Tuesday, January 17, 2023

ग़ज़ल (जो सब से बराबर खुशी बाँटता है)

बह्र:- 122 122 122 122

जो सब से बराबर खुशी बाँटता है,
डरा उससे हर दूर ग़म भागता है।

उठाले ए इंसान हस्ती को इतनी,
मिले तुझको वो सब जो तू सोचता है।

सनम याद में तेरी तड़पूँ बहुत ही,
मनाये भी ये दिल नहीं मानता है।

अमीरी गरीबी से क्या फ़र्क पड़ता,
जमाना किसी को नहीं बक्शता है।

बता दे हमें एक भी शख़्स ऐसा,
हुई जिन्दगी में न जिससे ख़ता है।

मुहब्बत की नजरों से दुनिया जो देखे,
उसी आदमी को खुदा चाहता है।

छुपायेगा कैसे 'नमन' उससे जिस को,
तेरी सारी गुस्ताखियों का पता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
08.01.23

Friday, January 13, 2023

चौपई छंद "चूहा बिल्ली"

चौपई छंद / जयकरी छंद

(बाल कविता)

म्याऊँ म्याऊँ के दे बोल।
आँखें करके गोल मटोल।।
बिल्ली रानी है बेहाल।
चूहे की बन काल कराल।।

घुमा घुमा कर अपनी पूँछ।
ऊपर नीचे करके मूँछ।।
पंजों से दे दे कर थाप।
मूषक लेना चाहे चाप।।

छोड़ सभी बाकी के काज।
चूँ चूँ की दे कर आवाज।।
मौत खड़ी है सिर पर जान।
चूहा भागा ले कर प्रान।।

ज्यों कड़की हो बिजली घोर।
झपटी बिल्ली दिखला जोर।।
पंजा मूषक सका न झेल।
'नमन' यही जीवन का खेल।।
***********

चौपई छंद / जयकरी छंद विधान - 

चौपई छंद जो जयकरी छंद के नाम से भी जाना जाता है,15 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है। कहीं कहीं इसका जयकारी छंद नाम भी मिलता है। यह तैथिक जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। 

चौपई छंद से मिलते-जुलते नाम वाले अत्यंत ही प्रसिद्ध चौपाई छंद से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये। चौपाई छंद 16 मात्राओं का छंद है जिसके चरणान्त से एक लघु निकाल दिया जाय तो चरण की कुल मात्रा 15 रह जाती है और चौपाई छंद से मिलता जुलता नाम चौपई छंद हो जाता है। इस प्रकार चौपई छंद का चरणान्त गुरु-लघु रह जाता है जो इसकी मूल पहचान है। 

इन 15 मात्राओं की मात्रा बाँट:- 12 + S1 है। 12 मात्रिक अठकल चौकल, चौकल अठकल या तीन चौकल हो सकता है। अठकल में दो चौकल या 3 3 2 मात्रा हो सकती है। चौपई छंद के सम्बन्ध में एक तथ्य यह भी सर्वमान्य है कि चौपई छंद बाल साहित्य के लिए बहुत उपयोगी है, क्योंकि इसमें गेयता अत्यंत सधी होती है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
06-06-22

Tuesday, January 10, 2023

छंदा सागर (कल विवेचना)

                       पाठ - 06

छंदा सागर ग्रन्थ


"कल विवेचना"


कला शब्द मात्रा का पर्यायवाची है जिससे कल शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। कल विवेचना अर्थात मात्राओं की विवेचना। हिंदी के मात्रिक छंद गणों और वर्ण की संख्याओं से मुक्त होते हैं परन्तु उनमें मात्राओं का अनुशासन रहता है और यह अनुशासन कलों पर आधारित रहता है। मात्रिक छंदों के विस्तृत संसार में प्रवेश करने के पूर्व कलों की पूर्ण समीक्षा आवश्यक है। प्रस्तुत पाठ में हम विभिन्न कलों की संरचना, उनके नियम और उनके नामकरण के विषय में विस्तार से जानकारी प्राप्त करेंगे। 

स्थूल रूप से समस्त कलों के दो विभाग हैं। इसके बाद मात्रा की संख्या के आधार पर उन दो विभागों में कई कल हैं। जिनमें मात्राओं की संख्या दो से विभाजित हो सकती हैं वे समकल कहलाते हैं जैसे द्विकल, चौकल, छक्कल, अठकल आदि। जिनमें मात्रा की संख्या दो से विभाजित न हो वे विषमकल कहलाते हैं जैसे त्रिकल, पंचकल, सतकल आदि।

कलों के संकेतक:- किसी भी छंद की छंदा के निर्माण में संकेतक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं अतः सर्वप्रथम हम विभिन्न कलों के संकेतक सुनिश्चित करते हैं। समकल अर्थात दो से विभाजित संख्या की मात्राएँ। इनके लिए हमारे पास पहले से ही संकेतक हैं।
2 मात्रा (द्विकल) गुरु वर्ण, संकेत ग या गा
22 = 4 मात्रा (चौकल) ईगागा वर्ण, संकेत गि या गी
222 = 6 मात्रा (छक्कल) मगण, संकेत म या मा
2222 = 8 मात्रा (अठकल) ईमग गणक, संकेत मि या मी।

समकल का प्रयोग मात्रिक, वर्णिक और वाचिक तीनों स्वरूप की छंदाओं में होता है परन्तु प्रयोग में विभिन्नता है। मात्रिक छंदाओं में इनका प्रयोग कल आधारित नियमों के अनुसार होता है जिसकी विवेचना हम इसी पाठ में पुनः करेंगे। वर्णिक छंदाओं में 2 सदैव दीर्घ वर्ण ही रहता है। वाचिक छंदाओं में 2 को दीर्घ वर्ण के रूप में भी रखा जा सकता है तथा शास्वत दीर्घ (एक शब्द में साथ साथ आये दो लघु) के रूप में भी रखा जा सकता है। गुरु छंदाएँ जिनमें केवल गुरु यानी 2 का प्रयोग होता है, उनके वाचिक स्वरूप में 2 को दो स्वतंत्र लघु में भी तोड़ सकते हैं यानी दो शब्दों में साथ साथ आये दो लघु।

विषमकल के लिए हमारे पास कोई पूर्वनिर्धारित वर्ण या गुच्छक नहीं है। इसका कारण यह है कि समकल में केवल 2 यानी गुरु वर्ण का प्रयोग होता है अतः इनका रूप ध्रुव है। जबकि विषमकल में 1 = लघु और 2 = गुरु, दोनों वर्ण का प्रयोग होता है। समकल की तरह इनका रूप ध्रुव नहीं है। इनके लिए विशेष संकेतक हैं, जिनसे हम चतुर्थ पाठ में परिचित हो चुके है। विषमकल निम्न हैं जिनका प्रयोग केवल मात्रिक स्वरूप की छंदाओं में होता है।

त्रिकल = 3 मात्रा, संकेत 'बु' या 'बू'
पंचकल = 5 मात्रा, संकेत 'पु' या 'पू'
सतकल = 7 मात्रा, संकेत 'डु' या 'डू'
नवकल = 9 मात्रा, संकेत 'वु' या 'वू'

इस प्रकार चार समकल और चार ही विषमकल हैं। अब हम एक एक कल की पूर्ण विवेचना करने जा रहे हैं। यह कल विवेचना मात्रिक छंदों को आधार बना कर की गई है।

समकल:-

द्विकल = 2 - द्विकल के दो रूप हैं - एक शब्द में साथ साथ आये दो लघु 'शास्वत दीर्घ' और दीर्घ यानी 2 । जैसे - तुम, वह, मैं, है, जो आदि। इसके लिये हमारे पास गुरु वर्ण है जिसके संकेतक 'ग' तथा 'गा' हैं। द्विकल के लिये छंदाओं मे उच्चारण की सुविधानुसार दोनों संकेतक का प्रयोग होता है।

चौकल = 4 - चौकल में चारों रूप (11 11, 11 2, 2 11, 22) मान्य रहते हैं। चौकल के नियम निम्न प्रकार से हैं जिनको सदैव याद रखना चाहिए क्योंकि इसका प्रयोग बहुतायत से होता है।
(1) चौकल में पूरित जगण (121) शब्द, जैसे विचार महान उपाय आदि नहीं आ सकते। 
(2) चौकल की प्रथम मात्रा पर कभी भी शब्द समाप्त नहीं हो सकता। 
चौकल में 3+1 मान्य है परन्तु 1+3 मान्य नहीं है। जैसे 'व्यर्थ न' 'डरो न' आदि मान्य हैं। 'डरो न' पर ध्यान चाहूँगा 121 होते हुए भी मान्य है क्योंकि यह पूरित जगण नहीं है। डरो और न दो अलग अलग शब्द हैं। वहीं चौकल में 'न डरो' मान्य नहीं है क्योंकि न शब्द चौकल की  प्रथम मात्रा पर समाप्त हो रहा है।
3+1 रूप खंडित-चौकल कहलाता है जो पद के आदि या मध्य में तो मान्य है पर अंत में मान्य नहीं है। 'डरे न कोई' से पद का अंत हो सकता है 'कोई डरे न' से नहीं। चौकल के लिये हमारे पास ईगागा वर्ण है जिसके संकेतक 'गि' तथा 'गी' हैं।

छक्कल = 6 - छक्कल में भी 1 से चार मात्रा में पूरित जगण नहीं होना चाहिए तथा प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द भी समाप्त नहीं होना चाहिए। केवल छक्कल आधारित सृजन में पूरित जगण अंत में आ सकता है। जिन छंदाओं के अंत में छक्कल पड़ता है उनमें यह
2+4 या 4+2 इन दो ही रूप में रहता है। 12+12 या 21+12 दोनों खंडित चौकल + 2 का ही रूप है।
"असफलता में धीर रहो।
धीरज खो कर विकल न हो।" ऐसे पद मान्य हैं। छंदा के आदि या मध्य में छक्कल का 3+3 रूप भी मान्य है जिसमें 12+21 या 21+21 रूप आ सकता है। छक्कल के लिये हमारे पास मगण है जिसके संकेतक 'म' तथा 'मा' हैं।

अठकल = 8 - अठकल के दो रूप हैं। प्रथम 4+4 अर्थात दो चौकल। दूसरा 3+3+2 है जिसमें त्रिकल के तीनों (111, 12 और 21) तथा द्विकल के दोनों रूप (11 और 2) मान्य हैं। अठकल के नियम निम्न प्रकार से हैं जिनमें दक्षता होनी अत्यंत आवश्यक है। चौकल और अठकल अधिकांश मात्रिक छंदाओं के आधार हैं।
(1) अठकल की 1 से 4 मात्रा पर और 5 से 8 मात्रा पर पूरित जगण - 'उपाय' 'सदैव 'प्रकार'' जैसा शब्द नहीं आ सकता।
(2) अठकल की प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द कभी भी समाप्त नहीं हो सकता। 'राम नाम जप' सही है जबकि 'जप राम नाम' गलत है क्योंकि राम शब्द पंचम मात्रा पर समाप्त हो रहा है।   
(3) अठकल का अंत सदैव (2 या 11) से होना चाहिए। 
पूरित जगण अठकल की तीसरी या चौथी मात्रा से ही प्रारंभ हो सकता है क्योंकि 1 और 5 से वर्जित है तथा दूसरी मात्रा से प्रारंभ होने का प्रश्न ही नहीं है, कारण कि प्रथम मात्रा पर शब्द समाप्त नहीं हो सकता।  'तुम सदैव बढ़' में जगण तीसरी मात्रा से प्रारंभ हो कर 'तुम स' और 'दैव' ये दो त्रिकल तथा 'बढ़' द्विकल बना रहा है।
'राम सहाय न' में जगण चौथी मात्रा से प्रारंभ हो कर 'राम स' और 'हाय न' के रूप में दो खंडित चौकल बना रहा है।

एक उदाहरणार्थ रची चौपाई में ये नियम देखें-
"तुम गरीब से रखे न नाता।
बने उदार न हुये न दाता।।"

"तुम गरीब से" अठकल तथा तीसरी मात्रा से जगण प्रारंभ।
"रखे न" खंडित चौकल "नाता" चौकल। "नाता रखे न" लिखना गलत है क्योंकि खंडित चौकल पद के अंत में नहीं आ सकता।
"बने उदार न" अठकल तथा चौथी मात्रा से जगण प्रारंभ।
अठकल के संकेत ईमग गणक (2222) के 'मि' तथा 'मी' हैं।

समकल संयोजन:- मात्रिक छंदाओं में प्रयुक्त विभिन्न समकल आधारित मात्राओं की संभावनाएं देखें।
10 मात्रिक = मीगण - 8+2; 4+4+2
12 मात्रिक = मीगिण - 8+4; 4+8; 4+4+4
14 मात्रिक = मीमण - 8+6; 4+8+2; 4+4+6
16 मात्रिक = मीदण - 8+8; 8+4+4; 4+8+4; 4+4+4+4; 
मीगण आदि छंदाओं के अंत का ण या णा इनका मात्रिक स्वरूप बता रहा है।
(16 मात्रिक को मीदण ही लिखा जायेगा पर यह रचनाकार पर निर्भर है कि वह इन 16 मात्राओं की ऊपर लिखी 4 संभावनाओं में से कौन सी प्रयोग में लाता है। इस संदर्भ में मीबे का अर्थ 14 मात्रिक है, जिसकी अंतिम छह मात्राएँ तीन दीर्घ वर्ण के रूप में हैं। )
****

विषम कल:-

त्रिकल = 3 - त्रिकल के दो रूप हैं। 12 जैसे - नया, कभी, कमल, सुलभ आदि तथा 21 जैसे - राम, अश्व, दैन्य आदि। इसका संकेतक बु या बू है।

पंचकल = 5 - पंचकल त्रिकल और द्विकल का सम्मिलित रूप है जिसके दो रूप बनते हैं। 3+2 या 2+3। इनमें त्रिकल द्विकल की समस्त संभावनाएँ आ सकती हैं। इस प्रकार पंचकल की निम्न तीन संभावनाएं हैं-
122
212
221
इसके अतिरिक्त पंचकल को 4+1 और 1+4 में भी तोड़ा जा सकता है। पंचकल पु या पू संकेतक से दर्शाया जाता है।

सतकल = 7 - सतकल का निम्न लिखित रूप में से कोई भी रूप लिया जा सकता है।
6+1 या 1+6
5+2 या 2+5
4+3 या 3+4
सतकल की निम्न चार संभावनाएं बनती हैं।
1222
2122
2212
2221
सतकल को डु या डू संकेतक से दर्शाया जाता है।

नवकल = 9 - नवकल की निम्न पांच संभावनाएं हैं।
12222
21222
22122
22212
22221
इन पांच संभावनाओं को हम निम्न प्रकार से तोड़ सकते हैं।
8+1 या 1+8
7+2 या 2+7
6+3 या 3+6
5+4 या 4+5
नवकल को वु या वू संकेतक से दर्शाया जाता है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Thursday, January 5, 2023

भ्रमर दोहा छंद "सेवा"

(भ्रमर दोहा छंद के प्रति दोहे में 22 दीर्घ और 4 लघु वर्ण होते हैं।)

बीती जाये जिंदगी, त्यागो ये आराम।
थोड़ी सेवा भी करो, छोड़ो दूजे काम।।

सेवा प्राणी मात्र की, शिक्षा का है सार।
वाणी कर्मों में रखें, सेवा का आचार।।

सच्ची सेवा ही सदा, दे सच्चा उल्लास।
सेवा ही संतुष्टि है, सेवा ही विश्वास।।

लोगों के नेता बने, छोड़ी सारी लाज।
तस्वीरों के सामने, होती सेवा आज।।

काया से जो क्षीण हैं, हो रोगी लाचार।
शुश्रूषा से दो उन्हें, जीने का आधार।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
24-10-19

Thursday, December 29, 2022

विविध मुक्तक -11

तुम मेरी पाक़ मुहब्बत का ये दरिया देखो,
झाँक आँखों में मेरी इस को उमड़ता देखो,
गर नहीं फिर भी यकीं चीर लो सीना मेरा,
दिले नादाँ पे असर कितना तुम्हारा देखो।

(2122 1122 1122 22)
***  ***

कभी भी जब मुझे उनका ख़याल आता है,
तो गोते यादों में गुज़रा जो साल खाता है।
नज़र झुका के तुरत पहलू में सिमट जाना,
नयन पटल पे वो सारा ही काल छाता है।

(1212 1122 1212 22)
***  ***

साथ सजन तो चाँद सुहाना लगता है,
दूर पिया तो वो भी जलता लगता है,
उस में लख पिय की परछाई पूछ रहे,
चाँद बता तू कौन हमारा लगता है।

मुक्तक  2*11
***  ***

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-07-22

Saturday, December 24, 2022

सुगम्य गीता (तृतीय अध्याय 'द्वितीय भाग')

तृतीय अध्याय (भाग -२)

जनक आदि ने कर्म से, प्राप्त किया निर्वाण। 
श्रेष्ठ जनों का आचरण, जग में सदा प्रमाण।।२२।। 

तुम भी बनो उदाहरण, जग समक्ष हे पार्थ। 
जन-हित की रख भावना, कर्म करो लोकार्थ।।२३।। 

मुझ ईश्वर का विश्व में, शेष न कछु कर्त्तव्य।
प्राप्तनीय भी कुछ नहीं, कर्म करूँ पर दिव्य।।२४।।

सावधान हो मैं न यदि, रहूँ कर्म संलग्न। 
छिन्न भिन्न कर जग करूँ, लोक-आचरण भग्न।।२५।। 

लोक-मान्यता ध्यान रख, ज्ञानी का हो आचरण।
लोगों पर डाले न वो, बुद्धि-भेद का आवरण।।२६।। उल्लाला छंद

करे स्वयं कर्त्तव्य अरु, प्रेरित अन्यों को करे।
अज्ञानी आसक्त की, मन की दुविधा वो हरे।।२७।। उल्लाला 

प्रकृति जनित गुण से हुवे, कर्म सृष्टि के सारे।
अहम् भाव से मूढ़ पर, कर्ता खुद को धारे।।२८।। मुक्तामणि छंद 

त्रीगुणाश्रित ये सृष्टि है, कर्म गुणों में अटके। 
गुण ही कारण कार्य गुण, जो जाने नहिँ भटके।।२९।। मुक्तामणि छंद 

गुण अरु कर्म रहस्य से, जो नर हैं अनभिज्ञ। 
ऐसे गुण-सम्मूढ़ को, विचलित करे न विज्ञ।।३०।।
 
त्यज ममत्व आशा सभी, दोष-दृष्टि सन्ताप। 
सौंप कर्म सब ही मुझे, युद्ध करो निष्पाप।।३१।। 

मुझमें देखे दोष जो, सभी ज्ञान से भ्रष्ट। 
यह मत जो मानें नहीं, उनको समझो नष्ट।।३२।। 

परवश सभी स्वभाव के, विज्ञ न भी अपवाद। 
क्या इसमें फिर कर सके, निग्रह दमन विषाद।।३३।। 

सुख से सब को राग है, दुख से सब को द्वेष।
बाधा दे कल्याण में, दोनों का परिवेश।।३४।। 

अनुपालन निज धर्म का, उत्तम यध्यपि हेय। 
मरना भी इसमें भला, अन्य धर्म भय-देय।।३५।।

क्यों फिर हे माधव! कहो, पापों में नर मग्न।
बल से ज्यों उसको किया, बिन इच्छा संलग्न।।३६।।

देत रजोगुण कामना, उससे जन्मे क्रोध।
पार्थ परम वैरी समझ, दोनों का अवरोध।।३७।।

गर्भ अग्नि दर्पण ढके, जेर धूम्र अरु मैल।
त्यों विवेक अरु ज्ञान को, ढकता तृष्णा-शैल।।३८।।

अनल रूप यह कामना, कभी न जो हो शांत।
ज्ञानी जन के ज्ञान को, सदा रखे यह भ्रांत।।३९।।

इन्द्रिय मन अरु बुद्धि में, रहे काम का वास।
तृष्णा इनसे ही करे, ज्ञान मनुज का ह्रास।।४०।।

इन्द्रिय की गति साध, सभी दुख की प्रदायिनी।
प्रथम कामना मार, ज्ञान विज्ञान नाशिनी।।४१।। रोला छंद

तन से इन्द्रिय सूक्ष्म, इन्द्रियों से फिर मन है।
मन से पर है बुद्धि, अंत में आत्म-मनन है।।४२।। रोला

आत्म तत्व पहचान, हृदय में कर के मंथन।
अपने को तू तोल, काम-रिपु का कर मर्दन।।४३।। रोला

इति तृतीय अध्याय 

रचयिता :
बासुदेव अग्रवाल 


Wednesday, December 21, 2022

चंडिका छंद "आँखें"

चंडिका छंद / धरणी छंद

जिनसे जग लख, मैं बहूँ।
उन आँखों पर, क्या कहूँ।।
भव की इनसे, भव्यता।
प्राणी की सब, योग्यता।।

आँखें हैं तो, प्रीत है।
सब कामों में, जीत है।।
नयनों की कर, चाकरी।
रचता हूँ मैं, शायरी।।

नयन आपके, झील से।
कजरारे कुछ, नील से।।
मेरे मन पर, राजते।
डुबा डुबा कर, मारते।।

नीली आँखें, आपकी।
जड़ ये मन के, ताप की।।
हिरणी सी ये, चंचला।
करती मुझको, बावला।।

दो दो दीपक, नैन के।
जलते जो बिन, चैन के।।
कहें आपकी, भावना।
छिपी हृदय में, कामना।।

नयनों के जो, तीर से।
घायल इसकी, पीर से।।
इश्क सताया, पूत है।
रहता सर पर, भूत है।।

दो ही आँखें, हैं भली।
गोरी हो या, साँवली।।
दो से जब ये, चार हों।
चैन रैन के, पार हों।।

ऊपर के इन, नैन का।
नहीं भरोसा, बैन का।।
मन की आँखें, खोल के।
देखें जग को, तोल के।।

आँखो की जो, रोशनी।
जीवन की वह, चाँदनी।।
सृष्टि इन्हीं से, भासती।
'नमन' उतारे, आरती।।
***********

चंडिका छंद / धरणी छंद विधान -

चंडिका छंद जो कि धरणी छंद के नाम से भी जाना जाता है, 13 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है जिसका अंत रगण (S1S) से होना आवश्यक है। इसमें प्रथम 8 मात्रा पर यति अनिवार्य है। यह भागवत जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 पद होते हैं और छंद के दो दो या चारों पद सम तुकांत होने चाहिए। इन 13 मात्राओं का विन्यास अठकल, रगण (S1S) है। यह विन्यास दोहा छंद के विषम चरण वाला ही है।
अंतर केवल अठकल के बाद यति का है तथा अंतिम 5 मात्रा गुरु, लघु, गुरु वर्ण के रूप में हो।

अठकल = 4 4 या  3 3 2
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
31-05-22

Sunday, December 11, 2022

छंदा सागर (छंद के घटक "छंदा")

                        पाठ - 05

छंदा सागर ग्रन्थ

(छंद के घटक "छंदा")

छंदा शब्द की व्युत्पत्ति छंद से हुई है। छंदा का अर्थ है किसी छंद विशेष के विधान का पूर्ण स्वरूप। छंदाओं के नाम में ही उनका पूरा विधान रहता है। छंद में वर्णों की आवृत्ति का, कल आधारित छंद में कल की आवृत्ति का, मध्य में यदि कहीं यति है तो उसका तथा छंद के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान उसकी छंदा के नाम से ही मिल जाता है। चतुर्थ पाठ में हमने छंदाओं के नामकरण में प्रयुक्त संख्यावाचक तथा अन्य संकेतकों के विषय में विस्तार से जाना। तृतीय पाठ में विभिन्न गुच्छक की संरचना के विषय में जाना। अब इस पंचम पाठ से हम  छंदाओं की संरचना का अध्ययन करेंगे। इस छंदा-सागर ग्रन्थ का उद्देश्य हिन्दी में प्रचलित छंदों की छंदाएँ बनाकर प्रस्तुत करना है जो सामने आते ही पूरी छंद का स्वरूप प्रकट हो जाये। हमें अनेक छंदों के नाम तो याद रहते हैं पर विधान याद नहीं रहता। अब उस छंद में रचना करने के लिए उसके विधान को खोजना पड़ता है। परन्तु हम जो इन पाठों के माध्यम से अध्ययन कर रहे हैं उससे हमें छंदा के नाम में ही छुपा उसका पूरा विधान मिल जायेगा।

छंदाओं से संबन्धित पाठों का संयोजन छंदाओं को स्वरूप के अनुसार विभिन्न वर्गों में विभक्त करके किया गया है। इस कड़ी में सर्वप्रथम वृत्त छंदाएँ आती हैं।

वृत्त छंदा:- इन छंदाओं में केवल एक गुच्छक रहता है और उसी एक गुच्छक की कई आवृत्ति रहती है, इसीलिए इनका नाम वृत्त-छंदा दिया गया है। एक ही मात्रा क्रम की विभिन्न आवृत्ति से विशेष लय बनती है और इस बात से वे सभी लोग भलीभांति परिचित होंगे जो सवैया छंद से परिचित हैं। 

वृत्त छंदाओं में एक गुच्छक की 1, 2, 3, 4, 6 और 8 की आवृत्ति से कुल 6 प्रकार की छंदाएं मिलती हैं। एक की आवृत्ति के लिये छंदा में चार वर्ण होने आवश्यक हैं अतः त्रिवर्णी गण में एक की आवृत्ति की छंदाएँ नहीं हैं। 

वृत्त छंदाएँ सर्वाधिक प्रचलित छंद हैं। हिन्दी में विभिन्न नामों से ये छंद प्रचलित हैं। वृत्त छंदाओं की रचना छंदों के तीनों स्वरूप - वाचिक, मात्रिक और वर्णिक में होती है। उदाहरणार्थ - ईयग गणक की 4 आवृत्ति (1222*4) की वृत्त छंदा हर स्वरूप में प्रचलित है। हर स्वरूप में रचना करने के अलग अलग नियम हैं। इसी विभिन्नता को दृष्टिगत रखते हुए इस ग्रन्थ में हर स्वरूप की अलग छंदाएँ दी हुई हैं जिससे कि छंदा का नाम सामने आते ही यह पता चल जाय कि यह किस गुच्छक की, कितनी आवृत्ति की, छंद के किस स्वरूप की छंदा है। इसके मध्य में यदि यति है तो उसका भी पता चल जाये। छंदों के तीन स्वरूप निम्न हैं।

(1) वाचिक स्वरूप:- वाचिक रूप में उच्चारण की प्रधानता रहती है। एक शब्द में साथ साथ आये दो लघु सदैव गुरु वर्ण के रूप में प्रयुक्त होते  हैं। जहाँ भी दो लघु (11) दर्शाये जाएँगे वे सदैव 'ऊलल' वर्ण यानी स्वतंत्र लघु माने जाते हैं। यदि इन्हें एक शब्द में रखना है तो एक लघु की या दोनों लघु की मात्रा गिरानी आवश्यक है। मात्रा गिराने का अर्थ प्रत्यक्ष रूप में वर्ण तो दीर्घ है परन्तु उच्चरित लघु होता है।

मात्रा पतन:- मात्रा पतन के कुछ विशेष नियम हैं जिनके अन्तर्गत मात्रा पतन किया जा सकता है। वाचिक स्वरूप की छंदाओं में यह नियमों के अंतर्गत आता है और इस छूट के कारण रचनाकार को शब्द चयन का कुछ अतिरिक्त क्षेत्र मिल जाता है।

1- एक वर्णी कारक चिन्ह, सहायक क्रिया व अन्य शब्दों की मात्रा गिरा कर उन्हें लघु मान सकते हैं जैसे - का की हैं मैं था भी ही आदि। परन्तु संयुक्त अक्षर से युक्त ऐसे शब्दों की मात्रा नहीं गिराई जा सकती जैसे - क्यों क्या त्यों आदि।
2- शब्द के अंत के गुरु की मात्रा गिरा कर आवश्यकतानुसार लघु की जा सकती है। किंतु इसमें भी ऐ, औ की मात्रा नहीं गिराई जा सकती। 
3- शब्द के बीच या प्रारंभ में आये गुरु वर्ण की मात्रा नहीं गिराई जा सकती। परन्तु तेरा, मेरा, कोई जैसे कुछ शब्दों में दोनों अक्षरों की मात्रा गिराई जा सकती है। इसमें भी गायेगा, जाएगा, सिखायेगा जैसे शब्दों के मध्य के ये, ए को लघु की तरह गिना जा सकता है।
4- शास्वत दीर्घ यानि एक शब्द में साथ साथ आये दो लघु की मात्रा कभी भी नहीं गिराई जा सकती। इसी कारण से यह शास्वत दीर्घ कहलाता है।

मात्रा पतन के अतिरिक्त वाचिक स्वरूप में पदांत में लघु वृद्धि मान्य है। वैसे तो प्रायः छंदाओं की लघु वृद्धि की छंदाएँ अलग से दी गयी हैं। परन्तु गुर्वंत छंदाओं में रचनाकार लघु वृद्धि करने के लिए स्वतंत्र है। वाचिक में ग वर्ण से प्रारंभ होने वाले वर्ण तथा म से प्रारंभ होनेवाले गुच्छक के गुरु वर्ण को ऊलल (11) वर्ण में तोड़ने की छूट है यदि उस वर्ण के दोनों तरफ भी गुरु वर्ण रहे। जैसे रबगी छंदा के गी (22) को 112 रूप में लिया जा सकता है।

(2) मात्रिक छंद:- मात्रिक छंदों में किसी भी प्रकार का मात्रा पतन अमान्य है। इन छंदों में गुरु वर्ण को दो लघु में तोड़ा जा सकता है। मात्रिक छंदों में स्वतंत्र लघु की अवधारणा नहीं है, अतः 'ऊलल' वर्ण (11) को एक शब्द में शास्वत दीर्घ के रूप में रखा जा सकता है पर 'ऊलल' वर्ण दीर्घ में रूपांतरित नहीं हो सकता।

(3) वर्णिक छंद:- वर्णिक छंद की रचना सदैव गुच्छक में प्रयुक्त लघु गुरु के अनुरूप होनी चाहिए। न कोई मात्रा पतन होना चाहिए और न ही गुरु को दो लघु में तोड़ा जाना चाहिए। इन में भी स्वतंत्र लघु जैसी कोई विचारधारा नहीं है।

वृत्त छंदाओं के पश्चात हम गुरु छंदाओं का अध्ययन करेंगे। 

गुरु छंदाएँ:- जैसा कि नाम से स्पष्ट है, वे छंदाएँ जो केवल गुरु (2) और ईगागा वर्ण (22) तथा मगण, ईमग गणक (2222) और एमागग गणक (22222) के संयोग से बनी होती हैं। गुरु छंदाएँ समकल आधारित होती हैं और समस्त छंद बद्ध सृजन का आधार होती हैं। इनकी लय और गति अबाध शांत रूप से बहती कलकल करती सरिता के समान होती है। ये छंदाएँ द्विकल गुरु वर्ण (2), चौकल ईगागा (22), छक्कल मगण (222) और अठकल ईमग (2222) के संयोग से बनती हैं। ये छंदाएँ सामान्यतः 2*4 से प्रारंभ हो कर 2*16 तक बनती हैं।

मिश्र छंदाएँ:- वे छंदाएँ जिनमें एक से अधिक प्रकार के गुच्छक या गुच्छक और वर्ण रहते हैं। ये कई प्रकार की होती हैं। इन पर प्रारंभ के गण के आधार पर सात पाठों में पूर्ण प्रकाश डाला गया है। मिश्र छंदाओं के विषय में एक अलग से पाठ दिया गया है जिसमें इनकी पूर्ण व्याख्या की गयी है।

उपरोक्त समस्त प्रकार की छंदाओं की क्रमशः
वाचिक, मात्रिक और वर्णिक तीनों स्वरूप की छंदाएँ इस ग्रन्थ में दी गई हैं। साथ ही छंदाओं की लघु वृद्धि की छंदाएँ भी दी गई हैं।

इसके पश्चात हिन्दी की मात्रिक छंदों की छंदाएँ हैं अंत में वर्णिक छंदों की छंदाएँ दी गई हैं। इन्हींके अंतर्गत अलग पाठों में कवित्त और सवैया की छंदाएँ भी सम्मिलित की गई हैं।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Tuesday, December 6, 2022

सुचि और संदीप के विवाह की रजत जयंती


तारिख पच्चिस मास दिसम्बर की शुभ बेला आई।
घर की प्यारी मुनिया 'शुचिता' इस दिन हुई पराई।
प्रणयबन्ध में बन्ध वो लाडो हर्षित हो सकुचाई। 
पच्चिस वर्षों पूर्व जमी ये जोड़ी सबकी मन भाई।।

जीवन साथी संदीप संग जीवन की खुशियाँ लाई।
रौनक सा सुत और बार्बी मिष्टी सी बिटिया पाई।
मन के मीत और बच्चों संग सुघड़ गृहणी बन छाई।
दो दो घर को आज जोड़ती सबको लगे सुहाई।।

शादी की है रजत जयंती आज बड़ी है वो हरषाई।
बच्चे जीवन साथी को ले पावन गंगा तट पर आई।
संग मनाये रजत जयंती भैया भाभी देत बधाई।
जीवन की हर खुशियाँ पाओ सदा रहो यूँ ही मुस्काई।।

बासुदेव अग्रवाल नमन 
25-12-2018

Friday, December 2, 2022

लावणी छंद "सच्ची कमाई"

सच्ची तुम ये किये कमाई, मानुस तन जो यह पाया।
देवों को भी जो है दुर्लभ, तुमने पायी वह काया।।
इस कलियुग में जन्म लिया फिर, नाम जपे नर तर जाये।
अन्य युगों के वर्षों का फल, इसमें तुरत-फुरत पाये।।

जन्मे तुम उस दिव्य धरा पर, देव रमण जिस पर करते।
शुभ संस्कार मिले ऋषियों के, भव-बन्धन जो‌ सब हरते।।
नर-तन में प्रभु भारत भू पर, बार बार अवतार लिये।
कर लीला हर भार भूमि का, उपकारी उपदेश दिये।।

धर्म सनातन जिसमें सोहे, ऐसा अनुपम गेह मिला।
गीता रामायण सम प्यारे, कुसुमों से यह देह खिला।।
वेद पुराण भागवत पावन, सीख सदा सच्ची देवें।
इस जीवन अरु जन्मांतर के, बंधन सारे हर लेवें।।

मंदिर के घण्टा घोषों से, भोर यहाँ पर होती है।
मधुर आरती की गूँजन में, सांध्य निशा में खोती है।।
कीर्तन और भजन के सुर से, दिग्दिगन्त अनुनादित हैं।
सद्सिद्धांत यहाँ जीने के, पहले से प्रतिपादित हैं।।

वातावरण यहाँ ऐसा है, सत्संगत जितनी कर लो।
हरि का नाम धार के भव के, सारे कष्टों को हर लो।।
जप, तप, ध्यान, दान के साधन,‌ चाहो‌ जितने अपना लो।
नाना व्रत धारण कर सारी, जीवन की विपदा टालो।।

मार्ग प्रसस्त करे पग पग पर, सब का संतों की वाणी।
जग का सार बताए जिससे, लाभान्वित हो हर प्राणी।।
है यह सार्थक तभी कमाई, इसका सद्उपयोग करें।
जीवन सफल बनाएँ अपना, और जगत के दुःख हरें।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
01-06-17


Friday, November 25, 2022

पिरामिड (रो, मत)

रो
मत
नादान,
छोड़ दे तू
सारा अज्ञान।
जगत का रहे,
धरा यहीं सामान।।1।।

तू
कर 
स्वीकार,
उसे जो है
जग-आधार।
व्यर्थ और सारे,
तत्व एक वो सार।।2।।


ये
तन
दीपक,
बाती मन
तेल  मनन
शब्दों का स्फुरण
काव्य-ज्योति स्फुटन।।3।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-04-19

Saturday, November 19, 2022

छंदा सागर (छंदा संकेतक)

                         पाठ - 04

छंदा सागर ग्रन्थ

(छंदा संकेतक)


छंदा में वर्ण और गुच्छक के अतिरिक्त कई प्रकार के संकेतक का प्रयोग होता है। जिनके बारे में विस्तार से जानना अत्यंत आवश्यक है। मुख्य रूप से संख्यावाचक संकेतक प्रयुक्त होते हैं। छंदाओं के नाम इस प्रकार हैं कि उनके नाम में ही उस छंदा में प्रयुक्त गुच्छक और वर्णों की संख्या तथा विधान स्पष्ट हो जाता है। नामकरण के कुछ विशेष नियम हैं जिन्हें बहुत गंभीरता से समझने की आवश्यकता है।

संख्या वाचक अक्षर:- छंदा में संख्या वाचक संकेताक्षरों से गुच्छक और वर्णों की कितनी आवृत्ति है इसका पता चलता है। इनसे कल का भी पता चलता है। ये निम्न हैं। 

क = 1, एक से क वर्ण लिया गया है।
द = 2, दो से द वर्ण लिया गया है।
ब = 3, तगण के कारण त अनुपलब्ध इसलिए ब वर्ण लिया गया है।
च = 4, चार से च वर्ण लिया गया है।
प = 5, पाँच से प वर्ण लिया गया है।
ट = 6, षट से ट वर्ण लिया गया है।
ड = 7, सगण के कारण स अनुपलब्ध इसलिए ड वर्ण लिया गया है।
ठ = 8, आठ से ठ वर्ण लिया गया है।
व = 9, नव से व वर्ण लिया गया है।

इन वर्णों में मात्राओं का भी विशेष अर्थ है। आगे हम उदाहरण सहित एक एक संख्या वाचक को समझेंगे।

क:- = 1, किसी भी गुच्छक या वर्ण का संकेतक सदैव उस गुच्छक या वर्ण की एक आवृत्ति दर्शाता है। अतः एक आवृत्ति दर्शाने के लिए क संकेतक का प्रयोग अनावश्यक है। परन्तु कई बार छंदा के नाम को पूर्णता प्रदान करने के लिए इस संकेतक का 'क' या 'का' के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह वाचिक छंदाओं के अंत में 'क' या 'का' के रूप में जुड़ता है। उदाहरणार्थ 1222*1 = यीका, 11212*1 = सूका आदि। सूका नामकरण को भलीभांति समझें। स और ऊकार क्रमशः सगण (112) तथा इलगा वर्ण (12) के संकेतक हैं। इस प्रकार 'सू' से ऊसालग गणक (11212) का रूप सामने आ जाता है। जबकि 'सू' का अर्थ 11212 है, परन्तु इसमें 'का' जुड़ने से नाम को पूर्णता मिलती है।

द:- = 2, 'द' वर्ण द्विगुणित करने के लिए 'द' या 'दा' के रूप में जुड़ता है जो अपने से ठीक पहले आये गुच्छक, वर्ण या अन्य संकेतक को द्विगुणित कर देता है। जैसे 1222*2 = यीदा। 'दा' ईयग गणक को द्विगुणित कर रहा है। 2222*2  222 = मीदम। इसमें 'द' वर्ण ईमग गणक को द्विगुणित कर रहा है।

ब:- = 3, 'ब' वर्ण भी 'द' की तरह अपने से ठीक पहले आये गुच्छक या अन्य संकेतक को त्रिगुणित करता है। यह भी 'ब' या 'बा'  के रूप में जुड़ता है। जैसे 212*3 = राबा। 'बा' रगण को त्रिगुणित कर रहा है। 2222*3  22 = मिबगी। 

च:- = 4, 'च' वर्ण  'च' या 'चा'  के रूप में जुड़ता है जो अपने से पहले आये गुच्छक को चौगुणा कर देता है। जैसे- 1222*4 का नाम होगा यीचा।

छंदाओं में प्रमुख रूप से उपरोक्त चार संख्यावाचक संकेतक का ही प्रयोग होता है। सवैया आदि की छंदाओं में चार से अधिक आवृत्ति दर्शाने के लिए प, ट, ड, ठ संकेतक का भी प्रयोग होता है जो हम सवैया की छंदाओं के आवंटित पाठ में देखेंगे।

संख्यावाचक में मात्राओं का प्रयोग:-

संख्यावाचक संकेताक्षर में क्या मात्रा जुड़ी है, इसका बहुत महत्व है। अब हम एक एक मात्रा का विशेष अर्थ और प्रयोग समझेंगे।

'अ' या 'आ' :- आवृत्ति दर्शाने के लिए जो हम ऊपर के उदाहरणों में देख चुके हैं।

'इ' या 'ई' :- इकार युक्त संकेतक बहुत ही विशेष है। इसका प्रयोग मात्रा रहित वर्ण की संख्या दर्शाने के लिए होता है। जैसे ची का अर्थ हुआ मात्रा रहित 4 वर्ण का समूह। मात्रा रहित वर्ण में संयुक्त अक्षर भी मान्य हैं। पर इ और ई में अनुस्वार का प्रयोग यह संभावना भी समाप्त कर देता है। जैसे 'ठीं' का अर्थ हुआ 8 मात्रा रहित वर्ण जिसमें संयुक्ताक्षर भी नहीं आने चाहिए। घनाक्षरी तथा कुछ विशेष छंद में ही इस संकेतक का प्रयोग  होता है।

'उ' या 'ऊ' :- उकार का प्रयोग मात्रिक छंदाओं में कल की संख्या दर्शाने के लिए होता है। इस संकेतक से विषम कल की संख्या दर्शायी जाती है। यह संकेतक बु या बू, पु या पू, डु या डू तथा वु या वू के रूप में प्रयुक्त होता है। कल पर आवंटित पाठ में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला जाएगा। 

'ए' :- इसका प्रयोग मात्रिक छंदाओं में दीर्घ वर्ण के लिए होता है। मात्रिक छंदों में गुरु वर्ण को दीर्घ रूप में भी रखा जा सकता है तथा दो लघु के रूप में भी। पर कुछ छंदों के अंत में केवल दीर्घ वर्ण आवश्यक होते हैं। यह संकेतक 'के', 'दे' तथा 'बे' के रूप में प्रयुक्त होता है जो क्रमशः एक, दो और तीन दीर्घ वर्ण दर्शाता है।

'औ' :- औकार का प्रयोग मात्रिक छंदाओं में यति सहित ठीक अपने से पहले आये गुच्छक या अन्य संकेतक की आवृत्ति दर्शाने के लिए होता है। यह दौ, बौ, तथा चौ के रूप में प्रयुक्त होता है। जैसे डमरू घनाक्षरी की छंदा 'ठींचौ' है। इस छोटी सी छंदा में डमरू घनाक्षरी का पूर्ण विधान है।
ठीं संकेतक मात्रा रहित 8 वर्ण का समूह दर्शा रहा है। 'चौ' संकेतक इस समूह की यति सहित चार आवृत्ति दर्शा रहा है। 2 2222, 2222 = गमिदौ
यहाँ दौ संकेतक ठीक अपने से पहले आये केवल ईमग गणक (2222) की यति के साथ दो आवृत्ति दर्शा रहा है। वहीं गामिध छंदा = 2 2222, 2 2222 रूप दर्शायेगी।

'अं' :- संख्यावाचक में अनुस्वार आवृत्ति तथा यति दोनों का द्योतक है। यह दं बं के रूप में प्रयुक्त होता है। जैसे ताटंक छंद की छंदा "मीदंमीबे" है। इसका विश्लेषण करने से हमें 2222*2, 2222 SSS रूप प्राप्त होता है। मी का अर्थ ईमग गणक, दं इसकी दो आवृत्ति तथा यति दर्शा रहा है। फिर ईमग गणक यानी अठकल तथा अंत में 'बे' संकेतक तीन दीर्घ वर्ण के लिए है। यह बे संकेतक केवल मात्रिक छंदाओं में प्रयुक्त होता है इसलिए इससे छंदा का स्वरूप भी ज्ञात हो रहा है।

विशेष संकेतक:- 

ध:- = ?*2, 'ध' वर्ण बहुत ही विशेष है। यह द का महाप्राण है, जो द की तरह ही द्विगुणित करता है। परन्तु द जिस गुच्छक या वर्ण के पश्चात आता है केवल उसे द्विगुणित करता है जबकि ध अपने से पूर्व के आये समस्त संकेतक को पुनरावृत्त कर देता है। यह भूयः अर्थात पुनः के अर्थ में प्रयुक्त होता है जो अपने से पहले बनी खंड-छंदा को दोहरा देता है। यह 'ध' या 'धा' के रूप में जहाँ भी प्रयुक्त होता है, यति सहित खंड-छंदा को दोहराता है। दिये हुए उदाहरणों से इसे ठीक से समझें। 1222*2, 1222*2 का नाम है = यीदध। यह यीदा छंदा का यति के साथ द्विगुणित रूप है। 1222*4 = यीचा और इसमें अंतर है। यीदध में मध्य में यति पड़नी आवश्यक है जहाँ शब्द समाप्त होना चाहिये तथा यति सूचक विराम चिन्ह (,) का प्रयोग होना चाहिए। जबकि यीचा में यति आवश्यक नहीं है। 122*3, 122*3 = याबध, 122*4, 122*4 = याचध। एक वाचिक छंदा का नाम देखें। 12122 212, 12122 212 = जेरध। यहाँ 'ध' 'र' के पश्चात आया है परन्तु 'द' की तरह यह केवल 'र' को द्विगुणित न करके पूर्ण 'जेरा' को द्विगुणित कर रहा है। जिसका अर्थ हुआ "जेरा, जेरा"। यही ध संकेतक 'धु' या 'धू' के रूप में बिना यति के दोहराता है।

थ:- = ?*3, यह भी 'ध' संकेतक की तरह बहुत विशेष है। यह तीन के अर्थ में प्रयुक्त होता है जो अपने से पहले बनी खंड-छंदा को 'थ' तथा 'था' के रूप में यति सहित तिहरा देता है। 'थु' या 'थू' के रूप में बिना यति के त्रिगुणित करता है। इसका प्रयोग साधारणतया मात्रिक छंदाओं घनाक्षरी आदि में ही होता है।

ण :- ण वर्ण यति सूचक है जो छंदा के मध्य में 'ण' या 'णा' के रूप में प्रयुक्त होता है। इसके साथ ही जब यह ण या णा के रूप में ही छंदा के अंत में प्रयुक्त होता है तो यह छंदा का मात्रिक स्वरूप दर्शाता है। दोहा, सोरठा जैसे कई मात्रिक छंद द्विपदी छंद होते हैं। छंद का द्विपदी स्वरूप दर्शाने के लिये छंदा के अंत में ण के स्थान पर णि या णी का प्रयोग किया जाता है। जैसे दोहा की छंदा का नाम मीरणमिगुणी है। चतुष्पदी छंद के चारों पदों में समतुकांतता दर्शाने के लिए अंत में णु या णू का प्रयोग किया जाता है।

व :- यह भी ण वर्ण की तरह व या वा के रूप में छंदा के अंत में आता है तथा छंदा के वर्णिक स्वरूप को दर्शाता है। साथ ही मात्रिक छंदों में यह वु या वू के रूप में नौकल दर्शाता है। अर्ध सम वर्ण वृत्त में यह अंत में वी के रूप में जुड़ता है।
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ख :- क वर्ण का महाप्राण 'ख' ख या खा के रूप में प्रयुक्त होता है। जो घनाक्षरी आदि छंद विशेष में एक वर्ण दर्शाता है जो लघु = 1 या गुरु = 2 कुछ भी हो सकता है।

फ :- यह फ या फा के रूप में प्रयुक्त होता है। यह कोई भी दो वर्ण दर्शाता है। इसकी चार संभावनाएं हैं। 11, 12, 21, 22

झ :-  इसी शृंखला में यह कोई भी तीन वर्ण झ या झा के रूप में प्रयुक्त हो कर दर्शाता है। 'झु' या 'झू' के रूप में इसका विशेष अर्थ है जो घनाक्षरी की छंदाओं में ही प्रयोग में आता है। झु या झू का अर्थ है कोई भी  तीन वर्ण का शब्द जिसके मध्य में लघु वर्ण हो जिसकी चार संभावनाएँ हैं -  111, 211, 112, 212।

छ :- यह छ या छा के रूप में प्रयुक्त हो कर कोई भी चार वर्ण दर्शाता है। 'छु' या 'छू' के रूप में इसका विशेष अर्थ है जो घनाक्षरी जैसी कुछ विशेष छंदाओं में ही प्रयोग में आता है। छु या छू का अर्थ है लघु या दीर्घ कोई भी चार वर्ण जो केवल समवर्ण आधारित शब्द में हों। ये चार वर्ण दो द्विवर्णी शब्द में हो सकते हैं या एक चतुष्वर्णी शब्द में। जैसे - 'बाँके नैन सकुचाय' में चार चार वर्णों के दो खंड हैं। बाँके नैन में दो द्वि वर्णी शब्द हैं तथा 'सकुचाय' चतुषवर्णी शब्द।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया

Saturday, November 12, 2022

चंद्रमणि छंद "गिल्ली डंडा"

गिल्ली डंडा खेलते।
ग्राम्य बाल सब झूमते।।
क्रीड़ा में तल्लीन हैं।
मस्ती के आधीन हैं।।

फर्क नहीं है जात का।
रंग न देखे गात का।।
ऊँच नीच की त्याग घिन।
संग खेलते भेद बिन।।

खेतों की ये धूल पर।
आस पास को भूल कर।।
खेल रहे हँस हँस सभी।
झगड़ा भी करते कभी।।

बच्चों की किल्लोल है।
हुड़दंगी माहोल है।।
भेदभाव से दूर हैं।
अपनी धुन में चूर हैं।।

खुले खेत फैले जहाँ।
बाल जमा डेरा वहाँ।।
खेलें नंगे पाँव ले।
गगन छाँव के वे तले।।

नहीं प्रदूषण आग है।
यहाँ न भागमभाग है।।
गाँवों का वातावरण।
'नमन' प्रकृति का आभरण।।
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चंद्रमणि छंद विधान -

चंद्रमणि छंद 13 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है। यह भागवत जाति का छंद है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 13 मात्राओं की मात्रा बाँट ठीक दोहा छंद के विषम चरण वाली है जो  8 2 1 2 = 13 मात्रा है। अठकल = 4 4 या 3 3 2।

यह छंद उल्लाला छंद का ही एक भेद है। उल्लाला छंद साधारणतया द्वि पदी छंद के रूप में रचा जाता है जिसमें ठीक दोहा छंद की ही तरह दोनों सम चरण की तुक मिलाई जाती है। जैसे -

उल्लाला छंद उदाहरण -

"जीवन अपने मार्ग को, ढूँढे हर हालात में।
जीने की ही लालसा, स्फूर्ति नई दे गात में।।"
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
30-05-22

Saturday, November 5, 2022

ग़ज़ल (दोस्तो! अब दोस्तों की बात हो)

बह्र:- 2122  2122  212

दोस्तो! अब दोस्तों की बात हो,
साथ में की मस्तियों की बात हो।

बाँट लें फिर से वो खुशियाँ आज हम,
दोस्तों की सुहबतों की बात हो।

बंदरों से नाचते जिन डाल पर,
आज उन अमराइयों की बात हो।

बाग में झूलों की पींगें फिर से लें,
रंग, खुशबू, तितलियों की बात हो।

पाठशाला, घर हो या बाहर हो फिर,
नागवार_उन बंदिशों की बात हो।

भूल जाएं ग़मज़दा नाकामियाँ,
कामयाबी के दिनों की बात हो।

अब 'नमन' यादें ही बाकी रह गयीं,
जिंदा जिनसे उन पलों की बात हो।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-07-19


बासुदेव अग्रवाल नमन USA


Wednesday, November 2, 2022

32 मात्रिक छंद "रस और कविता"

 32 मात्रिक छंद 

"रस और कविता"

मोहित होता जब कोई लख, पग पग में बिखरी सुंदरता।
दाँतों तले दबाता अंगुल, देख देख जग की अद्भुतता।।
जग-ज्वाला से या विचलित हो, वैरागी सा शांति खोजता।
ध्यान भक्ति में ही खो कर या, पूर्ण निष्ठ भगवन को भजता।।

या विरहानल जब तड़पाती, धू धू कर के देह जलाती। 
पूर्ण घृणा वीभत्स भाव की, या फिर मानव हृदय लजाती।।
जग में भरी भयानकता या, रोम रोम भय से कम्पाती।।
ओतप्रोत वात्सल्य भाव से, माँ की ममता जिसे लुभाती।।

अरि की छाती वीर भाव से, छलनी करने भुजा फड़कती।
या पर पीड़ निमज्जित छाती, जिसकी करुणा भरी धड़कती।।
या शोषकता सबलों की लख, रौद्र रूप से नसें कड़कती।
या अटपटी बात या घटना, मन में हास्य फुहार छिड़कती।।

अभियन्ता ज्यों निर्माणों को, परियोजित कर के सँवारता।
बार बार परिरूप देख वह, प्रस्तुतियाँ दे कर निखारता।।
तब वह ईंटा, गारा, लोहा, जोड़ धैर्य से आगे बढ़ता।
और अंत में वास्तुकार सा, नवल भवन सज्जा से गढ़ता।।

भावों को कवि-मन वैसे ही, नया रूप दे दे संजोता।
अलंकार, छंदों, उपमा से, भाव सजा कर शब्द पिरोता।।
एक एक कड़ियों को जोड़े, गहन मनन से फिर दमकाता।
और अंत में भाव मग्न हो, प्रस्तुत कर कर के चमकाता।।

जननी जैसे नवजाता को, लख विभोर मन ही मन होती।
नये नये परिधानों में माँ, सजा उसे पुत्री में खोती।।
वही भावना कवि के मन को, नयी रचित कविता देती है।
तब नव भावों शब्दों से सज, कविता पूर्ण रूप लेती है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
22-05-2016

(अभियन्ता= इंजीनियर;   परियोजित= प्रोजेक्टींग;   परिरूप= डिजाइन;   प्रस्तुती= प्रेजेन्टेशन )