Wednesday, May 12, 2021

सार छंद "पुष्प"

सार छंद / ललितपद छंद

अहो पुष्प तुम देख रहे हो, खिलकर किसकी राहें।
भावभंगिमा में भरते हो, किसकी रह रह आहें।।
पुष्पित हो तुम पूर्ण रूप से, ऐंठे कौन घटा पर।
सम्मोहित हो रहे चाव से, जग की कौन छटा पर।।

लुभा रहे भ्रमरों को अपने, मधुर परागों से तुम।
गूँजित रहते मधुपरियों के, सुंदर गीतों से तुम।।
कौन खुशी में वैभव का यह, जीवन बिता रहे हो।
आज विश्व प्राणी को इठला, क्या तुम दिखा रहे हो।।

अपनी इस आभा पर प्यारे, क्यों इतना इतराते।
अपने थोड़े वैभव पर क्यों, फूले नहीं समाते।।
झूम रहे हो आज खुशी से, तुम जिन के ही श्रम से।
बिसरा बैठे उनको अपने, यौवन के इस भ्रम से।।

मत भूलो तुम होती है, किंचित् ये हरियाली।
चार दिनों के यौवन में ये, थोड़ी सी खुशियाली।।
आज हँसी के जीवन पर कल, क्रंदन तो छाता है।
वृक्षों में भी इस बसन्त पर, कल पतझड़ आता है।।

क्षणभंगुर इस जीवन पर तुम, मत इठलाओ प्यारे।
दल, मकरंद चार दिन में ही, हो जायेंगे न्यारे।।
जितनी खुशबू फैला सकते, जल्दी ही फैला लो।
हँसते खिलते खुशियाँ बाँटो, जीवन अमर बना लो।।

नेकी कर कुंए में डालो, और न जोड़ो नाता।
सब अपनी ज्वाला में जलते, कोई किसे न भाता।।
स्वार्थ भाव से जग यह चलता, इतराओ तुम काहे।
दूजों के श्रम-कण पर आश्रित, जग तो रहना चाहे।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
13-05-16

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