Thursday, January 16, 2020

मुक्तक (इश्क़, दिल)

उल्फ़त में चोट खाई उसका उठा धुँआ है,
अब दिल कहाँ बचा है सुलगी हुई चिता है,
होती है खुद से दहशत जब दिल की देखुँ वहशत,
इस मर्ज की सबब जो वो ही फकत दवा है।

(221  2122)*2
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हमारा इश्क़ अब तो ख्वाबिदा होने लगा है,
वहीं अब उनसे मिलना बारहा होने लगा है,
मुझे वे देख, नज़रों को झुका, झट से देते चल,
ख़ुदा क्यों उनसे अब यूँ सामना होने लगा है।

(1222*3 + 122)
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दिले नादान हालत क्यों तेरी इतनी हुई नाज़ुक,
कहीं क्या फिर नई इक बेवफ़ा तुझको मिली नाज़ुक,
हसीनों की भला फ़ितरत को तू क्या जान पायेगा,
रखे सीने में पत्थर दिल मगर लगतीं बड़ी नाज़ुक।

(1222×4)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-09-16

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