'सवैया छंद'
सवैया छंद चार चरणों का वर्णिक छंद है जिसके प्रति चरण में 22 से 26 तक वर्ण रहते हैं। चारों चरण समतुकांत होते हैं। सवैया किसी गण पर आश्रित होता है जिसकी 7 या 8 आवृत्ति रहती है। इन्ही आवृत्तियों के प्रारंभ में एक या दो साधारणतया लघु वर्ण और अंत में एक या दो लघु गुरु वर्ण जोड़ कर इस छंद के अनेक विभेद मिलते हैं।
आवृत्ति का रूप या तो गुरु लघु लघु (211) रहता है या फिर गुरु गुरु लघु (221) और यही सवैया छंद की विशेषता है और इसके माधुर्य का कारण है। इस आवृत्ति से एक लय का सृजन होता है जो समस्त भगण (211) आश्रित सवैयों की एक समान क्षिप्र गति की रहती है और तगण (221) आश्रित सवैयों की एक समान मन्द गति की रहती है।
हिन्दी के भक्तिकाल और रीतिकाल से ही विभिन्न प्रकार के सवैये प्रचलित रहे हैं। तुलसी की कवितावली में विभिन्न प्रकार के सवैये मिलते हैं। उन्होंने एक ही सवैये में एक से अधिक प्रकार के सवैये मिला कर अनेक उपजाति सवैये भी रचे हैं।
रीतिकालीन कवियों जैसे पद्माकर, देव आदि ने श्रृंगार रस के विभिन्न अंगों, विभाव, अनुभाव, आलम्बन, उद्दीपन, संचारी, नायक-नायिका भेद आदि के लिए इनका चित्रात्मक तथा भावात्मक प्रयोग किया है।रसखान, घनानन्द, केशव जैसे प्रेमी-भक्त कवियों ने भक्ति-भावना के उद्वेग तथा आवेग की सफल अभिव्यक्ति सवैया में की है।भूषण ने वीर रस के लिए इस छंद का प्रयोग किया है। आधुनिक कवियों में हरिश्चन्द्र, जगन्नाथ रत्नाकर, दिनकर ने इनका सुन्दर प्रयोग किया है।
सवैया छंद में उर्दू की ग़ज़ल की तरह गुरु वर्ण को लघु मानने की परंपरा रही है। लगभग तुलसी से लेकर आधुनिक कवियों तक, समस्त कवि गण ने निशंकोच सवैयों में यह छूट ली है। कुछेक छंदों में यह मान्य है कि कारक की विभक्तियों के एकाक्षरी शब्द लघु की तरह व्यवहार में लाये जा सकते हैं। जैसे-
कर्ता - ने को न की तरह उच्चारित किया जा सकता है.
कर्म - को इसे क पढ़ा जा सकता है.
करण, अपादान - से स की तरह पढ़ सकते हैं.
सम्बन्ध - का, के, की के लिए भी मात्र क कहा जा सकता है.
अधिकरण - में, पे आदि क्रमशः मँ और प की तरह उच्चारित हो सकते हैं.
इसके अतिरिक्त एक शब्द की सहायक क्रियाएँ, सर्वनाम और अव्यय शब्द जैसे है, हैं, था, ही, भी, जो, तो इत्यादि भी आवश्यकतानुसार लघु माने जाते रहे हैं।
अब कुछ प्रमुख कवियों के ऐसे प्रयोग के उदाहरण देखें।
जहाँ सब संकट, दुर्गट सोचु, तहाँ मे'रो' साहे'बु राखै' रमैया॥ (तुलसी कवितावली 'वाम सवैया')
मानुष हौं तो' वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के' ग्वारन।
जो पसु हौं तो' कहा बस मेरो' चरौं नित नंद की' धेनु मँझारन।। (रसखान 'किरीट सवैया')
वह खड्ग लिए था' खड़ा, इससे मुझको भी' कृपाण उठाना था क्या ?
द्रौ'पदी के' पराभव का बदला कर देश का' नाश चुकाना था क्या ? (दिनकर 'मगणान्त दुर्मिल सवैया'')
पैहौं' कहाँ ते' अटारी' अटा, जिनके विधि दीन्ही' है' टूटी' सी' छानी।
जो पै' दरिद्र लिख्यो है' लिलार, तो' काहू' पै' मेटि न जात अजानी।।(नरोत्तम दास 'मत्तगयंद सवैया')
परन्तु आजकल के तथाकथित स्वयंभू आचार्य न जाने क्यों ऐसी एक छूट भी देख रचना को ही सिरे से नकार देते हैं, जो कि इस बहुआयामी छंद के विकास में बाधक ही है।
नीचे भगण आश्रित 14 सवैया छंद और तगण आश्रित 6 सवैया छंद की तालिका दी गई है। चरणान्त के अनुसार विभागों में भी बाँटे गए हैं। कोई चाहे तो एक विभाग के सवैये मिश्रित कर उपजाति सवैये भी रच सकता है।
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भगण = 211 आश्रित सवैये
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1) मत्तगयन्द सवैया - 211*7 + 22
2) सुन्दरी सवैया - 11+211*7 + 22
3) वाम सवैया - 1+211*7 + 22
4) मोद सवैया - 211*5+222+11+ 22
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5) मदिरा सवैया - 211*7 + 2
6) दुर्मिल सवैया - 11 +211*7 + 2
7) सुमुखी सवैया - 1 +211*7 + 2
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8) चकोर सवैया - 211*7 + 21
9) अरविन्द सवैया - 11 +211*7 + 21
10) मुक्ताहरा सवैया - 1+211*7 + 21
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11) किरीट सवैया - 211*8
12) सुखी सवैया - 11+211*8
13) लवंगलता सवैया - 1+211*8
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14) अरसात सवैया - 211*7 + 212
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तगण = 221 आश्रित सवैये
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15) मंदारमाला सवैया - 221*7 + 2
16) गंगोदक सवैया - 21+221*7 + 2
17) वागीश्वरी सवैया - 1+221*7 + 2
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18) सर्वगामी सवैया - 221*7 + 22
19) भुजंगप्रयात सवैया - 1+221*7 + 22
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20) आभार सवैया - 221*8
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
29-04-19
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