर्ग दे दूसरा, भू मण्डल का राज।।२३।। 

हार-जीत सुख-दुःख को, एक बराबर मान। 
युद्ध करो सब त्याग कर, पाप पुण्य का भान।।२४।। 

आत्मिक विषयक सांख्य का, अबतक दीन्हा ज्ञान। 
बुद्धि-योग अब दे तुझे, कर्म-बन्ध से त्रान।।२५।। 

सुगम्य गीता इति द्वितीय अध्याय (भाग -१)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' तिनसुकिया (दिनांक 11-4-2017 से प्रारम्भ और 14 -4-2017 को समापन)


Monday, August 22, 2022

32 मात्रिक छंद "शारदा वंदना"

कलुष हृदय में वास बना माँ,
श्वेत पद्म सा निर्मल कर दो ।
शुभ्र ज्योत्स्ना छिटका उसमें,
अपने जैसा उज्ज्वल कर दो ।।

शुभ्र रूपिणी शुभ्र भाव से,
मेरा हृदय पटल माँ भर दो ।
वीण-वादिनी स्वर लहरी से,
मेरा कण्ठ स्वरिल माँ कर दो ।।

मन उपवन में हे माँ मेरे,
कविता पुष्प प्रस्फुटित होंवे ।
मन में मेरे नव भावों के,
अंकुर सदा अंकुरित होंवे ।।

माँ जनहित की पावन सौरभ,
मेरे काव्य कुसुम में भर दो ।
करूँ काव्य रचना से जग-हित,
'नमन' शारदे ऐसा वर दो ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
08-05-2016