बह्र:- 221 2121 1221 212
ढूँढूँ भला ख़ुदा की मैं रहमत कहाँ कहाँ,
अब क्या बताऊँ उसकी इनायत कहाँ कहाँ।
सहरा, नदी, पहाड़, समंदर ये दश्त सब,
दिखलाएँ सब ख़ुदा की ये वुसअत कहाँ कहाँ।
हर सिम्त हर तरह के दिखे उसके मोजिज़े,
जैसे ख़ुदा ने लिख दी इबारत कहाँ कहाँ।
अंदर जरा तो झाँकते अपने को भूल कर,
बाहर ख़ुदा की ढूँढते सूरत कहाँ कहाँ।
रुतबा-ओ-ज़िंदगी-ओ-नियामत ख़ुदा से तय,
इंसान फिर भी करता मशक्कत कहाँ कहाँ।
इंसानियत अता तो की इंसान को ख़ुदा,
फैला रहा वो देख तु दहशत कहाँ कहाँ।
कहता 'नमन' कि एक ख़ुदा है जहान में,
जैसे भी फिर हो उसकी इबादत कहाँ कहाँ।
सहरा = रेगिस्तान
दश्त = जंगल
वुअसत = फैलाव, विस्तार, सामर्थ्य
सिम्त = तरफ, ओर
मोजिज़े = चमत्कार (बहुवचन)
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08-07-2017
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