Sunday, February 5, 2023

छंदा सागर (वृत्त-छंदाएँ)

                         पाठ - 07


छंदा सागर ग्रन्थ


"वृत्त-छंदाएँ"


द्वितीय पाठ में हमारा वर्ण, तृतीय पाठ में गुच्छक और चतुर्थ पाठ में विभिन्न संकेतकों से परिचय हो चुका है। अब सर्वप्रथम हम वृत्त छंदाओं की संरचना से छंदाओं के विस्तृत संसार में प्रवेश करने जा रहे हैं।

वैसे तो कुल 72 गुच्छक हैं जिनकी संरचना हम तृतीय पाठ में देख चुके हैं पर इस पाठ में 21 गुच्छक की वृत्त छंदाएँ दी हुई हैं। जिन गुच्छक के अंत में गुरु वर्ण है केवल उन्हीं गुच्छक की वृत्त छंदाएँ यहाँ पर हैं। केवल गुरु वर्णों से बने दो गुच्छक ईमग (2222) और मगण (222) के लिये गुरु-छंदा के नाम से अलग से पाठ संकलित किया गया है। इसके अतिरिक्त जिन गुच्छक में 2 से अधिक लघु एक साथ हैं उन गुच्छक की छंदाएँ भी इस पाठ में नहीं दी गई हैं।

4, 6, 8 आवृत्ति की छंदाओं की मध्य यति की छंदाएँ अलग से दी गई हैं।

इस पाठ में हर गुच्छक की सर्वप्रथम वाचिक स्वरूप की छंदा दी गई है, तत्पश्चात मात्रिक स्वरूप की तथा अंत में वर्णिक स्वरूप की छंदा दी गई है। कोष्टक में छंद का प्रचलित नाम है।सर्वप्रथम गुच्छक का संकेतक है, इसके बाद संख्यावाचक संकेतक फिर स्वरूप संकेतक। वाचिक का संकेतक या तो विलुप्त है अथवा 'क' या 'का' है। मात्रिक का संकेतक 'ण' वर्ण है तथा वर्णिक का संकेतक 'व' वर्ण है। 'ध' या 'धा' संकेतक आवृत्ति सहित गुच्छक का मध्य यति के साथ दोहरे रूप का सूचक है।

त्रिवर्णी (गण) की वृत्त छंदाएँ:- (किसी भी छंदा में कम से कम चार वर्ण होने आवश्यक हैं अतः गणों की एक आवृत्ति की छंदाएँ नहीं हैं।)

(1) 122 (यगण)

    (a) 122*2 = यादा, यादण, यादव (सोमराजी/शंखनारी/शंखनादी छंद)
122*2 + 1 = यादल, यदलण, यदलव
1221*2 = यंदा, यंदण, यंदव।
(गण संकेतक में अनुस्वार अंत में लघु की वृद्धि कर देता है। )

    (b) 122*3 = याबा, याबण, याबव (बृहत्य छंद)
122*3 + 1 = याबल, यबलण, यबलव
1221*3 = यंबा, यंबण, यंबव।

    (c) 122*4 = याचा, याचण, याचव (भुजंगप्रयात छंद)
122*4 + 1 = याचल, यचलण, यचलव
1221*4 = यंचा, यंचण, यंचव।

    (d) 122*2, 122*2 = यादध, यदधण, यदधव। (याचा से इसका अंतर समझें।)
122*2, 122*2 + 1 = यदधल, यादधलण, यादधलव
122*2 + 1, 122*2 + 1 = यदलध, यादलधण, यादलधव। ('ध' संकेतक 'यादल' को यति सहित द्विगुणित कर रहा है।) 
1221*2, 1221*2 = यंदध, यंदाधण, यंदाधव। 

    (e) 122*3, 122*3 = याबध, यबधण, यबधव (चन्द्रक्रीड़ा छंद)।
122*3, 122*3 + 1 = यबधल, याबधलण, याबधलव
122*3 + 1, 122*3 + 1 = यबलध, याबलधण, याबलधव।

    (f) 122*4, 122*4 = याचध, यचधण, यचधव (महाभुजंगप्रयात छंद)।
122*4, 122*4 + 1 = यचधल, याचधलण, याचधलव
122*4 + 1, 122*4 + 1 = यचलध, याचलधण, याचलधव।

   (g) 122*6 = याटव (महामोदकारी/क्रीड़ाचक्र छंद)
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(2) 212 (रगण)
    (a) 212*2 = रादा, रादण, रादव (विमोहा/विजोहा छंद)
212*2 + 1 = रादल, रदलण, रदलव।
2121*2 = रंदा, रंदण, रंदव (मल्लिका छंद)

    (b) 212*3 = राबा, राबण, राबव (महालक्ष्मी छंद)
212*3 + 1 = राबल, रबलण, रबलव।
2121*3 = रंबा, रंबण, रंबव।

    (c) 212*4 = राचा, राचण (कामिनीमोहन/ मदनावतार छंद), राचव (स्त्रग्विणी/लक्ष्मीधर छंद)
212*4 + 1 = राचल, रचलण, रचलव।
2121*4 = रंचा, रंचण, रंचव (ब्रह्मरूपक/चंचला छंद)

    (d) 212*2, 212*2 = रादध, रदधण, रदधव।
212*2, 212*2 + 1 = रदधल, रादधलण, रादधलव
212*2 + 1, 212*2 + 1 = रदलध, रादलधण, रादलधव। ('ध' संकेतक 'रादल' को यति सहित द्विगुणित कर रहा है।)
2121*2, 2121*2 = रंदध, रंदाधण, रंदाधव। 

    (e) 212*3, 212*3 = राबध, रबधण, रबधव (मंदार छंद)।
212*3, 212*3 + 1 = रबधल, राबधलण, राबधलव
212*3 + 1, 212*3 + 1 = रबलध, राबलधण, राबलधव।

    (f) 212*4, 212*4 = राचध, रचधण, रचधव।
212*4, 212*4 + 1 = रचधल, राचधलण, राचधलव
212*4 + 1, 212*4 + 1 = रचलध, राचलधण, राचलधव।

   (g) 212*5 = रापव (इंदीवर छंद)
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(3) 112 (सगण)
    (a) 112*2 = सादा, सादण, सादव (तिलका छंद)
112*2 + 1 = सादल, सदलण, सदलव।
1121*2 = 'संदव' केवल वर्णिक में।

    (b) 112*3 = साबा, साबण, साबव
112*3 + 1 = साबल, सबलण, सबलव।
1121*3 = 'संबव' केवल वर्णिक में।

    (c) 112*4 = साचा, साचण, साचव (तोटक छंद)
112*4 + 1 = साचल, सचलण, सचलव
1121*4 = 'संचव' केवल वर्णिक में।

    (d) 112*2, 112*2 = सादध, सदधण, सदधव
112*2, 112*2 + 1 = सदधल, सादधलण, सादधलव
112*2 + 1, 112*2 + 1= सदलध, सादलधण, सादलधव।

    (e) 112*3, 112*3 = साबध, सबधण, सबधव (विचित्रपद छंद)
112*3, 112*3 + 1 = सबधल, साबधलण, साबधलव
112*3 + 1, 112*3 + 1= सबलध, साबलधण, साबलधव।

    (f) 112*4, 112*4 = साचध, सचधण सचधव
112*4, 112*4 + 1 = सचधल, साचधलण, साचधलव
112*4 + 1, 112*4 + 1= सचलध, साचलधण, साचलधव।

     (g) 112*5 = सापव (भ्रमरावलि/नलिनी छंद)

(112*2 का वाचिक में उच्चारण के अनुसार 1121  12 रूप है।)
(112*3 का वाचिक मेंउच्चारण के अनुसार 1121  121  12 रूप है।)

ऐसे ही अन्य में समझें।
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चतुष वर्णी गणक (ईगक गणक) की वृत्त छंदाएँ:-

(4) 2212 (ईतग गणक)
    (a) 2212*1 = तीका, तीकण, तीकव (धरा छंद)
22121 = तींका, तींकण (मधुभार छंद), तींकव (छवि छंद)

    (b) 2212*2 = तीदा, तीदण (मधुमालती छंद)), तीदव
2212*2 + 1 = तीदल, तीदालण, तीदालव
22121*2 = तींदा, तींदण, तींदव

    (c) 2212*3 = तीबा, तीबण, तीबव
2212*3 + 1 = तीबल, तीबालण, तीबालव
22121*3 = तींबा, तींबण, तींबव

    (d) 2212*4 = तीचा, तीचण (हरिगीतिका छंद), तीचव
2212*4 + 1 = तीचल, तीचालण, तीचालव
22121*4 = तींचा, तींचण, तींचव

    (e) 2212*2, 2212*2 = तीदध, तीदाधण, तीदाधव।
2212*2, 2212*2 + 1 = तीदाधल, तीदधलण, तीदधलव
2212*2 + 1, 2212*2 + 1= तीदालध, तीदलधण, तीदलधव
22121*2, 22121*2 = तींदध, तींदाधण, तींदाधव। 
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(5) 2122 (ईरग गणक)
    (a) 2122*1 = रीका, रीकण, रीकव (रंगी छंद)
21221 = रींका, रींकण, रींकव

    (b) 2122*2 = रीदा, रीदण (मनोरम छंद), रीदव
2122*2 + 1 = रीदल, रीदालण, रीदालव
21221*2 = रींदा, रींदण, रींदव

    (c) 2122*3 = रीबा, रीबण, रीबव
2122*3 + 1 = रीबल, रीबालण, रीबालव
21221*3 = रींबा, रींबण, रींबव

    (d) 2122*4 = रीचा, रीचण (माधव मालती), रीचव
2122*4 + 1 = रीचल, रीचालण, रीचालव
21221*4 = रींचा, रींचण, रींचव

    (e) 2122*2, 2122*2 = रीदध, रीदाधण, रीदाधव।
2122*2, 2122*2 + 1 = रीदाधल, रीदधलण, रीदधलव
2122*2 + 1, 2122*2 + 1= रीदालध, रीदलधण, रीदलधव
21221*2, 21221*2 = रींदध, रींदाधण, रींदाधव। 
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(6) 2112 (ईभग गणक)
    (a) 2112*1 = भीका, भीकण, भीकव (कला छंद)
21121 = भींका, भींकण, भींकव

    (b) 2112*2 = भीदा, भीदण, भीदव (माणवक छंद)
2112*2 + 1 = भीदल, भीदालण, भीदालव
21121*2 = भींदा, भींदण, भींदव

    (c) 2112*3 = भीबा, भीबण, भीबव
2112*3 + 1 = भीबल, भीबालण, भीबालव
21121*3 = भींबा, भींबण, भींबव

    (d) 2112*4 = भीचा, भीचण, भीचव (सारस छंद)
2112*4 + 1 = भीचल, भीचालण, भीचालव
21121*4 = भींचा, भींचण, भींचव

    (e) 2112*2, 2112*2 = भीदध, भीदाधण (सारस छंद), भीदाधव।
2112*2, 2112*2 + 1 = भीदाधल, भीदधलण, भीदधलव
2112*2 + 1, 2112*2 + 1= भीदालध, भीदलधण, भीदलधव

(2112*4 का उच्चारण के अनुसार 21  1221*3  12 रूप है। अन्य में भी इसी प्रकार समझें।)
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(7) 1222 (ईयग गणक)
    (a) 1222*1 = यीका, यीकण, यीकव (क्रीड़ा छंद)
12221 = यींका, यींकण, यींकव (मधुभार छंद)

    (b) 1222*2 = यीदा, यीदण (विजात छंद), यीदव
1222*2 + 1 = यीदल, यीदालण, यीदालव
12221*2 = यींदा, यींदण, यींदव

    (c) 1222*3 = यीबा, यीबण (सिन्धु छंद), यीबव
1222*3 + 1 = यीबल, यीबालण, यीबालव
12221*3 = यींबा, यींबण, यींबव

    (d) 1222*4 = यीचा, यीचण (विधाता छंद), यीचव
1222*4 + 1 = यीचल, यीचालण, यीचालव
12221*4 = यींचा, यींचण, यींचव

    (e) 1222*2, 1222*2 = यीदध, यीदाधण, यीदाधव।
1222*2, 1222*2 + 1 = यीदाधल, यीदधलण, यीदधलव
1222*2 + 1, 1222*2 + 1= यीदालध, यीदलधण, यीदलधव
12221*2, 12221*2 = यींदध, यींदाधण, यींदाधव। 
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(8) 1212 (ईजग गणक)
    (a) 1212*1 = जीका, जीकण, जीकव (सुधी छंद)
12121 = जींका, जींकण, जींकव

    (b) 1212*2 = जीदा, जीदण, जीदव (प्रमाणिका छंद)
1212*2 + 1 = जीदल, जीदालण, जीदालव (भालचंद्र छंद)
12121*2 = जींदा, जींदण, जींदव

    (c) 1212*3 = जीबा, जीबण, जीबव
1212*3 + 1 = जीबल, जीबालण, जीबालव
12121*3 = जींबा, जींबण, जींबव

    (d) 1212*4 = जीचा, जीचण, जीचव
1212*4 + 1 = जीचल, जीचालण, जीचालव
12121*4 = जींचा, जींचण, जींचव

    (e) 1212*2, 1212*2 = जीदध, जीदाधण, जीदाधव (पंचचामर/नराच/नागराज छंद)
1212*2, 1212*2 + 1 = जीदाधल, जीदधलण, जीदधलव
1212*2 + 1, 1212*2 + 1= जीदालध, जीदलधण, जीदलधव

    (f) 1212*3, 1212*3 = जीबध, जीबाधण, जीबाधव।
1212*3, 1212*3 + 1 = जीबाधल, जीबधलण, जीबधलव
1212*3 + 1, 1212*3 + 1= जीबालध, जीबलधण, जीबलधव

    (g) 1212*4, 1212*4 = जीचध, जीचाधण, जीचाधव
1212*8 = जीठव (अनंगशेखर छंद)
1212*4, 1212*4 + 1 = जीचाधल, जीचधलण, जीचधलव
1212*4 + 1, 1212*4 + 1= जीचालध, जीचलधण, जीचलधव
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(9) 1122 (ईसग गणक)
    (a) 1122*1 = सीका, सीकण, सीकव (देवी/रमा छंद)
11221 = सींका, सींकण, सींकव

    (b) 1122*2 = सीदा, सीदण, सीदव (वितान छंद)
1122*2 + 1 = सीदल, सीदालण, सीदालव
11221*2 = सींदव (केवल वर्णिक में)

    (c) 1122*3 = सीबा, सीबण, सीबव
1122*3 + 1 = सीबल, सीबालण, सीबालव
11221*3 = सींबव (केवल वर्णिक में)

    (d) 1122*4 = सीचा, सीचण, सीचव
1122*4 + 1 = सीचल, सीचालण, सीचालव
11221*4 = सींचव (केवल वर्णिक में)

    (e) 1122*2, 1122*2 = सीदध, सीदाधण, सीदाधव।
1122*2, 1122*2 + 1 = सीदाधल, सीदधलण, सीदधलव
1122*2 + 1, 1122*2 + 1= सीदालध, सीदलधण, सीदलधव।

(सीचा का वाचिक में उच्चारण के अनुसार 11221  1221*2  122 रूप बनेगा। इसी प्रकार अन्य छंदाओं में भी समझें)
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पंचवर्णी गणक (एगागक) की वृत्त छंदाएँ:-

(10) 22122 (एतागग गणक)
    (a) 22122*1 = तेका, तेकण, तेकव (हारी/हारीत छंद)
221221 = तैंका, तैंकण, तैंकव

    (b) 22122*2 = तेदा, तेदण, तेदव
22122*2 + 1 = तेदल, तेदालण, तेदालव
221221*2 = तैंदा, तैंदण, तैंदव

    (c) 22122*3 = तेबा, तेबण, तेबव
22122*3 + 1 = तेबल, तेबालण, तेबालव
221221*3 = तैंबा, तैंबण, तैंबव

    (d) 22122*4 = तेचा, तेचण, तेचव
22122*4 + 1 = तेचल, तेचालण, तेचालव
221221*4 = तैंचा, तैंचण, तैंचव

    (e) 22122*2, 22122*2 = तेदध, तेदाधण, तेदाधव
22122*2, 22122*2 + 1 = तेदाधल, तेदधलण, तेदधलव
22122*2 + 1 , 22122*2 + 1 = तेदालध, तेदलधण, तेदलधव
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(11) 21222 (एरागग गणक)
    (a) 21222*1 = रेका, रेकण, रेकव
212221 = रैंका, रैंकण, रैंकव

    (b) 21222*2 = रेदा, रेदण, रेदव
21222*2 + 1 = रेदल, रेदालण, रेदालव
212221*2 = रैंदा, रैंदण, रैंदव

    (c) 21222*3 = रेबा, रेबण, रेबव
21222*3 + 1 = रेबल, रेबालण, रेबालव
212221*3 = रैंबा, रैंबण, रैंबव

    (d) 21222*4 = रेचा, रेचण, रेचव
21222*4 + 1 = रेचल, रेचालण, रेचालव
212221*4 = रैंचा, रैंचण, रैंचव

    (e) 21222*2, 21222*2 = रेदध, रेदाधण, रेदाधव
21222*2, 21222*2 + 1 = रेदाधल, रेदधलण, रेदधलव
21222*2 + 1 , 21222*2 + 1 = रेदालध, रेदलधण, रेदलधव
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(12) 12222 (एयागग गणक)
    (a) 12222*1 = येका, येकण, येकव
122221 = यैंका, यैंकण, यैंकव

    (b) 12222*2 = येदा, येदण, येदव
12222*2 + 1 = येदल, येदालण, येदालव
122221*2 = यैंदा, यैंदण, यैंदव

    (c) 12222*3 = येबा, येबण, येबव
12222*3 + 1 = येबल, येबालण, येबालव
122221*3 = यैंबा, यैंबण, यैंबव

    (d) 12222*4 = येचा, येचण, येचव
12222*4 + 1 = येचल, येचालण, येचालव
122221*4 = यैंचा, यैंचण, यैंचव

    (e) 12222*2, 12222*2 = येदध, येदाधण, येदाधव
12222*2, 12222*2 + 1 = येदाधल, येदधलण, येदधलव
12222*2 + 1 , 12222*2 + 1 = येदालध, येदलधण, येदलधव
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(13) 21122 (एभागग गणक)
    (a) 21122*1 = भेका, भेकण, भेकव (हंस/पंक्ति छंद)
211221 = भैंका, भैंकण, भैंकव

    (b) 21122*2 = भेदा, भेदण, भेदव (चम्पकमाला/रुक्मवती छंद)
21122*2 + 1 = भेदल, भेदालण, भेदालव
211221*2 = भैंदा, भैंदण, भैंदव

    (c) 21122*3 = भेबा, भेबण, भेबव
21122*3 + 1 = भेबल, भेबालण, भेबालव
211221*3 = भैंबा, भैंबण, भैंबव

    (d) 21122*4 = भेचा, भेचण, भेचव
21122*4 + 1 = भेचल, भेचालण, भेचालव
211221*4 = भैंचा, भैंचण, भैंचव

    (e) 21122*2, 21122*2 = भेदध, भेदाधण, भेदाधव
21122*2, 21122*2 + 1 = भेदाधल, भेदधलण, भेदधलव
21122*2 + 1, 21122*2 + 1= भेदालध, भेदलधण, भेदलधव
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(14) 12122 (एजागग गणक)
    (a) 12122*1 = जेका, जेकण, जेकव (यशोदा/कण्ठी छंद)
121221 = जैंका, जैंकण, जैंकव

    (b) 12122*2 = जेदा, जेदण, जेदव
12122*2 + 1 = जेदल, जेदालण, जेदालव
121221*2 = जैंदा, जैंदण, जैंदव

    (c) 12122*3 = जेबा, जेबण, जेबव
12122*3 + 1 = जेबल, जेबालण, जेबालव
121221*3 = जैंबा, जैंबण, जैंबव

    (d) 12122*4 = जेचा, जेचण, जेचव
12122*4 + 1 = जेचल, जेचालण, जेचालव
121221*4 = जैंचा, जैंचण, जैंचव

    (e) 12122*2, 12122*2 = जेदध, जेदाधण, जेदाधव
12122*2, 12122*2 + 1 = जेदाधल, जेदधलण, जेदधलव
12122*2 + 1, 12122*2 + 1= जेदालध, जेदलधण, जेदलधव
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(15) 11222 (एसागग गणक)
    (a) 11222*1 = सेका, सेकण, सेकव
112221 = सैंका, सैंकण, सैंकव

    (b) 11222*2 = सेदा, सेदण, सेदव
11222*2 + 1 = सेदल, सेदालण, सेदालव
112221*2 = सैंदव (केवल वर्णिक में)

    (c) 11222*3 = सेबा, सेबण, सेबव
11222*3 + 1 = सेबल, सेबालण, सेबालव
112221*3 = सैंबव (केवल वर्णिक में)

    (d) 11222*4 = सेचा, सेचण, सेचव
11222*4 + 1 = सेचल, सेचालण, सेचालव
112221*4 = सैंचव (केवल वर्णिक में)

    (e) 11222*2, 11222*2 = सेदध, सेदाधण, सेदाधव
11222*2, 11222*2 + 1 = सेदाधल, सेदधलण, सेदधलव
11222*2 + 1 , 11222*2 + 1 = सेदालध, सेदलधण, सेदलधव
****

पंचवर्णी गणक (उलगक) की वृत्त छंदाएँ:-

(16) 22212 (ऊमालग गणक)
    (a) 22212*1 = मूका, मूकण, मूकव
222121 = मूंका, मूंकण, मूंकव

    (b) 22212*2 = मूदा, मूदण, मूदव
22212*2 + 1 = मूदल, मूदालण, मूदालव
222121*2 = मूंदा, मूंदण, मूंदव

    (c) 22212*3 = मूबा, मूबण, मूबव
22212*3 + 1 = मूबल, मूबालण, मूबालव
222121*3 = मूंबा, मूंबण, मूंबव

    (d) 22212*4 = मूचा, मूचण, मूचव
22212*4 + 1 = मूचल, मूचालण, मूचालव
222121*4 = मूंचा, मूंचण, मूंचव

    (e) 22212*2, 22212*2 = मूदध, मूदाधण, मूदाधव
22212*2, 22212*2 + 1 = मूदाधल, मूदधलण, मूदधलव
22212*2 + 1, 22212*2 + 1= मूदालध, मूदलधण, मूदलधव
****

(17) 22112 (ऊतालग गणक)
    (a) 22112*1 = तूका, तूकण, तूकव (हारित छंद)
221121 = तूंका, तूंकण, तूंकव

    (b) 22112*2 = तूदा, तूदण, तूदव (वामा छंद)
22112*2 + 1 = तूदल, तूदालण, तूदालव
221121*2 = तूंदा, तूंदण, तूंदव

    (c) 22112*3 = तूबा, तूबण, तूबव
22112*3 + 1 = तूबल, तूबालण, तूबालव
221121*3 = तूंबा, तूंबण, तूंबव

    (d) 22112*4 = तूचा, तूचण, तूचव
22112*4 + 1 = तूचल, तूचालण, तूचालव
221121*4 = तूंचा, तूंचण, तूंचव

    (e) 22112*2, 22112*2 = तूदध, तूदाधण, तूदाधव
22112*2, 22112*2 + 1 = तूदाधल, तूदधलण, तूदधलव
22112*2 + 1, 22112*2 + 1= तूदालध, तूदलधण, तूदलधव
****

(18) 21212 (ऊरालग गणक)
    (a) 21212*1 = रूका, रूकण, रूकव (तारा छंद)
212121 = रूंका, रूंकण, रूंकव

    (b) 21212*2 = रूदा, रूदण, रूदव (कामदा छंद)
21212*2 + 1 = रूदल, रूदालण, रूदालव
212121*2 = रूंदा, रूंदण, रूंदव

    (c) 21212*3 = रूबा, रूबण, रूबव
21212*3 + 1 = रूबल, रूबालण, रूबालव
212121*3 = रूंबा, रूंबण, रूंबव

    (d) 21212*4 = रूचा, रूचण, रूचव
21212*4 + 1 = रूचल, रूचालण, रूचालव
212121*4 = रूंचा, रूंचण, रूंचव

    (e) 21212*2, 21212*2 = रूदध, रूदाधण, रूदाधव
21212*2, 21212*2 + 1 = रूदाधल, रूदधलण, रूदधलव
21212*2 + 1, 21212*2 + 1= रूदालध, रूदलधण, रूदलधव
****

(19) 12212 (ऊयालग गणक)
    (a) 12212*1 = यूका, यूकण, यूकव
122121 = यूंका, यूंकण, यूंकव

    (b) 12212*2 = यूदा, यूदण, यूदव
12212*2 + 1 = यूदल, यूदालण, यूदालव
122121*2 = यूंदा, यूंदण, यूंदव

    (c) 12212*3 = यूबा, यूबण, यूबव
12212*3 + 1 = यूबल, यूबालण, यूबालव
122121*3 = यूंबा, यूंबण, यूंबव

    (d) 12212*4 = यूचा, यूचण, यूचव
12212*4 + 1 = यूचल, यूचालण, यूचालव
122121*4 = यूंचा, यूंचण, यूंचव

    (e) 12212*2, 12212*2 = यूदध, यूदाधण, यूदाधव
12212*2, 12212*2 + 1 = यूदाधल, यूदधलण, यूदधलव
12212*2 + 1, 12212*2 + 1= यूदालध, यूदलधण, यूदलधव
****

(20) 12112 (ऊजालग गणक)
    (a) 12112*1 = जूका, जूकण, जूकव
121121 = जूंका, जूंकण, जूंकव

    (b) 12112*2 = जूदा, जूदण, जूदव
12112*2 + 1 = जूदल, जूदालण, जूदालव
121121*2 = जूंदा, जूंदण, जूंदव

    (c) 12112*3 = जूबा, जूबण, जूबव
12112*3 + 1 = जूबल, जूबालण, जूबालव
121121*3 = जूंबा, जूंबण, जूंबव

    (d) 12112*4 = जूचा, जूचण, जूचव
12112*4 + 1 = जूचल, जूचालण, जूचालव
121121*4 = जूंचा, जूंचण, जूंचव

    (e) 12112*2, 12112*2 = जूदध, जूदाधण, जूदाधव
12112*2, 12112*2 + 1 = जूदाधल, जूदधलण, जूदधलव
12112*2 + 1, 12112*2 + 1= जूदालध, जूदलधण, जूदलधव
121121*2, 121121*2 = जूंदध, जूंदाधण, जूंदाधव
****

(21) 11212 (ऊसालग गणक)
    (a) 11212*1 = सूका, सूकण, सूकव (रति छंद)
112121 = सूंका, सूंकण, सूंकव

    (b) 11212*2 = सूदा, सूदण, सूदव (संयुत/संयुक्ता छंद)
11212*2 + 1 = सूदल, सूदालण, सूदालव
112121*2 = सूंदव (केवल वर्णिक में)

    (c) 11212*3 = सूबा, सूबण, सूबव (मनहंस/रणहंस छंद)
11212*3 + 1 = सूबल, सूबालण, सूबालव
112121*3 = सूंबव (केवल वर्णिक में)

    (d) 11212*4 = सूचा, सूचण, सूचव (सुन्दरगीतिका छंद)
11212*4 + 1 = सूचल, सूचालण, सूचालव
112121*4 = सूंचव (केवल वर्णिक में)

    (e) 11212*2, 11212*2 = सूदध, सूदाधण, सूदाधव (हरिगीतिका छंद)
11212*2, 11212*2 + 1 = सूदाधल, सूदधलण, सूदधलव
11212*2 + 1, 11212*2 + 1= सूदालध, सूदलधण, सूदलधव
    
    (f) 11212*4, 11212*4 = सूचध, सूचाधण, सूचाधव।
11212*4, 11212*4 + 1 = सूचाधल, सूचधलण, सूचधलव
11212*4 + 1, 11212*4 + 1= सूचालध, सूचलधण, सूचलधव
****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Thursday, February 2, 2023

हाइकु (सैनिक)

हाइकु विधा - प्रति पंक्ति 5 - 7 - 5 वर्ण।

फौजी की शान
देश की आन बान
लुटा के जान।
**

सैनिक भाई
मरने पे बड़ाई
वैसे तंगाई।
**

आजादी पर्व
देश मुदित सर्व
माथे पे गर्व।
****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-08-18

Saturday, January 28, 2023

गुरुगुर्वा विधान:-

 "गुरुगुर्वा" विधान:-

गुर्वा केवल गुरु वर्ण की गिनती पर आधारित काव्यातमक संरचना है जिसमें एक दूसरी से स्वतंत्र तीन पंक्तियों में शब्द चित्र खींचा जाता है, अपने चारों ओर के परिवेश का वर्णन होता है या कुछ भी अनुभव जनित भावों की अभिव्यक्ति होती है। गुर्वा की तीन पंक्तियों में 6 -5 -6 के अनुपात में कुल 17 गुरु वर्ण होते हैं। इस तरह की अन्य संरचनाएँ हाइकु, ताँका, चोका आदि के रूप में हिन्दी में प्रचलित हैं जो अक्षरों की गिनती पर आधारित हैं। 

परन्तु यह गुर्वा विधा इनसे बहुत ही विशिष्ट है। इसमें मेरे द्वारा सर्वथा नवीन अवधारणा ली गयी है। इसमें शब्दानुसार केवल गुरु वर्ण की गिनती होती है। गुरु वर्ण में दीर्घ मात्रिक अक्षर और शाश्वत दीर्घ दोनों आ जाते हैं। किसी भी शब्द में एक साथ आये दो लघु से शाश्वत दीर्घ बनता है जिसे एक गुरु के रूप में गिना जाता है। गुर्वा की पंक्ति में आये प्रत्येक शब्द के गुरु वर्ण गिने जाते हैं। शब्द में आये एकल लघु नहीं गिने जाते, वे गणनामुक्त होते हैं। 'विचारणीय' में चा और णी केवल दो गुरु हैं। वि, र, य तीन लघु होने पर भी लघु का जोड़ा नहीं है। इसलिये ये गणनामुक्त हैं और गुर्वा के लिये इस शब्द में केवल दो गुरु हैं। 'विरचा' में भी दो गुरु हैं, विर और चा। इस अवधारणा की यही विशेषता रचनाकार के सामने अनेक विकल्प प्रस्तुत करती है। इसके अतिरिक्त कलेवर भी बहुत विस्तृत हो गया। यह कलेवर अंग्रेजी आदि भाषाओं के सिलेबल आधारित गणन से किसी भी अवस्था में कम नहीं है।

इसी अवधारणा पर आश्रित एक और विधा विकसित की गयी है जिसे इस आलेख के माध्यम से मैं पाठक वृंद के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। सर्व प्रथम इसके नामकरण पर कुछ चर्चा करता हूँ।
बहुत वैचारिक मंथन के पश्चात इस विधा के नाम में भी गुर्वा शब्द को रखा गया है। केवल गुरु वर्ण की गणना के कारण लक्षण के आधार पर गुर्वा नाम दिया गया था। इस में भी गणना का आधार बिल्कुल वही है। दूसरे यह नितांत ही नवीन अवधारणा पर है इसलिये इस दूसरी विधा का स्वतंत्र नाम नहीं दिया गया। इस नयी विधा में एक पंक्ति भी अधिक है और कुल गुरु वर्ण भी 17 के स्थान पर 30 होते हैं। गुर्वा के पूर्व में महा, गुरु, बड़ा आदि कुछेक विकल्प पर मंथन करने के पश्चात गुरु ही जोड़ा गया है। अतः इसका नामकरण "गुरुगुर्वा" के रूप में किया गया है।इसका पूर्ण विधान निम्न प्रकार से विकसित किया गया है-

(1) "गुरुगुर्वा" में चार पंक्तियाँ होती हैं। इस में भी पंक्तियाँ स्वतंत्र रखी जाती है।

(2) इसकी चार पंक्तियों में कोई सी भी दो पंक्तियों में 8 - 8 गुरु वर्ण होते हैं और बाकी दो बची हुई पंक्तियों में 7 - 7 गुरु वर्ण होते हैं। इस नियम के अंतर्गत 6 संभावनाएँ  बनती हैं -
8 - 8 - 7 -7
8 - 7 - 8 -7
8 - 7 - 7 -8
7 - 8 - 8 -7
7 - 8 - 7 - 8
7 - 7 - 8 - 8
"गुरुगुर्वा" में कुल 30 वर्ण होते हैं। यह रचनाकार पर निर्भर है कि अपनी रचना में वह पंक्तियाँ किस प्रकार संयोजित करता है। प्रत्येक "गुरुगुर्वा" अपने आप में पूर्ण होता है।

(3) समतुकांतता बरतनी इस में भी आवश्यक है।
कोई भी 8 - 8 वाली या 7 - 7 वाली दो पंक्तियाँ समतुकांत रखनी आवश्यक है। रचनाकार चाहे तो 
 8 - 8 वाली और 7 - 7 वाली दोनों में समतुकांतता रख सकता है परन्तु दोनों में पृथक पृथक तुकांतता होनी चाहिए। यानि चारों पंक्तियाँ एक ही तुकांतता की नहीं होनी चाहिए।

मैं यहाँ अपने तीन "गुरुगुर्वा" प्रस्तुत कर रहा हूँ और बताये गये नियम उनसे सोदाहरण समझते हैं।

शुभ्रता छिटकी हुई है सृष्टि में,
हो रही झंकार वीणा की,
श्वेत उड़ते हंस, वारिज दृष्टि में,
काव्य की प्रकटी 'नमन' देवी।

(2122 2122 212 = 8 गुरु
2122 2122 2 = 7 गुरु
यह रचना उपरोक्त मापनी पर है। इसलिये गुरु वर्ण की गणना स्वयंमेव हो रही है। इसमें छिट, उड़, रिज, प्रक, मन ये पांच शाश्वत दीर्घ हैं। बाकी के एकल लघु गणनामुक्त हैं। 8 - 8 में समतुकांतता और 8 - 7 - 8 - 7 का क्रम।)
****

गरीबी में झुलसते लोग हैं,
कहीं पर चीख लुटती अस्मिता की,
उठाये सिर भयंकर रोग हैं,
बड़े असहाय से हो दिन बिताते।

(1222 1222 12 = 7
1222 1222 122 = 8
यह रचना भी मापनी पर है। इसलिये गुरु वर्ण की गणना स्वयंमेव हो रही है। इसमें लस, पर, लुट, सिर, कर, अस, दिन ये सात शाश्वत दीर्घ हैं। बाकी के एकल लघु गणनामुक्त हैं।
7 - 7 में समतुकांतता और 7 - 8 - 7 - 8 का क्रम।)
****

महावर लगाये रसिक राधिका,
कहीं कान्ह बैठे हथेली पसारे।
पड़ें लग दिखाई थिरकते चरण,
लखें नेत्र मन के सभी दृश्य न्यारे।।

(122 122 122 12 = 7 गुरु
122 122 122 122 = 8 गुरु
मापनी की रचना। वर, सिक, लग, रक, रण, मन ये छह शाश्वत दीर्घ। 8 - 8 में समतुकांतता और 7 - 8 - 7 - 8 का क्रम।)
****

इन तीनों गुरुगूर्वा में एक के पश्चात एक उभरते शब्द चित्र हैं। प्रथम गुरुगूर्वा में मानो सब ओर धवलता छिटकी हुई है, तभी वीणा बजती सी लगती है, आँखों के आगे उड़ते धवल हँस और सरोवरों में खिले धवल कमल छा गये। सभी मात शारदा के चिन्ह हैं। अंत में माँ को वंदन।

दूसरे में गरीबी, बलात्कार, फैलती बिमारियों पर लाचारी की अवस्था है।

तीसरे में राधिका पैरों में महावर लगा रही है, तभी लगा कहीं मोहन हथेली पसारे बैठे हैं, आँखों के आगे थिरकते पैरों का चित्र उभरने लगा। मानो राधिका उस पसरी हथेली पर ही नृत्य करने लगी है!!

गुरुगूर्वा में जैसा कि उदाहरणों से स्पष्ट हो रहा है, कलेवर विस्तृत होने से विभिन्न छंद और मापनी में काव्य सृजन संभव है। साथ ही तुकांतता की अनिवार्यता से रचनाओं में प्रचलित छंदों की चौपदी सी मधुरता आ रही है। इसमें रचना पंक्तियों की स्वतंत्रता रखते हुए हाइकु, ताँका इत्यादि की शैली में होती है। आप किसी विषय पर मनस्थल पर उभरते चित्र या भावों को प्रभावी क्रम में शब्दों में सजा रखें। अपने विचार या निष्कर्ष अंतिम पंक्ति में रखें।

"गुरुगुर्वा" की पंक्तियाँ यद्यपि गुरु वर्ण की गणना से बंधी हुई हैं, फिर भी इनमें वर्ण या मात्रा की संख्या का कोई बंधन नहीं है। गुरु वर्ण की संख्या के आधार पर आप अपनी मनचाही मापनी बना सकते हैं। इन तीन उदाहरणों से "गुरुगुर्वा" की व्यापकता और संभावनाओं का आकलन प्रबुद्ध पाठक वृंद स्वयं करें।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-08-21

Monday, January 23, 2023

पिरामिड (प्रेम)

(1)

हो
प्रेम,
सद्भाव
बरसात;
मन-वाटिका,
खिल खिल जाये,
मैत्री-भाव जगाये।
**

(2)

है
मन 
सौहार्द्र,
स्नेह सिक्त;
विकार-रिक्त,,
प्रेम-आभरण
नर करे वरण।
**

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1-07-19

Tuesday, January 17, 2023

ग़ज़ल (जो सब से बराबर खुशी बाँटता है)

बह्र:- 122 122 122 122

जो सब से बराबर खुशी बाँटता है,
डरा उससे हर दूर ग़म भागता है।

उठाले ए इंसान हस्ती को इतनी,
मिले तुझको वो सब जो तू सोचता है।

सनम याद में तेरी तड़पूँ बहुत ही,
मनाये भी ये दिल नहीं मानता है।

अमीरी गरीबी से क्या फ़र्क पड़ता,
जमाना किसी को नहीं बक्शता है।

बता दे हमें एक भी शख़्स ऐसा,
हुई जिन्दगी में न जिससे ख़ता है।

मुहब्बत की नजरों से दुनिया जो देखे,
उसी आदमी को खुदा चाहता है।

छुपायेगा कैसे 'नमन' उससे जिस को,
तेरी सारी गुस्ताखियों का पता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08.01.23

Friday, January 13, 2023

चौपई छंद "चूहा बिल्ली"

चौपई छंद / जयकरी छंद

(बाल कविता)

म्याऊँ म्याऊँ के दे बोल।
आँखें करके गोल मटोल।।
बिल्ली रानी है बेहाल।
चूहे की बन काल कराल।।

घुमा घुमा कर अपनी पूँछ।
ऊपर नीचे करके मूँछ।।
पंजों से दे दे कर थाप।
मूषक लेना चाहे चाप।।

छोड़ सभी बाकी के काज।
चूँ चूँ की दे कर आवाज।।
मौत खड़ी है सिर पर जान।
चूहा भागा ले कर प्रान।।

ज्यों कड़की हो बिजली घोर।
झपटी बिल्ली दिखला जोर।।
पंजा मूषक सका न झेल।
'नमन' यही जीवन का खेल।।
***********

चौपई छंद / जयकरी छंद विधान - 

चौपई छंद जो जयकरी छंद के नाम से भी जाना जाता है,15 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है। कहीं कहीं इसका जयकारी छंद नाम भी मिलता है। यह तैथिक जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। 

चौपई छंद से मिलते-जुलते नाम वाले अत्यंत ही प्रसिद्ध चौपाई छंद से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये। चौपाई छंद 16 मात्राओं का छंद है जिसके चरणान्त से एक लघु निकाल दिया जाय तो चरण की कुल मात्रा 15 रह जाती है और चौपाई छंद से मिलता जुलता नाम चौपई छंद हो जाता है। इस प्रकार चौपई छंद का चरणान्त गुरु-लघु रह जाता है जो इसकी मूल पहचान है। 

इन 15 मात्राओं की मात्रा बाँट:- 12 + S1 है। 12 मात्रिक अठकल चौकल, चौकल अठकल या तीन चौकल हो सकता है। अठकल में दो चौकल या 3 3 2 मात्रा हो सकती है। चौपई छंद के सम्बन्ध में एक तथ्य यह भी सर्वमान्य है कि चौपई छंद बाल साहित्य के लिए बहुत उपयोगी है, क्योंकि इसमें गेयता अत्यंत सधी होती है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
06-06-22

Tuesday, January 10, 2023

छंदा सागर (कल विवेचना)

                       पाठ - 06

छंदा सागर ग्रन्थ


"कल विवेचना"


कला शब्द मात्रा का पर्यायवाची है जिससे कल शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। कल विवेचना अर्थात मात्राओं की विवेचना। हिंदी के मात्रिक छंद गणों और वर्ण की संख्याओं से मुक्त होते हैं परन्तु उनमें मात्राओं का अनुशासन रहता है और यह अनुशासन कलों पर आधारित रहता है। मात्रिक छंदों के विस्तृत संसार में प्रवेश करने के पूर्व कलों की पूर्ण समीक्षा आवश्यक है। प्रस्तुत पाठ में हम विभिन्न कलों की संरचना, उनके नियम और उनके नामकरण के विषय में विस्तार से जानकारी प्राप्त करेंगे। 

स्थूल रूप से समस्त कलों के दो विभाग हैं। इसके बाद मात्रा की संख्या के आधार पर उन दो विभागों में कई कल हैं। जिनमें मात्राओं की संख्या दो से विभाजित हो सकती हैं वे समकल कहलाते हैं जैसे द्विकल, चौकल, छक्कल, अठकल आदि। जिनमें मात्रा की संख्या दो से विभाजित न हो वे विषमकल कहलाते हैं जैसे त्रिकल, पंचकल, सतकल आदि।

कलों के संकेतक:- किसी भी छंद की छंदा के निर्माण में संकेतक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं अतः सर्वप्रथम हम विभिन्न कलों के संकेतक सुनिश्चित करते हैं। समकल अर्थात दो से विभाजित संख्या की मात्राएँ। इनके लिए हमारे पास पहले से ही संकेतक हैं।
2 मात्रा (द्विकल) गुरु वर्ण, संकेत ग या गा
22 = 4 मात्रा (चौकल) ईगागा वर्ण, संकेत गि या गी
222 = 6 मात्रा (छक्कल) मगण, संकेत म या मा
2222 = 8 मात्रा (अठकल) ईमग गणक, संकेत मि या मी।

समकल का प्रयोग मात्रिक, वर्णिक और वाचिक तीनों स्वरूप की छंदाओं में होता है परन्तु प्रयोग में विभिन्नता है। मात्रिक छंदाओं में इनका प्रयोग कल आधारित नियमों के अनुसार होता है जिसकी विवेचना हम इसी पाठ में पुनः करेंगे। वर्णिक छंदाओं में 2 सदैव दीर्घ वर्ण ही रहता है। वाचिक छंदाओं में 2 को दीर्घ वर्ण के रूप में भी रखा जा सकता है तथा शास्वत दीर्घ (एक शब्द में साथ साथ आये दो लघु) के रूप में भी रखा जा सकता है। गुरु छंदाएँ जिनमें केवल गुरु यानी 2 का प्रयोग होता है, उनके वाचिक स्वरूप में 2 को दो स्वतंत्र लघु में भी तोड़ सकते हैं यानी दो शब्दों में साथ साथ आये दो लघु।

विषमकल के लिए हमारे पास कोई पूर्वनिर्धारित वर्ण या गुच्छक नहीं है। इसका कारण यह है कि समकल में केवल 2 यानी गुरु वर्ण का प्रयोग होता है अतः इनका रूप ध्रुव है। जबकि विषमकल में 1 = लघु और 2 = गुरु, दोनों वर्ण का प्रयोग होता है। समकल की तरह इनका रूप ध्रुव नहीं है। इनके लिए विशेष संकेतक हैं, जिनसे हम चतुर्थ पाठ में परिचित हो चुके है। विषमकल निम्न हैं जिनका प्रयोग केवल मात्रिक स्वरूप की छंदाओं में होता है।

त्रिकल = 3 मात्रा, संकेत 'बु' या 'बू'
पंचकल = 5 मात्रा, संकेत 'पु' या 'पू'
सतकल = 7 मात्रा, संकेत 'डु' या 'डू'
नवकल = 9 मात्रा, संकेत 'वु' या 'वू'

इस प्रकार चार समकल और चार ही विषमकल हैं। अब हम एक एक कल की पूर्ण विवेचना करने जा रहे हैं। यह कल विवेचना मात्रिक छंदों को आधार बना कर की गई है।

समकल:-

द्विकल = 2 - द्विकल के दो रूप हैं - एक शब्द में साथ साथ आये दो लघु 'शास्वत दीर्घ' और दीर्घ यानी 2 । जैसे - तुम, वह, मैं, है, जो आदि। इसके लिये हमारे पास गुरु वर्ण है जिसके संकेतक 'ग' तथा 'गा' हैं। द्विकल के लिये छंदाओं मे उच्चारण की सुविधानुसार दोनों संकेतक का प्रयोग होता है।

चौकल = 4 - चौकल में चारों रूप (11 11, 11 2, 2 11, 22) मान्य रहते हैं। चौकल के नियम निम्न प्रकार से हैं जिनको सदैव याद रखना चाहिए क्योंकि इसका प्रयोग बहुतायत से होता है।
(1) चौकल में पूरित जगण (121) शब्द, जैसे विचार महान उपाय आदि नहीं आ सकते। 
(2) चौकल की प्रथम मात्रा पर कभी भी शब्द समाप्त नहीं हो सकता। 
चौकल में 3+1 मान्य है परन्तु 1+3 मान्य नहीं है। जैसे 'व्यर्थ न' 'डरो न' आदि मान्य हैं। 'डरो न' पर ध्यान चाहूँगा 121 होते हुए भी मान्य है क्योंकि यह पूरित जगण नहीं है। डरो और न दो अलग अलग शब्द हैं। वहीं चौकल में 'न डरो' मान्य नहीं है क्योंकि न शब्द चौकल की  प्रथम मात्रा पर समाप्त हो रहा है।
3+1 रूप खंडित-चौकल कहलाता है जो पद के आदि या मध्य में तो मान्य है पर अंत में मान्य नहीं है। 'डरे न कोई' से पद का अंत हो सकता है 'कोई डरे न' से नहीं। चौकल के लिये हमारे पास ईगागा वर्ण है जिसके संकेतक 'गि' तथा 'गी' हैं।

छक्कल = 6 - छक्कल में भी 1 से चार मात्रा में पूरित जगण नहीं होना चाहिए तथा प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द भी समाप्त नहीं होना चाहिए। केवल छक्कल आधारित सृजन में पूरित जगण अंत में आ सकता है। जिन छंदाओं के अंत में छक्कल पड़ता है उनमें यह
2+4 या 4+2 इन दो ही रूप में रहता है। 12+12 या 21+12 दोनों खंडित चौकल + 2 का ही रूप है।
"असफलता में धीर रहो।
धीरज खो कर विकल न हो।" ऐसे पद मान्य हैं। छंदा के आदि या मध्य में छक्कल का 3+3 रूप भी मान्य है जिसमें 12+21 या 21+21 रूप आ सकता है। छक्कल के लिये हमारे पास मगण है जिसके संकेतक 'म' तथा 'मा' हैं।

अठकल = 8 - अठकल के दो रूप हैं। प्रथम 4+4 अर्थात दो चौकल। दूसरा 3+3+2 है जिसमें त्रिकल के तीनों (111, 12 और 21) तथा द्विकल के दोनों रूप (11 और 2) मान्य हैं। अठकल के नियम निम्न प्रकार से हैं जिनमें दक्षता होनी अत्यंत आवश्यक है। चौकल और अठकल अधिकांश मात्रिक छंदाओं के आधार हैं।
(1) अठकल की 1 से 4 मात्रा पर और 5 से 8 मात्रा पर पूरित जगण - 'उपाय' 'सदैव 'प्रकार'' जैसा शब्द नहीं आ सकता।
(2) अठकल की प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द कभी भी समाप्त नहीं हो सकता। 'राम नाम जप' सही है जबकि 'जप राम नाम' गलत है क्योंकि राम शब्द पंचम मात्रा पर समाप्त हो रहा है।   
(3) अठकल का अंत सदैव (2 या 11) से होना चाहिए। 
पूरित जगण अठकल की तीसरी या चौथी मात्रा से ही प्रारंभ हो सकता है क्योंकि 1 और 5 से वर्जित है तथा दूसरी मात्रा से प्रारंभ होने का प्रश्न ही नहीं है, कारण कि प्रथम मात्रा पर शब्द समाप्त नहीं हो सकता।  'तुम सदैव बढ़' में जगण तीसरी मात्रा से प्रारंभ हो कर 'तुम स' और 'दैव' ये दो त्रिकल तथा 'बढ़' द्विकल बना रहा है।
'राम सहाय न' में जगण चौथी मात्रा से प्रारंभ हो कर 'राम स' और 'हाय न' के रूप में दो खंडित चौकल बना रहा है।

एक उदाहरणार्थ रची चौपाई में ये नियम देखें-
"तुम गरीब से रखे न नाता।
बने उदार न हुये न दाता।।"

"तुम गरीब से" अठकल तथा तीसरी मात्रा से जगण प्रारंभ।
"रखे न" खंडित चौकल "नाता" चौकल। "नाता रखे न" लिखना गलत है क्योंकि खंडित चौकल पद के अंत में नहीं आ सकता।
"बने उदार न" अठकल तथा चौथी मात्रा से जगण प्रारंभ।
अठकल के संकेत ईमग गणक (2222) के 'मि' तथा 'मी' हैं।

समकल संयोजन:- मात्रिक छंदाओं में प्रयुक्त विभिन्न समकल आधारित मात्राओं की संभावनाएं देखें।
10 मात्रिक = मीगण - 8+2; 4+4+2
12 मात्रिक = मीगिण - 8+4; 4+8; 4+4+4
14 मात्रिक = मीमण - 8+6; 4+8+2; 4+4+6
16 मात्रिक = मीदण - 8+8; 8+4+4; 4+8+4; 4+4+4+4; 
मीगण आदि छंदाओं के अंत का ण या णा इनका मात्रिक स्वरूप बता रहा है।
(16 मात्रिक को मीदण ही लिखा जायेगा पर यह रचनाकार पर निर्भर है कि वह इन 16 मात्राओं की ऊपर लिखी 4 संभावनाओं में से कौन सी प्रयोग में लाता है। इस संदर्भ में मीबे का अर्थ 14 मात्रिक है, जिसकी अंतिम छह मात्राएँ तीन दीर्घ वर्ण के रूप में हैं। )
****

विषम कल:-

त्रिकल = 3 - त्रिकल के दो रूप हैं। 12 जैसे - नया, कभी, कमल, सुलभ आदि तथा 21 जैसे - राम, अश्व, दैन्य आदि। इसका संकेतक बु या बू है।

पंचकल = 5 - पंचकल त्रिकल और द्विकल का सम्मिलित रूप है जिसके दो रूप बनते हैं। 3+2 या 2+3। इनमें त्रिकल द्विकल की समस्त संभावनाएँ आ सकती हैं। इस प्रकार पंचकल की निम्न तीन संभावनाएं हैं-
122
212
221
इसके अतिरिक्त पंचकल को 4+1 और 1+4 में भी तोड़ा जा सकता है। पंचकल पु या पू संकेतक से दर्शाया जाता है।

सतकल = 7 - सतकल का निम्न लिखित रूप में से कोई भी रूप लिया जा सकता है।
6+1 या 1+6
5+2 या 2+5
4+3 या 3+4
सतकल की निम्न चार संभावनाएं बनती हैं।
1222
2122
2212
2221
सतकल को डु या डू संकेतक से दर्शाया जाता है।

नवकल = 9 - नवकल की निम्न पांच संभावनाएं हैं।
12222
21222
22122
22212
22221
इन पांच संभावनाओं को हम निम्न प्रकार से तोड़ सकते हैं।
8+1 या 1+8
7+2 या 2+7
6+3 या 3+6
5+4 या 4+5
नवकल को वु या वू संकेतक से दर्शाया जाता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Thursday, January 5, 2023

भ्रमर दोहा छंद "सेवा"

(भ्रमर दोहा छंद के प्रति दोहे में 22 दीर्घ और 4 लघु वर्ण होते हैं।)

बीती जाये जिंदगी, त्यागो ये आराम।
थोड़ी सेवा भी करो, छोड़ो दूजे काम।।

सेवा प्राणी मात्र की, शिक्षा का है सार।
वाणी कर्मों में रखें, सेवा का आचार।।

सच्ची सेवा ही सदा, दे सच्चा उल्लास।
सेवा ही संतुष्टि है, सेवा ही विश्वास।।

लोगों के नेता बने, छोड़ी सारी लाज।
तस्वीरों के सामने, होती सेवा आज।।

काया से जो क्षीण हैं, हो रोगी लाचार।
शुश्रूषा से दो उन्हें, जीने का आधार।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
24-10-19

Thursday, December 29, 2022

विविध मुक्तक -11

तुम मेरी पाक़ मुहब्बत का ये दरिया देखो,
झाँक आँखों में मेरी इस को उमड़ता देखो,
गर नहीं फिर भी यकीं चीर लो सीना मेरा,
दिले नादाँ पे असर कितना तुम्हारा देखो।

(2122 1122 1122 22)
***  ***

कभी भी जब मुझे उनका ख़याल आता है,
तो गोते यादों में गुज़रा जो साल खाता है।
नज़र झुका के तुरत पहलू में सिमट जाना,
नयन पटल पे वो सारा ही काल छाता है।

(1212 1122 1212 22)
***  ***

साथ सजन तो चाँद सुहाना लगता है,
दूर पिया तो वो भी जलता लगता है,
उस में लख पिय की परछाई पूछ रहे,
चाँद बता तू कौन हमारा लगता है।

मुक्तक  2*11
***  ***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-07-22

Saturday, December 24, 2022

सुगम्य गीता (तृतीय अध्याय 'द्वितीय भाग')

तृतीय अध्याय (भाग -२)

जनक आदि ने कर्म से, प्राप्त किया निर्वाण। 
श्रेष्ठ जनों का आचरण, जग में सदा प्रमाण।।२२।। 

तुम भी बनो उदाहरण, जग समक्ष हे पार्थ। 
जन-हित की रख भावना, कर्म करो लोकार्थ।।२३।। 

मुझ ईश्वर का विश्व में, शेष न कछु कर्त्तव्य।
प्राप्तनीय भी कुछ नहीं, कर्म करूँ पर दिव्य।।२४।।

सावधान हो मैं न यदि, रहूँ कर्म संलग्न। 
छिन्न भिन्न कर जग करूँ, लोक-आचरण भग्न।।२५।। 

लोक-मान्यता ध्यान रख, ज्ञानी का हो आचरण।
लोगों पर डाले न वो, बुद्धि-भेद का आवरण।।२६।। उल्लाला छंद

करे स्वयं कर्त्तव्य अरु, प्रेरित अन्यों को करे।
अज्ञानी आसक्त की, मन की दुविधा वो हरे।।२७।। उल्लाला 

प्रकृति जनित गुण से हुवे, कर्म सृष्टि के सारे।
अहम् भाव से मूढ़ पर, कर्ता खुद को धारे।।२८।। मुक्तामणि छंद 

त्रीगुणाश्रित ये सृष्टि है, कर्म गुणों में अटके। 
गुण ही कारण कार्य गुण, जो जाने नहिँ भटके।।२९।। मुक्तामणि छंद 

गुण अरु कर्म रहस्य से, जो नर हैं अनभिज्ञ। 
ऐसे गुण-सम्मूढ़ को, विचलित करे न विज्ञ।।३०।।
 
त्यज ममत्व आशा सभी, दोष-दृष्टि सन्ताप। 
सौंप कर्म सब ही मुझे, युद्ध करो निष्पाप।।३१।। 

मुझमें देखे दोष जो, सभी ज्ञान से भ्रष्ट। 
यह मत जो मानें नहीं, उनको समझो नष्ट।।३२।। 

परवश सभी स्वभाव के, विज्ञ न भी अपवाद। 
क्या इसमें फिर कर सके, निग्रह दमन विषाद।।३३।। 

सुख से सब को राग है, दुख से सब को द्वेष।
बाधा दे कल्याण में, दोनों का परिवेश।।३४।। 

अनुपालन निज धर्म का, उत्तम यध्यपि हेय। 
मरना भी इसमें भला, अन्य धर्म भय-देय।।३५।।

क्यों फिर हे माधव! कहो, पापों में नर मग्न।
बल से ज्यों उसको किया, बिन इच्छा संलग्न।।३६।।

देत रजोगुण कामना, उससे जन्मे क्रोध।
पार्थ परम वैरी समझ, दोनों का अवरोध।।३७।।

गर्भ अग्नि दर्पण ढके, जेर धूम्र अरु मैल।
त्यों विवेक अरु ज्ञान को, ढकता तृष्णा-शैल।।३८।।

अनल रूप यह कामना, कभी न जो हो शांत।
ज्ञानी जन के ज्ञान को, सदा रखे यह भ्रांत।।३९।।

इन्द्रिय मन अरु बुद्धि में, रहे काम का वास।
तृष्णा इनसे ही करे, ज्ञान मनुज का ह्रास।।४०।।

इन्द्रिय की गति साध, सभी दुख की प्रदायिनी।
प्रथम कामना मार, ज्ञान विज्ञान नाशिनी।।४१।। रोला छंद

तन से इन्द्रिय सूक्ष्म, इन्द्रियों से फिर मन है।
मन से पर है बुद्धि, अंत में आत्म-मनन है।।४२।। रोला

आत्म तत्व पहचान, हृदय में कर के मंथन।
अपने को तू तोल, काम-रिपु का कर मर्दन।।४३।। रोला

इति तृतीय अध्याय 

रचयिता :
बासुदेव अग्रवाल 


Wednesday, December 21, 2022

चंडिका छंद "आँखें"

चंडिका छंद / धरणी छंद

जिनसे जग लख, मैं बहूँ।
उन आँखों पर, क्या कहूँ।।
भव की इनसे, भव्यता।
प्राणी की सब, योग्यता।।

आँखें हैं तो, प्रीत है।
सब कामों में, जीत है।।
नयनों की कर, चाकरी।
रचता हूँ मैं, शायरी।।

नयन आपके, झील से।
कजरारे कुछ, नील से।।
मेरे मन पर, राजते।
डुबा डुबा कर, मारते।।

नीली आँखें, आपकी।
जड़ ये मन के, ताप की।।
हिरणी सी ये, चंचला।
करती मुझको, बावला।।

दो दो दीपक, नैन के।
जलते जो बिन, चैन के।।
कहें आपकी, भावना।
छिपी हृदय में, कामना।।

नयनों के जो, तीर से।
घायल इसकी, पीर से।।
इश्क सताया, पूत है।
रहता सर पर, भूत है।।

दो ही आँखें, हैं भली।
गोरी हो या, साँवली।।
दो से जब ये, चार हों।
चैन रैन के, पार हों।।

ऊपर के इन, नैन का।
नहीं भरोसा, बैन का।।
मन की आँखें, खोल के।
देखें जग को, तोल के।।

आँखो की जो, रोशनी।
जीवन की वह, चाँदनी।।
सृष्टि इन्हीं से, भासती।
'नमन' उतारे, आरती।।
***********

चंडिका छंद / धरणी छंद विधान -

चंडिका छंद जो कि धरणी छंद के नाम से भी जाना जाता है, 13 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है जिसका अंत रगण (S1S) से होना आवश्यक है। इसमें प्रथम 8 मात्रा पर यति अनिवार्य है। यह भागवत जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 पद होते हैं और छंद के दो दो या चारों पद सम तुकांत होने चाहिए। इन 13 मात्राओं का विन्यास अठकल, रगण (S1S) है। यह विन्यास दोहा छंद के विषम चरण वाला ही है।
अंतर केवल अठकल के बाद यति का है तथा अंतिम 5 मात्रा गुरु, लघु, गुरु वर्ण के रूप में हो।

अठकल = 4 4 या  3 3 2
******************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
31-05-22

Sunday, December 11, 2022

छंदा सागर (छंद के घटक "छंदा")

                        पाठ - 05

छंदा सागर ग्रन्थ

(छंद के घटक "छंदा")

छंदा शब्द की व्युत्पत्ति छंद से हुई है। छंदा का अर्थ है किसी छंद विशेष के विधान का पूर्ण स्वरूप। छंदाओं के नाम में ही उनका पूरा विधान रहता है। छंद में वर्णों की आवृत्ति का, कल आधारित छंद में कल की आवृत्ति का, मध्य में यदि कहीं यति है तो उसका तथा छंद के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान उसकी छंदा के नाम से ही मिल जाता है। चतुर्थ पाठ में हमने छंदाओं के नामकरण में प्रयुक्त संख्यावाचक तथा अन्य संकेतकों के विषय में विस्तार से जाना। तृतीय पाठ में विभिन्न गुच्छक की संरचना के विषय में जाना। अब इस पंचम पाठ से हम  छंदाओं की संरचना का अध्ययन करेंगे। इस छंदा-सागर ग्रन्थ का उद्देश्य हिन्दी में प्रचलित छंदों की छंदाएँ बनाकर प्रस्तुत करना है जो सामने आते ही पूरी छंद का स्वरूप प्रकट हो जाये। हमें अनेक छंदों के नाम तो याद रहते हैं पर विधान याद नहीं रहता। अब उस छंद में रचना करने के लिए उसके विधान को खोजना पड़ता है। परन्तु हम जो इन पाठों के माध्यम से अध्ययन कर रहे हैं उससे हमें छंदा के नाम में ही छुपा उसका पूरा विधान मिल जायेगा।

छंदाओं से संबन्धित पाठों का संयोजन छंदाओं को स्वरूप के अनुसार विभिन्न वर्गों में विभक्त करके किया गया है। इस कड़ी में सर्वप्रथम वृत्त छंदाएँ आती हैं।

वृत्त छंदा:- इन छंदाओं में केवल एक गुच्छक रहता है और उसी एक गुच्छक की कई आवृत्ति रहती है, इसीलिए इनका नाम वृत्त-छंदा दिया गया है। एक ही मात्रा क्रम की विभिन्न आवृत्ति से विशेष लय बनती है और इस बात से वे सभी लोग भलीभांति परिचित होंगे जो सवैया छंद से परिचित हैं। 

वृत्त छंदाओं में एक गुच्छक की 1, 2, 3, 4, 6 और 8 की आवृत्ति से कुल 6 प्रकार की छंदाएं मिलती हैं। एक की आवृत्ति के लिये छंदा में चार वर्ण होने आवश्यक हैं अतः त्रिवर्णी गण में एक की आवृत्ति की छंदाएँ नहीं हैं। 

वृत्त छंदाएँ सर्वाधिक प्रचलित छंद हैं। हिन्दी में विभिन्न नामों से ये छंद प्रचलित हैं। वृत्त छंदाओं की रचना छंदों के तीनों स्वरूप - वाचिक, मात्रिक और वर्णिक में होती है। उदाहरणार्थ - ईयग गणक की 4 आवृत्ति (1222*4) की वृत्त छंदा हर स्वरूप में प्रचलित है। हर स्वरूप में रचना करने के अलग अलग नियम हैं। इसी विभिन्नता को दृष्टिगत रखते हुए इस ग्रन्थ में हर स्वरूप की अलग छंदाएँ दी हुई हैं जिससे कि छंदा का नाम सामने आते ही यह पता चल जाय कि यह किस गुच्छक की, कितनी आवृत्ति की, छंद के किस स्वरूप की छंदा है। इसके मध्य में यदि यति है तो उसका भी पता चल जाये। छंदों के तीन स्वरूप निम्न हैं।

(1) वाचिक स्वरूप:- वाचिक रूप में उच्चारण की प्रधानता रहती है। एक शब्द में साथ साथ आये दो लघु सदैव गुरु वर्ण के रूप में प्रयुक्त होते  हैं। जहाँ भी दो लघु (11) दर्शाये जाएँगे वे सदैव 'ऊलल' वर्ण यानी स्वतंत्र लघु माने जाते हैं। यदि इन्हें एक शब्द में रखना है तो एक लघु की या दोनों लघु की मात्रा गिरानी आवश्यक है। मात्रा गिराने का अर्थ प्रत्यक्ष रूप में वर्ण तो दीर्घ है परन्तु उच्चरित लघु होता है।

मात्रा पतन:- मात्रा पतन के कुछ विशेष नियम हैं जिनके अन्तर्गत मात्रा पतन किया जा सकता है। वाचिक स्वरूप की छंदाओं में यह नियमों के अंतर्गत आता है और इस छूट के कारण रचनाकार को शब्द चयन का कुछ अतिरिक्त क्षेत्र मिल जाता है।

1- एक वर्णी कारक चिन्ह, सहायक क्रिया व अन्य शब्दों की मात्रा गिरा कर उन्हें लघु मान सकते हैं जैसे - का की हैं मैं था भी ही आदि। परन्तु संयुक्त अक्षर से युक्त ऐसे शब्दों की मात्रा नहीं गिराई जा सकती जैसे - क्यों क्या त्यों आदि।
2- शब्द के अंत के गुरु की मात्रा गिरा कर आवश्यकतानुसार लघु की जा सकती है। किंतु इसमें भी ऐ, औ की मात्रा नहीं गिराई जा सकती। 
3- शब्द के बीच या प्रारंभ में आये गुरु वर्ण की मात्रा नहीं गिराई जा सकती। परन्तु तेरा, मेरा, कोई जैसे कुछ शब्दों में दोनों अक्षरों की मात्रा गिराई जा सकती है। इसमें भी गायेगा, जाएगा, सिखायेगा जैसे शब्दों के मध्य के ये, ए को लघु की तरह गिना जा सकता है।
4- शास्वत दीर्घ यानि एक शब्द में साथ साथ आये दो लघु की मात्रा कभी भी नहीं गिराई जा सकती। इसी कारण से यह शास्वत दीर्घ कहलाता है।

मात्रा पतन के अतिरिक्त वाचिक स्वरूप में पदांत में लघु वृद्धि मान्य है। वैसे तो प्रायः छंदाओं की लघु वृद्धि की छंदाएँ अलग से दी गयी हैं। परन्तु गुर्वंत छंदाओं में रचनाकार लघु वृद्धि करने के लिए स्वतंत्र है। वाचिक में ग वर्ण से प्रारंभ होने वाले वर्ण तथा म से प्रारंभ होनेवाले गुच्छक के गुरु वर्ण को ऊलल (11) वर्ण में तोड़ने की छूट है यदि उस वर्ण के दोनों तरफ भी गुरु वर्ण रहे। जैसे रबगी छंदा के गी (22) को 112 रूप में लिया जा सकता है।

(2) मात्रिक छंद:- मात्रिक छंदों में किसी भी प्रकार का मात्रा पतन अमान्य है। इन छंदों में गुरु वर्ण को दो लघु में तोड़ा जा सकता है। मात्रिक छंदों में स्वतंत्र लघु की अवधारणा नहीं है, अतः 'ऊलल' वर्ण (11) को एक शब्द में शास्वत दीर्घ के रूप में रखा जा सकता है पर 'ऊलल' वर्ण दीर्घ में रूपांतरित नहीं हो सकता।

(3) वर्णिक छंद:- वर्णिक छंद की रचना सदैव गुच्छक में प्रयुक्त लघु गुरु के अनुरूप होनी चाहिए। न कोई मात्रा पतन होना चाहिए और न ही गुरु को दो लघु में तोड़ा जाना चाहिए। इन में भी स्वतंत्र लघु जैसी कोई विचारधारा नहीं है।

वृत्त छंदाओं के पश्चात हम गुरु छंदाओं का अध्ययन करेंगे। 

गुरु छंदाएँ:- जैसा कि नाम से स्पष्ट है, वे छंदाएँ जो केवल गुरु (2) और ईगागा वर्ण (22) तथा मगण, ईमग गणक (2222) और एमागग गणक (22222) के संयोग से बनी होती हैं। गुरु छंदाएँ समकल आधारित होती हैं और समस्त छंद बद्ध सृजन का आधार होती हैं। इनकी लय और गति अबाध शांत रूप से बहती कलकल करती सरिता के समान होती है। ये छंदाएँ द्विकल गुरु वर्ण (2), चौकल ईगागा (22), छक्कल मगण (222) और अठकल ईमग (2222) के संयोग से बनती हैं। ये छंदाएँ सामान्यतः 2*4 से प्रारंभ हो कर 2*16 तक बनती हैं।

मिश्र छंदाएँ:- वे छंदाएँ जिनमें एक से अधिक प्रकार के गुच्छक या गुच्छक और वर्ण रहते हैं। ये कई प्रकार की होती हैं। इन पर प्रारंभ के गण के आधार पर सात पाठों में पूर्ण प्रकाश डाला गया है। मिश्र छंदाओं के विषय में एक अलग से पाठ दिया गया है जिसमें इनकी पूर्ण व्याख्या की गयी है।

उपरोक्त समस्त प्रकार की छंदाओं की क्रमशः
वाचिक, मात्रिक और वर्णिक तीनों स्वरूप की छंदाएँ इस ग्रन्थ में दी गई हैं। साथ ही छंदाओं की लघु वृद्धि की छंदाएँ भी दी गई हैं।

इसके पश्चात हिन्दी की मात्रिक छंदों की छंदाएँ हैं अंत में वर्णिक छंदों की छंदाएँ दी गई हैं। इन्हींके अंतर्गत अलग पाठों में कवित्त और सवैया की छंदाएँ भी सम्मिलित की गई हैं।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Tuesday, December 6, 2022

सुचि और संदीप के विवाह की रजत जयंती


तारिख पच्चिस मास दिसम्बर की शुभ बेला आई।
घर की प्यारी मुनिया 'शुचिता' इस दिन हुई पराई।
प्रणयबन्ध में बन्ध वो लाडो हर्षित हो सकुचाई। 
पच्चिस वर्षों पूर्व जमी ये जोड़ी सबकी मन भाई।।

जीवन साथी संदीप संग जीवन की खुशियाँ लाई।
रौनक सा सुत और बार्बी मिष्टी सी बिटिया पाई।
मन के मीत और बच्चों संग सुघड़ गृहणी बन छाई।
दो दो घर को आज जोड़ती सबको लगे सुहाई।।

शादी की है रजत जयंती आज बड़ी है वो हरषाई।
बच्चे जीवन साथी को ले पावन गंगा तट पर आई।
संग मनाये रजत जयंती भैया भाभी देत बधाई।
जीवन की हर खुशियाँ पाओ सदा रहो यूँ ही मुस्काई।।

बासुदेव अग्रवाल नमन 
25-12-2018

Friday, December 2, 2022

लावणी छंद "सच्ची कमाई"

सच्ची तुम ये किये कमाई, मानुस तन जो यह पाया।
देवों को भी जो है दुर्लभ, तुमने पायी वह काया।।
इस कलियुग में जन्म लिया फिर, नाम जपे नर तर जाये।
अन्य युगों के वर्षों का फल, इसमें तुरत-फुरत पाये।।

जन्मे तुम उस दिव्य धरा पर, देव रमण जिस पर करते।
शुभ संस्कार मिले ऋषियों के, भव-बन्धन जो‌ सब हरते।।
नर-तन में प्रभु भारत भू पर, बार बार अवतार लिये।
कर लीला हर भार भूमि का, उपकारी उपदेश दिये।।

धर्म सनातन जिसमें सोहे, ऐसा अनुपम गेह मिला।
गीता रामायण सम प्यारे, कुसुमों से यह देह खिला।।
वेद पुराण भागवत पावन, सीख सदा सच्ची देवें।
इस जीवन अरु जन्मांतर के, बंधन सारे हर लेवें।।

मंदिर के घण्टा घोषों से, भोर यहाँ पर होती है।
मधुर आरती की गूँजन में, सांध्य निशा में खोती है।।
कीर्तन और भजन के सुर से, दिग्दिगन्त अनुनादित हैं।
सद्सिद्धांत यहाँ जीने के, पहले से प्रतिपादित हैं।।

वातावरण यहाँ ऐसा है, सत्संगत जितनी कर लो।
हरि का नाम धार के भव के, सारे कष्टों को हर लो।।
जप, तप, ध्यान, दान के साधन,‌ चाहो‌ जितने अपना लो।
नाना व्रत धारण कर सारी, जीवन की विपदा टालो।।

मार्ग प्रसस्त करे पग पग पर, सब का संतों की वाणी।
जग का सार बताए जिससे, लाभान्वित हो हर प्राणी।।
है यह सार्थक तभी कमाई, इसका सद्उपयोग करें।
जीवन सफल बनाएँ अपना, और जगत के दुःख हरें।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
01-06-17