Sunday, September 20, 2020

गुर्वा (पीड़ा)

अत्याचार देख भागें,

शांति शांति चिल्लाते,

छद्म छोड़ अब तो जागें।

***


पीड़ा सारी कहता,

नीर नयन से बहता,

अंधी दुनिया हँसती।

***


बाढ कहीं तो सूखा है,

सिसक रहे वन उजड़े,

मनुज लोभ का भूखा है,

***


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तिनसुकिया

28-04-20

Wednesday, September 16, 2020

ग्रंथि छंद (गीतिका, देश का ऊँचा सदा, परचम रखें)

2122 212, 2212

देश का ऊँचा सदा, परचम रखें,
विश्व भर में देश-छवि, रवि सम रखें।

मातृ-भू सर्वोच्च है, ये भाव रख,
देश-हित में प्राण दें, दमखम रखें।

विश्व-गुरु भारत रहा, बन कर कभी,
देश फिर जग-गुरु बने, उप-क्रम रखें।

देश का गौरव सदा, अक्षुण्ण रख,
भारती के मान को, चम-चम रखें।

आँख हम पर उठ सके, रिपु की नहीं,
आत्मगौरव और बल, विक्रम रखें।

सर उठा कर हम जियें, हो कर निडर,
मूल से रिपु-नाश का, उद्यम रखें।

रोटियाँ सब को मिलेंं, छत भी मिले,
दीन जन की पीड़ लख, दृग नम रखें।

हम गरीबी को हटा, संपन्न हों,
भाव ये सारे 'नमन', उत्तम रखें।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
09-08-20

Wednesday, September 9, 2020

दोहे (श्राद्ध-पक्ष)

दोहा छंद

श्राद्ध पक्ष में दें सभी, पुरखों को सम्मान।
वंदन पितरों का करें, उनका धर हम ध्यान।।

रीत सनातन श्राद्ध है, इस पर हो अभिमान।
श्रद्धा पूरित भाव रख, मानें सभी विधान।।

द्विज भोजन बलिवैश्व से, करें पितर संतुष्ट।
उनके आशीर्वाद से, होते हैं हम पुष्ट।।

पितर लोक में जो बसे, कर असीम उपकार।
बन कृतज्ञ उनका सदा, प्रकट करें आभार।।

मिलता हमें सदा रहे, पितरों का वरदान।
भरें रहे भंडार सब, हों हम आयुष्मान।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
01-09-20

मधुमती छंद

मधुवन महके।
शुक पिक चहके।।
जन-मन सरसे।
मधु रस बरसे।।

ब्रज-रज उजली।
कलि कलि मचली।।
गलि गलि सुर है।
गिरधर उर है।।

नयन सजल हैं।
वयन विकल हैं।।
हृदय उमड़ता।
मति मँह जड़ता।।

अति अघकर मैं।
तव पग पर मैं।।
प्रभु पसरत हूँ।
'नमन' करत हूँ।
===========

लक्षण छंद:-

"ननग" गणन की।
मधुर 'मधुमती'।।

"ननग" :- 111 111 2 (नगण नगण गुरु)
चार चरण, दो-दो चरण समतुकांत
*************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-08-20

Saturday, September 5, 2020

ग़ज़ल (जगमगाते दियों से मही खिल उठी)

बह्र:- 212*4

जगमगाते दियों से मही खिल उठी,
शह्र हो गाँव हो हर गली खिल उठी।

लायी खुशियाँ ये दीपावली झोली भर,
आज चेह्रों पे सब के हँसी खिल उठी।

आप देखो जिधर नव उमंगें उधर,
हर महल खिल उठा झोंपड़ी खिल उठी।

सुर्खियाँ सब के गालों पे ऐसी लगे,
कुमकुमे हँस दिये रोशनी खिल उठी।

आज छोटे बड़े के मिटे भेद सब,
सबके मन में खुशी की कली खिल उठी।

नन्हे नन्हे से हाथों में भी हर तरफ,
रोशनी से भरी फुलझड़ी खिल उठी।

दीप उत्सव पे ग़ज़लों की रौनक 'नमन'
ब्लॉग में दीप की ज्योत सी खिल उठी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08-10-2017

ग़ज़ल (नहीं जो चाहते रिश्ते)

बह्र:- 1222 1222 1222 1222

नहीं जो चाहते रिश्ते अदावत और हो जाती,
न होते अम्न के कायल सियासत और हो जाती,

दिखाकर बुज़दिली हरदम चुभाता पीठ में खंजर,
अगर तू बाज़ आ जाता मोहब्बत और हो जाती।

घिनौनी हरक़तें करना तेरी तो है सदा आदत,
बदल जाती अगर आदत तो फ़ितरत और हो जाती।

जो दहशतगर्द हैं पाले यहाँ दहशत वो फैलाते, 
इन्हें बस में जो तू रखता शराफ़त और हो जाती।

नहीं कश्मीर तेरा था नहीं होगा कभी आगे,
न जाते पास 'हाकिम' के शिकायत और हो जाती।

नहीं औकात कुछ तेरी दिखाता आँख फिर भी तू,
पड़ा जो सामने होता ज़लालत और हो जाती।

मसीहा कुछ बड़े आका नचाते तुझको बन रहबर,
मिलाता हाथ हमसे तो ये शुहरत और हो जाती।

नहीं पाली कभी हमने तमन्ना जंग की दिल में,
अगर तुझ सा मिले दुश्मन तो हसरत और हो जाती।

तमन्ना तू ने पैदा की कि दो दो हाथ हो जाये,
दिखे हालात जब ऐसे तो हिम्मत और हो जाती।

दिलों में खाइयाँ गहरी वजूदों की ओ मजहब की,
इन्हें भरता अगर तू मिल हक़ीक़त और हो जाती।

बढ़ाने देश का गौरव 'नमन', सजदा करें सब मिल,
खुदा की इस वतन पर ये इनायत और हो जाती।

(फ़ितरत=स्वभाव, रहबर=पथ प्रदर्शक, अदावत=लड़ाई, ज़लालत=तिरस्कार या अपमान)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-09-2016

ग़ज़ल (इरादे इधर हैं उबलते हुए)

बह्र: 122 122 122 12

इरादे इधर हैं उबलते हुए,
उधर सारे दुश्मन दहलते हुए।

नये जोश में हम उछलते हुए,
चलेंगे ज़माना बदलते हुए।

हुआ पांच सदियों का वनवास ख़त्म,
विरोधी दिखे हाथ मलते हुए।

अगर देख सकते जरा देख लो,
हमारे भी अरमाँ मचलते हुए।

रहे जो सिखाते सदाकत हमें,
मिले वो जबाँ से फिसलते हुए।

न इतना झुको देख पाओ नहीं,
रकीबों के पर सब निकलते हुए।

बढेंगे 'नमन' सुन लें गद्दार सब,
तुम्हें पाँव से हम कुचलते हुए।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-08-20

Saturday, August 22, 2020

गुर्वा (भक्ति)

शारद वंदन:-

वंदन वीणा वादिनी,
मात ज्ञान की दायिनी,
काव्य बोध का मैं कांक्षी।
***

राम नाम:-

राम नाम है सार प्राणी,
बैल बना तू अंधा,
जग है चलती घाणी।
***

सरयू के तट पर बसी,
धूम अयोध्या में मची,
ज्योत राम मंदिर की जगी।
***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-08-20

Tuesday, August 18, 2020

मुक्तक (उद्देश्य,स्वार्थ)

बेवज़ह सी ज़िंदगी में कुछ वज़ह तो ढूंढ राही,
पृष्ठ जो कोरे हैं उन पर लक्ष्य की फैला तु स्याही,
सामने उद्देश्य जब हों जीने की मिलती वज़ह तब,
जीएँ जो मक़सद को ले के चीज पाएँ हर वे चाही।

(2122*4)
**********

वैशाखियों पे ज़िंदगी को ढ़ो रहे माँ बाप अब,
वे एक दूजे का सहारा बन सहे संताप सब,
सन्तान इतनी है कृतघ्नी घोर स्वारथ में पगी,
माँ बाप चाहे मौत निश दिन अरु मिटे भव-ताप कब।

(हरिगीतिका  (2212*4)
*********

ऐसा है कौन आज फरिश्ता कहें जिसे,
कोई बता दे एक मसीहा कहें जिसे,
देखें जिधर भी आज है बस दौर स्वार्थ का ,
इससे बचा न एक भी अच्छा कहें जिसे।

(221 2121 1221 212)
***********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-03-18

मुक्तक (इश्क़, दिल -2)

लग रहा है यार मेरा हमसफ़र होने को है,
सद्र जो दिल का था अब तक सद्र-ए-घर होने को है,
उनके आने से सँवर जाएगा उजड़ा आशियाँ,
घर बदर जो हो रहा था घर बसर होने को है।

हाय ये तेरा तसव्वुर मुझको जीने भी न दे,
ज़ीस्त का जो फट गया चोगा वो सीने भी न दे,
अब तो मयखानों में भी ये छोड़ता पीछा नहीं,
ग़म गलत के वास्ते दो घूँट पीने भी न दे।

(2122*3  212)
*********

बढ़ने दो प्यार की बात को,
औ' मचलने दो जज्बात को,
हो न पाये सहर अब कभी,
रोक लो आज की रात को।

(212*3)
**********

ओ नादाँ क्या हुआ था
बता क्या माज़रा था
क्या गहरा था समन्दर
तुझे दिल डूबना था।।

(1222 122)
***********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-09-16

पुछल्लेदार मुक्तक 'आधुनिक फैशन'

फटी जींस अरु तंग टॉप है, कटे हुए सब बाल है।
ऊंची सैंडल में तन लचके, ज्यों पतली सी डाल है।
ठक ठक करती चाल देख के, धक धक जी का हाल है,
इस फैशन के कारण जग में, इतना मचा बवाल है।।

आधुनिकता का है बोलबाला,
दिमागों का दिवाला,
आफत का परकाला,
बासुदेव कहाँ लेकर ये जाये,
हम तो देख देख इसको अघाये।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-02-19

Wednesday, August 12, 2020

सार छंद "कुत्ता और इंसान"

सार छंद / ललितपद छंद

एक गली का कुत्ता यक दिन, कोठी में घुस आया।
इधर उधर भोजन को टोहा, कई देर भरमाया।।
तभी पिंजरा में विलायती, कुत्ता दिया दिखाई।
ज्यों देखा, उसके समीप आ, हमदर्दी जतलाई।।

हाय सखा क्या हालत कर दी, आदम के बच्चों ने।
बीच सलाखों दिया कैद कर, तुझको उन लुच्चों ने।।
स्वामिभक्त बन नर की सेवा, तन मन से हमने की।
अत्याचारों की सीमा पर, सदा पार इसने की।।

जिन पशुओं ने कदम कदम पर, इसका साथ दिया है।
पर इसने बेदर्दी दिखला, उनका कत्ल किया है।।
रंग बदलने में इसकी नहिं, जग में कोई सानी।
गिरगिट को भी करे पराजित, इसकी मधुरिम बानी।।

सत्ता पाकर जब ये मद में, गज-सम हो जाता है।
जग को भी अपने समक्ष तब, ये अति लघु पाता है।।
गेह बनाना इससे सीखें, दूजों की आहों पर।
अपने से अबलों को रौंदे, नित नव चालें रच कर।।

मृदु वचनों से मन ये जीते, पर मन में विष भारी।
ढोंग दिखावा कर के ही ये, बनता धर्माचारी।।
सर्वश्रेष्ठ संपूर्ण जगत में, भगवन इसे बनाये।
स्वार्थ लोभ में घिर परन्तु ये, जग में रुदन मचाये।।

मतलब के अंधे मानव ने, छोड़े कब अपने ही।
रच प्रपंच दिखलाता रहता, बस झूठे सपने ही।।
हम कुत्तों की फिर क्या गिनती, उसके आगे भाई।
जग में इस नर-पशु से बढ़कर, आज नहीं हरजाई।।

लिंक --> सार छंद / ललितपद छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-4-16

मनहरण घनाक्षरी "प्रीत"

प्रीत की है तेज धार, पैनी जैसे तलवार,
इसपे कदम आगे, सोच के बढ़ाइए।

मुख पे हँसी है छाई, दिल में जमी है काई,
प्रीत को निभाना है तो, मैल ये हटाइए।

छोटा-बड़ा ऊँच-नीच, चले नहीं प्रीत बीच,
पहले समस्त ऐसे, भेद को मिटाइए।

मान अपमान भूल, मन में रखें न शूल,
प्रीत में तो शीश को ही, हाथ में सजाइए।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03-06-2017

दोहे (आस)

दोहा छंद

आस अधिक मत पालिए, सब के मत हैं भिन्न।
लगे निराशा हाथ तो, रहे सदा मन खिन्न।।

गीता के सिद्धांत को, मन में लेवें धार।
कर्म आपके हाथ में, फल पर नहिं अधिकार।।

आस तहाँ नहिं पालिए, लोग खींचते पैर।
मीनमेख निकले सदा, राख हृदय में वैर।।

नहीं अन्य से बांधिए, कभी आस की डोर।
सबकी अपनी सोच है, नहीं किसी पे जोर।।

मन के सारे कष्ट की, अधिक आस है मूल।
पूरित जब नहिं आस हो, रहे हृदय में शूल।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-11-16

Friday, August 7, 2020

ग़ज़ल (रोज ही काम को टाल के आलसी)

बह्र:- 212*4

रोज ही काम को टाल के आलसी,
घर में रह खाट को तोड़ते आलसी।

ज़िंदगी ज़रिया आराम फ़रमाने का,
इस के आगे न कुछ सोचते आलसी।

आसमां में बनाते किले रेत के,
व्यर्थ की सोच को पाल के आलसी।

लौट वापस कभी वक़्त आता न जो,
छोड़ कल पे गवाँ डालते आलसी।

आदमी के लिए कुछ असंभव नहीं,
पर न खुद पे भरोसा रखे आलसी।

बोझ खुद पे औ' दूजों पे बन के जिएं,
ज़िंदगी के भँवर में फँसे आलसी।

हाथ पे हाथ धर यूँ ही बैठे 'नमन',
भाग्य को दोष दे कोसते आलसी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03-09-2016

ग़ज़ल (बुझी आग फिर से जलाने लगे हैं)

बह्र :- 122*4

बुझी आग फिर से जलाने लगे हैं,
वे फितरत पुरानी दिखाने लगे हैं।

गुलों से नवाजा सदा जिनको हम ने,
वे पत्थर से बदला चुकाने लगे हैं।

जबाब_उन की हिम्मत लगी जब से देने,
वे चूहों से हमको डराने लगे हैं।

दुनाली का बदला मिला तोप से जब,
तभी होश उनके ठिकाने लगे हैं।

मजा आ रहा देख कर उनको यारो,
जो खा मुँँह की अब तिलमिलाने लगे हैं।

मिली चोट ऐसी भुलाये न भूले,
हकी़क़त वे इसकी छिपाने लगे हैं।

'नमन' बाज़ आयें वे हरक़त से ओछी,
जो भारत पे आँखें गड़ाने लगे हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-06-20

ग़ज़ल (कोरोना का क्यों रोना है)

बह्र:- 22  22  22  22

कोरोना का क्यों रोना है,
हाथों को रहते धोना है।

दो गज की दूरी रख कर के,
सुख की नींद हमें सोना है।

बीमारी है या दुनिया पर,
ये चीनी जादू टोना है।

यह संकट भी टल जायेगा,
धैर्य हमें न जरा खोना है।

तन मन का संयम बस रखना,
चाहे फिर हो जो होना है।

कोरोना की बंजर भू पर,
हिम्मत की फसलें बोना है।

चाल नमन गहरी ये जिससे,
पीड़ित जग का हर कोना है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-07-20

Wednesday, July 22, 2020

आरोही अवरोही पिरामिड (रिश्ते नाते)

(1-7 और 7-1)

(रिश्ते नाते)

ये
नये
पुराने
रिश्ते नाते
जो बन गये।
हिचकोले खाते
दिलों में सज गये।

कभी तो हँसाते हैं
कभी रुलाते ये।
अब तो बस
धीरे धीरे
जा रहे
खोते
ये।
*****
(भारत देश)

ये
देश
हमारा
दुनिया में
सबसे न्यारा।
प्राणों से भी ज्यादा
ये है हमको  प्यारा।

धर्म भेरी  गूंजाई
ज्ञान विश्व को दे।
दूत शांति का
सदा रहा
भारत
देश
ये।
*****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-04-18

गुर्वा (कोरोना)

(1)

कोरोना बीमारी,
सांसों पर भारी,
दुनिया सारी हारी।
***

(2)

चीन देश का नया खिलौना,
कोविड रोग भयंकर,
खेल रहा जग आंसू भर।
***
(3)

विपद बड़ी है कोरोना,
मास्क धार धर धीर सहो,
धोते सारे हाथ रहो।
***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-06-20

चोका (किसान)

(चोका कविता) जापानी विधा:-
5-7, 5-7, 5-7 -------- +7 वर्ण प्रति पंक्ति

अरे किसान
तू कितना महान
क्या क्या गिनाएँ?
तू है गुणों की खान।
तेरी ये खेती
सुख सुविधा देती
भूख मिटाती
जीवन नौका खेती।
हल न रुके
बाधाओं से न झुके
पसीना बहा
सोते हो पर भूखे।
कर्ज में डूबा
तू रहता प्रसन्न
उपजा अन्न
देश करो संपन्न।
तुझे क्या मिला?
मेहनत का सिला
मौसम बैरी
पर न कोई गिला।
आह तू भरे
आत्महत्या भी करे
पर सब की
भूख भी तू ही हरे।
सत्ता लाचार
निर्मोही सरकार
पर तू निर्विकार।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-06-19