ग़ज़ल (इश्क़ की मेरी इब्तिदा है वो)
बह्र:- 2122 1212 22
इश्क़ की मेरी इब्तिदा है वो,
हमनवा और दिलरुबा है वो।
मेरा दिल तो है एक दरवाज़ा,
हर किसी के लिए खुला है वो।
आँख से जो चुरा ले काजल भी,
अपने फ़न में मजा हुआ है वो।
बाँध पट्टी जो जीता आँखों पे,
बैल जैसा ही जी रहा है वो।
आदमी खुद को जो ख़ुदा समझे,
पूरा अंदर से खोखला है वो।
दोष क्या दूसरों का है इस में,
अपनी नज़रों से खुद गिरा है वो।
दिल उसे बा-वफ़ा भले ही कहे,
जानता हूँ कि बेवफ़ा है वो।
खुद में खुद को ही ढूंढ़ता जो बशर,
पारसा वो नहीं तो क्या है वो।
जो 'नमन' जग के वास्ते जीता,
ज़िंदगी अपनी जी चुका है वो।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
8-10-19
No comments:
Post a Comment