Saturday, June 15, 2019

भृंग छंद "विरह विकल कामिनी"

सँभल सँभल चरण धरत, चलत जिमि मराल।
बरनउँ किस विध मधुरिम, रसमय मृदु चाल।।
दमकत यह तन-द्युति लख, थिर दृग रह जात।
तड़क तड़ित सम चमकत, बिच मधु बरसात।।

शशि-मुख छवि अति अनुपम, निरख बढ़त प्यास।
यह लख सुरगण-मन मँह, जगत मिलन आस।।
विरह विकल अति अब यह, कनक वरण नार।
दिन निशि कटत न समत न, तरुण-वयस भार।।

अँखियन थकि निरखत मग, इत उत हर ओर।
हलचल विकट हृदय मँह, उठत अब हिलोर।
पुनि पुनि यह कथन कहत, सुध बिसरत मोर।
लगत न जिय पिय बिन अब, बढ़त अगन जोर।।

मन हर कर छिपत रहत, कित वह मन-चोर।
दरसन बिन तड़पत दृग, कछु न चलत जोर।।
विरह डसन हृदय चुभत, मिलत न कछु मन्त्र।
जलत सकल तन रह रह, कछुक करहु तन्त्र।।
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लक्षण छंद:-

"ननुननुननु गल" पर यति, दश द्वय अरु अष्ट।
रचत मधुर यह रसमय, सब कवि जन 'भृंग'।।

"ननुननुननु गल" = नगण की 6 आवृत्ति फिर गुरु लघु।

111 111  111  111 // 111  111  21
20 वर्ण,यति 12,8 वर्ण,4 चरण 2-2 तुकांत
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-10-17

Wednesday, June 12, 2019

जनक छंद (2019 चुनाव)

करके सफल चुनाव को,
माँग रही बदलाव को,
आज व्यवस्था देश की।
***

बहुमत बड़ा प्रचंड है,
सत्ता लगे अखंड है,
अब जवाबदेही बढ़ी।
****

रूढ़िवादिता तोड़ के,
स्वार्थ लिप्तता छोड़ के,
काम करे सरकार यह।
***

राजनीति की स्वच्छता,
सभी क्षेत्र में दक्षता,
निश्चित अब तो दिख रही।
***

आसमान को छू रहा,
रग रग से यह चू रहा,
लोगों का उत्साह अब।
***

आशा का संचार है,
भ्रष्टों का प्रतिकार है,
बी जे पी के राज में।
***

युग आया विश्वास का,
सर्वांगीण विकास का,
मोदी के नेतृत्व में।
***


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
28-05-19

जनक छंद "विधान"

जनक छंद रच के मधुर,
कविगण कहते कथ्य को,
वक्र-उक्तिमय तथ्य को।
***

तेरह मात्रिक हर चरण,
ज्यों दोहे के पद विषम,
तीन चरण का बस 'जनक'।
****

पहला अरु दूजा चरण,
समतुकांतता कर वरण,
'पूर्व जनक' का रूप ले।
***

दूजा अरु तीजा चरण,
ले तुकांतमय रूप जब,
'उत्तर जनक' कहाय तब।
***

प्रथम और तीजा चरण,
समतुकांत जब भी रहे,
'शुद्ध जनक' का हो भरण।
***

तुक बन्धन से मुक्त हों,
इसके जब तीनों चरण,
'सरल जनक' तब रूप ले।
***

सारे चरण तुकांत जब,
'घन' नामक हो छंद तब,
'नमन' विवेचन शेष अब।
***
जनक छंद एक परिचय:-
जनक छंद कुल तीन चरणों का छंद है जिसके प्रत्येक चरण में13 मात्राएं होती हैं। ये 13 मात्राएँ ठीक दोहे के विषम चरण वाली होती हैं। विधान और मात्रा बाँट भी ठीक दोहे के विषम चरण की है। यह छंद व्यंग, कटाक्ष और वक्रोक्तिमय कथ्य के लिए काफी उपयुक्त है। यह छंद जो केवल तीन पंक्तियों में समाप्त हो जाता है, दोहे और ग़ज़ल के शेर की तरह अपने आप में स्वतंत्र है। कवि चाहे तो एक ही विषय पर कई छंद भी रच सकता है।

तुकों के आधार पर जनक छंद के पाँच भेद माने गए हैं। यह पाँच भेद हैं:—

1- पूर्व जनक छंद; (प्रथम दो चरण समतुकांत)
2- उत्तर जनक छंद; (अंतिम दो चरण समतुकांत)
3- शुद्ध जनक छंद; (पहला और तीसरा चरण समतुकांत)
4- सरल जनक छंद; (सारे चरण अतुकांत)
5- घन जनक छंद। (सारे चरण समतुकांत)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-05-19

शिव-महिमा (छप्पय)

करके तांडव नृत्य, प्रलय जग की शिव करते।
विपदाएँ भव-ताप, भक्त जन का भी हरते।
देवों के भी देव, सदा रीझें थोड़े में।
करें हृदय नित वास, शैलजा सँग जोड़े में।
प्रभु का निवास कैलाश में, औघड़ दानी आप हैं।
भज ले मनुष्य जो आप को, कटते भव के पाप हैं।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-02-19

अग्रसेन महाराज (छप्पय)

अग्रसेन नृपराज, सूर्यवंशी अवतारी।
विप्र धेनु सुर संत, सभी के थे हितकारी।
द्वापर का जब अंत, धरा पर हुआ अवतरण।
भागमती प्रिय मात, पिता वल्लभ के भूषण।
नागवंश की माधवी, इन्हें स्वयंवर में वरी।
अग्रोहा तब नव बसा, झोली माँ लक्ष्मी भरी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-04-18

छप्पय छंद "विधान"

छप्पय एक विषम-पद मात्रिक छंद है। यह भी कुंडलिया छंद की तरह छह चरणों का एक मिश्रित छंद है जो दो छंदों के संयोग से बनता है। इसके प्रथम चार चरण रोला छंद के, जिसके प्रत्येक चरण में 24-24 मात्राएँ होती हैं तथा यति 11-13 पर होती है। आखिर के दो चरण उल्लाला छंद के होते हैं। उल्लाला छंद के दो भेदों के अनुसार इस छंद के भी दो भेद मिलते हैं। प्रथम भेद में 13-13 यानि कुल 26 मात्रिक उल्लाला के दो चरण आते हैं और दूसरे भेद में 15-13 यानि कुल 28 मात्रिक उल्लाला के दो चरण आते हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

Friday, June 7, 2019

गीत (देश हमारा न्यारा प्यारा)

देश हमारा न्यारा प्यारा,
देश हमारा न्यारा प्यारा।
सब देशों से है यह प्यारा,
देश हमारा न्यारा प्यारा।।

उत्तर में गिरिराज हिमालय,
इसका मुकुट सँवारे।
दक्षिण में पावन रत्नाकर,
इसके चरण पखारे।
अभिसिंचित इसको करती है,
गंगा यमुना की जलधारा।
देश हमारा न्यारा प्यारा -----।।

विंध्य, नीलगिरि, कंचनजंघा,
इसका गगन सजाते।
इसके कानन, उपवन आगे,
सुर के बाग लजाते।
सुरम्य क्षेत्रों की हरियाली,
इसकी है जन-मन  की हारा।
देश हमारा न्यारा प्यारा ----।।

उगले कनक सम शस्य फसल,
इसकी रम्य धरा नित।
इसकी अलग विविधता करती,
जन जन को सदा चकित।
कलरव से पशु-पक्षि लगाएँ
यहाँ स्वतन्त्रता का नारा ।
देश हमारा न्यारा प्यारा ----।।

सब जाति धर्म के नर नारी,
इस में खुश हों पलते।
बल, बुद्धि और सद्विद्या के,
स्वामी इसपे बसते।
इनके ही सद्गुण के बल पर,
आश्रित देश हमारा।
देश हमारा न्यारा प्यारा ----।।

न्योछावर कर दें सब कुछ,
हम इस के ही कारण।
बलशाली बन हम दुखियों के,
दुख का करें निवारण।
भारत के नभ में विकास का,
चमकाएं ध्रुवतारा।
देश हमारा न्यारा प्यारा ----।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
06-05-2016

गीत (दूर कितने तुम रहे)

बहर:- 2122 2122 2122 212

पास रहके भी हमीं से दूर कितने तुम रहे।
जान लेलो पर हमें यूँ ना सताओ बिन कहे।।

जो न आते पास तुम तो ना तड़पते रात दिन।
आग ना लगती दिलों में बेवजह या बात बिन।
ग़म भला क्योंकर के कोई बिन खता के यूँ सहे।।
पास रहके भी हमीं से दूर कितने तुम रहे।।

जिंदगी उलझी हमारी इंतज़ारों में अटक।
मंजिलें सारी खतम है राह में तेरी भटक।
प्यार की धारा में यारा हम सदा यूँ ही बहे।।
पास रहके भी हमीं से दूर कितने तुम रहे।।

जो बने उम्मीद के थे आशियाँ जुड़ जुड़ कभी।
सुनहरे सपने सजाये उन घरों में चुन सभी।
जान पाये हम कभी ना सब घरौंदे कब ढ़हे।।
पास रहके भी हमीं से दूर कितने तुम रहे।।

राख बनता जा रहा है दिल हमारा अब सनम।
जब मिलन होगा हमारा बच गये कितने जनम।
देख सकते देख लो तुम दिल सदा धू धू दहे।।
पास रहके भी हमीं से दूर कितने तुम रहे।।

एक ही बच अब गया है जिंदगी का रास्ता।
आँख ना हमसे चुराना दे रही हूँ वास्ता।
आस बाकी उन पलों की हाथ कोई जब गहे।।
पास रहके भी हमीं से दूर कितने तुम रहे।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
18-07-16

गीत (चलो स्कूल चलो)

(धुन: चलो दिलदार चलो)

चलो स्कूल चलो,
बस्ता पीठ लाद चलो,
सब हैं तैयार चलो,
आई बस भाग चलो।

हम पढ़ाई में बनेंगें बड़े-2
राह में कोई न हमरी अड़े
हमरी अड़े
चलो स्कूल चलो----

नाम दुनिया में करेंगें रोशन-2
होने देंगें न किसीका शोषन
किसीका शोषन
चलो स्कूल चलो----

देश का मान बढ़ाएँगें हम-2
साथ मिल सबके चलें हरदम
चलें हरदम
चलो स्कूल चलो----

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-07-2017

करवा चौथ पर आरती

ओम जय पतिदेव प्रिये
स्वामी जय पतिदेव प्रिये।
चौथ मात से विनती-2
शत शत वर्ष जिये।।

कार्तिक लगते आई, चौथ तिथी प्यारी।
करवा चौथ कहाये, सब से ये न्यारी।।
ओम जय पतिदेव प्रिये।

सूर्योदय से लेकर, जब तक चाँद दिखे।
तेरे कारण धारूँ, व्रत कुछ भी न चखे।।
ओम जय पतिदेव प्रिये।

सुनूँ कहानी माँ की, लाल चुनर धारूँ।
करवा रख कर पुजूँ, माँ पर सब वारूँ।।
ओम जय पतिदेव प्रिये।

चन्द्र ओट ले देखूँ, अर्ध्य उसे देऊँ।
दीर्घ आयु का तेरा, उससे वर लेऊँ।।
ओम जय पतिदेव प्रिये।

तेरे हाथों फिर मैं, व्रत तोड़ूँ साजन।
'नमन' सदा ही रखना, मुझको प्रिय भाजन।।
ओम जय पतिदेव प्रिये
स्वामी जय पतिदेव प्रिये।
चौथ मात से विनती-2
शत शत वर्ष जिये।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
07-10-17

नवगीत (भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ)

भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ।
बन्द सफलताओं पे पड़े तालों की कुँजी पा जाऊँ।।

विषधर नागों से नेता, सत्ता वृक्षों में लिपटे हैं;
उजले वस्त्रों में काले तन, चमचे उनसे चिपटे हैं;
जनता से पूरे कटकर, सुरा सुंदरी में सिमटे हैं;
चरण वन्दना कर उनकी सत्ता सुख थोड़ा पा जाऊँ।
भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ।।

इंजीनियर के बंगलों में, ठेकेदार बन काटूँ चक्कर;
नये नये तोहफों से रखूं, घर आँगन उसका सजाकर;
कुत्तों से उसके करूँ दोस्ती, हाय हलो टॉमी कहकर;
सीमेंट में बालू मिलाने की बेरोकटोक आज्ञा पा जाऊँ।
भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ।।

मंत्री के बीवी बच्चों को, नई नई शॉपिंग करवाऊँ;
उसके सेक्रेटरी से लेकर, कुक तक कुछ कुछ भेंट चढाऊँ;
पीक थूकता देख हथेली, आगे कर पीकदान बन जाऊँ;
सप्लाई में बिना दिए कुछ यूँ ही बिल पास करा लाऊँ।
भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ।।

बड़े बड़े भर्ती अफसर के, दफ्तर में जा तलवे चाटूँ;
दुम हिलाते कुत्ते सा बन, हाँ हाँ में झूठे सुख दुख बाँटूँ;
इंटरव्यू को झोंक भाड़ में, अच्छी भर्ती खुद ही छाँटूँ;
अकल के अंधे गाँठ के पूरे ऊँचे ओहदों पर बैठाऊँ।
भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ।।

मंचों के ओहदेदारों के, अनुचित को उचित बनाऊँ;
चाहे ढपोरशँख भी हो तो, झूठी वाह से 'सूर' बनाऊँ;
पढूँ कसीदे शान में उनकी, हार गले में पहनाऊँ;
नभ में टांगूँ वाहवाही से बदले में कुछ मैं भी पा जाऊँ।
भगवन चाटुकार मैं भी बन जाऊँ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-06-2016

Thursday, June 6, 2019

ग़ज़ल (जाम चले)

ग़ज़ल (जाम चले)

बह्र:- 2112

काफ़िया - आम; रदीफ़ - चले

जाम चले
काम चले।

मौत लिये
आम चले।

खुद का कफ़न
थाम चले।

श्वास तो अष्ट
याम चले।

भोर हो या
शाम चले।

लोग अवध
धाम चले।

मन में बसा
राम चले।

पैसा हो तो 
नाम चले।

जग में 'नमन'
दाम चले

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया।
25-09-17

ग़ज़ल (ख़ता मेरी अगर जो हो)

(लंबे से लंबे रदीफ़ की ग़ज़ल)

बह्र:- 1222*4
काफ़िया=आ
रदीफ़= मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खा़तिर 

ख़ता मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खा़तिर,
सजा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खा़तिर।

वतन के वास्ते जीना, वतन के वास्ते मरना,
वफ़ा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खा़तिर।

नशा ये देश-भक्ति का, रखे चौड़ी सदा छाती,
अना मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खा़तिर।

रहे चोटी खुली मेरी, वतन में भूख है जब तक,
शिखा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खा़तिर।

गरीबों के सदा हक़ में, उठा आवाज़ जीता हूँ,
सदा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खा़तिर।

रखूँ जिंदा शहीदों को, निभा किरदार मैं उनका,
अदा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खा़तिर।

मेरी मर्जी़ तो ये केवल, बढ़े ये देश आगे ही,
रज़ा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खा़तिर।

रहे रोशन सदा सब से, वतन का नाम हे भगवन,
दुआ मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खा़तिर।

चढ़ातें शीश माटी को, 'नमन' वे सब अमर होते,
कज़ा मेरी अगर जो हो, तो हो इस देश की खा़तिर।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया।
10-10-2017

ग़ज़ल (आज फैशन है)

बह्र:- 1222*4

लतीफ़ों में रिवाजों को भुनाना आज फैशन है,
छलावा दीन-ओ-मज़हब को बताना आज फैशन है।

ठगों ने हर तरह के रंग के चोले रखे पहने,
सुनहरे स्वप्न जन्नत के दिखाना आज फैशन है।

दबे सीने में जो शोले रहें महफ़ूज़ दुनिया से,
पराई आग में रोटी पकाना आज फैशन है।

कभी बेदर्द सड़कों पे बताना दर्द मत ऐ दिल,
हवा में आह-ए-मुफ़लिस को उड़ाना आज फैशन है।

रहे आबाद हरदम ही अना की बस्ती दिल पे रब,
किसी वीराँ जमीं पे हक़ जमाना आज फैशन है।

गली कूचों में बेचें ख्वाब अच्छे दिन के लीडर अब,
जहाँ मौक़ा लगे मज़मा लगाना आज फैशन है।

इबादत हुस्न की होती जहाँ थी देश भारत में,
नुमाइश हुस्न की करना कराना आज फैशन है।

नहीं उम्मीद औलादों से पालो इस जमाने में,
बड़े बूढ़ों के हक़ को बेच खाना आज फैशन है।

नहीं इतना भी गिरना चाहिए फिर से न उठ पाओ,
गिरों को औ' जियादा ही गिराना आज फैशन है।

तिज़ारत का नया नुस्ख़ा है लूटो जितनी मन मर्ज़ी,
'नमन' मज़बूरियों से धन कमाना आज फैशन है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-04-18

Tuesday, June 4, 2019

1222*4 बह्र के गीत

बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है।

किसी पत्थर की मूरत से महोब्बत का इरादा है।

भरी दुनियां में आके दिल को समझाने कहाँ जाएँ।

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों।

ये मेरा प्रेम पत्र पढ़ कर , कि तुम नाराज न होना।

कभी पलकों में आंसू हैं कभी लब पे शिकायत है।

ख़ुदा भी आस्मां से जब ज़मीं पर देखता होगा।

ज़रा नज़रों से कह दो जी निशाना चूक न जाए।

मुहब्बत ही न समझे वो जालिम प्यार क्या जाने।

हजारों ख्वाहिशें इतनी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले।

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं।

मुहब्बत हो गई जिनको वो परवाने कहाँ जाएँ।

मुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता।

कभी तन्हाईयों में भी हमारी याद आएगी।

परस्तिश की तमन्ना है, इबादत का इरादा है।

ग़ज़ल (शब-ए-वस्ल इतनी सुहानी लगी)

बह्र:- 122  122  122  12

शब-ए-वस्ल इतनी सुहानी लगी,
हमें ख्वाब सी जिंदगानी लगी।

हुई मुख़्तसर रात की जब सहर
हक़ीक़त हमें ये कहानी लगी।

छुड़ा हाथ लेना, वो हँस टालना,
सभी शय ही उनकी लसानी लगी।

वे नाज़ुक अदाएँ, हया उनकी! उफ़,
बड़ी जल्द शब की रवानी लगी।

मिली जबसे उनकी मुहब्बत हमें,
तभी से लुभाने जवानी लगी।

जिसे देखिये ग़म से सैराब वो,
कहीं खोने अब शादमानी लगी।

मसर्रत कहीं तो, कहीं रंज-ओ- ग़म,
'नमन' सारी दुनिया ही फ़ानी लगी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-05-19

Wednesday, May 22, 2019

मत्तगयंद सवैया "माँ दुर्गा"

7 भगण (211) की आवृत्ति के बाद 2 गुरु

माँ दुर्गा (1)

पाप बढ़े चहुँ ओर भयानक हाथ कृपाण त्रिशूलहु धारो।
रक्त पिपासु लगे बढ़ने दुखके महिषासुर को अब टारो।
ताण्डव से अरि रुण्डन मुण्डन को बरसा कर के रिपु मारो।
नाहर पे चढ़ भेष कराल बना कर ताप सभी तुम हारो।।
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माँ दुर्गा (2)

नेत्र विशाल हँसी अति मोहक तेज सुशोभित आनन भारी।
क्रोधित रूप प्रचण्ड महा अरि के हिय को दहलावन कारी।
हिंसक शोणित बीज उगे अरु पाप बढ़े सब ओर विकारी।
शोणित पी रिपु नाश करो पत भक्तन की रख लो महतारी।।
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माँ दुर्गा (3)

शुम्भ निशुम्भ हने तुमने धरणी दुख दूर सभी तुम कीन्हा।
त्राहि मची चहुँ ओर धरा पर रूप भयावह माँ तुम लीन्हा।
अष्ट भुजा अरु आयुध भीषण से रिपु नाशन माँ कर दीन्हा।
गावत वेद पुराण सभी यश जो वर माँगत देवत तीन्हा।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-07-2017

सवैया छंद विधान

'सवैया छंद'

सवैया छंद चार चरणों का वर्णिक छंद है जिसके प्रति चरण में 22 से 26 तक वर्ण रहते हैं। चारों चरण समतुकांत होते हैं। सवैया किसी गण पर आश्रित होता है जिसकी 7 या 8 आवृत्ति रहती है। इन्ही आवृत्तियों के प्रारंभ में एक या दो साधारणतया लघु वर्ण और अंत में एक या दो लघु गुरु वर्ण जोड़ कर इस छंद के अनेक विभेद मिलते हैं।

आवृत्ति का रूप या तो गुरु लघु लघु (211) रहता है या फिर गुरु गुरु लघु (221) और यही सवैया छंद की विशेषता है और इसके माधुर्य का कारण है। इस आवृत्ति से एक लय का सृजन होता है जो समस्त भगण (211) आश्रित सवैयों की एक समान क्षिप्र गति की रहती है और तगण (221) आश्रित सवैयों की एक समान मन्द गति की रहती है।

हिन्दी के भक्तिकाल और रीतिकाल से ही विभिन्न प्रकार के सवैये प्रचलित रहे हैं। तुलसी की कवितावली में विभिन्न प्रकार के सवैये मिलते हैं। उन्होंने एक ही सवैये में एक से अधिक प्रकार के सवैये मिला कर अनेक उपजाति सवैये भी रचे हैं।

रीतिकालीन कवियों जैसे पद्माकर, देव आदि ने श्रृंगार रस के विभिन्न अंगों, विभाव, अनुभाव, आलम्बन, उद्दीपन, संचारी, नायक-नायिका भेद आदि के लिए इनका चित्रात्मक तथा भावात्मक प्रयोग किया है।रसखान, घनानन्द, केशव जैसे प्रेमी-भक्त कवियों ने भक्ति-भावना के उद्वेग तथा आवेग की सफल अभिव्यक्ति सवैया में की है।भूषण ने वीर रस के लिए इस छंद का प्रयोग किया है। आधुनिक कवियों में हरिश्चन्द्र, जगन्नाथ रत्नाकर, दिनकर ने इनका सुन्दर प्रयोग किया है।

सवैया छंद में उर्दू की ग़ज़ल की तरह गुरु वर्ण को लघु मानने की परंपरा रही है। लगभग तुलसी से लेकर आधुनिक कवियों तक, समस्त कवि गण ने निशंकोच सवैयों में यह छूट ली है। कुछेक छंदों में यह मान्य है कि कारक की विभक्तियों के एकाक्षरी शब्द लघु की तरह व्यवहार में लाये जा सकते हैं। जैसे-

कर्ता - ने को न की तरह उच्चारित किया जा सकता है.
कर्म - को इसे क पढ़ा जा सकता है. 
करण, अपादान - से स की तरह पढ़ सकते हैं. 
सम्बन्ध - का, के, की  के लिए भी मात्र क कहा जा सकता है. 
अधिकरण - में, पे आदि क्रमशः मँ और प की तरह उच्चारित हो सकते हैं.

इसके अतिरिक्त एक शब्द की सहायक क्रियाएँ, सर्वनाम और अव्यय शब्द जैसे है, हैं, था, ही, भी, जो, तो इत्यादि भी आवश्यकतानुसार लघु माने जाते रहे हैं।

अब कुछ प्रमुख कवियों के ऐसे प्रयोग के उदाहरण देखें।

जहाँ सब संकट, दुर्गट सोचु, तहाँ मे'रो' साहे'बु राखै' रमैया॥ (तुलसी कवितावली 'वाम सवैया')

मानुष हौं तो' वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के' ग्वारन।
जो पसु हौं तो' कहा बस मेरो' चरौं नित नंद की' धेनु मँझारन।। (रसखान 'किरीट सवैया')

वह खड्ग लिए था' खड़ा, इससे मुझको भी' कृपाण उठाना था क्या ?
द्रौ'पदी के' पराभव का बदला कर देश का' नाश चुकाना था क्या ? (दिनकर 'मगणान्त दुर्मिल सवैया'')

पैहौं' कहाँ ते' अटारी' अटा, जिनके विधि दीन्‍ही' है' टूटी' सी' छानी।
जो पै' दरिद्र लिख्‍यो है' लिलार, तो' काहू' पै' मेटि न जात अजानी।।(नरोत्तम दास 'मत्तगयंद सवैया')

परन्तु आजकल के तथाकथित स्वयंभू आचार्य न जाने क्यों ऐसी एक छूट भी देख रचना को ही सिरे से नकार देते हैं, जो कि इस बहुआयामी छंद के विकास में बाधक ही है।

नीचे भगण आश्रित 14 सवैया छंद और तगण आश्रित 6 सवैया छंद की तालिका दी गई है। चरणान्त के अनुसार विभागों में भी बाँटे गए हैं। कोई चाहे तो एक विभाग के सवैये मिश्रित कर उपजाति सवैये भी रच सकता है।

====================
      भगण = 211 आश्रित सवैये
====================

1) मत्तगयन्द सवैया -        211*7 + 22
2) सुन्दरी सवैया  -    11+211*7 + 22
3) वाम सवैया    -       1+211*7 + 22
4) मोद सवैया - 211*5+222+11+ 22
===================
5) मदिरा सवैया    -        211*7 + 2
6) दुर्मिल सवैया -    11 +211*7 + 2
7) सुमुखी सवैया   -   1 +211*7 + 2
===================
8) चकोर सवैया   -         211*7 + 21
9) अरविन्द सवैया - 11 +211*7 + 21
10) मुक्ताहरा सवैया -  1+211*7 + 21
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11) किरीट सवैया   -        211*8
12) सुखी सवैया     -  11+211*8
13) लवंगलता सवैया -  1+211*8
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14) अरसात सवैया - 211*7 + 212
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       तगण = 221 आश्रित सवैये
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15) मंदारमाला सवैया  -   221*7 + 2
16) गंगोदक सवैया - 21+221*7 + 2
17) वागीश्वरी सवैया -  1+221*7 + 2
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18) सर्वगामी सवैया -        221*7 + 22
19) भुजंगप्रयात सवैया - 1+221*7 + 22
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20) आभार सवैया   -       221*8
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
29-04-19

Tuesday, May 21, 2019

"गण-विचार दोहा"

दोहा छंद

'यरता' लघु 'भजसा' गुरो, आदि मध्य अरु अंत।
'ना' लघु सब 'मा' गुरु सभी, गण विचारते संत।।

गण विचार कैसे करें:-

कुल गण 8 होते हैं, तथा किसी भी गण में 3 वर्ण होते हैं। उस वर्ण की मात्रा या तो दीर्घ (2) होगी अन्यथा लघु (1) होगी।

'यरता' लघु सूत्र से अक्षर के अनुसार 3 गण दिग्दर्शित होते हैं जो क्रमश: यगण, रगण और तगण हैं। अब इनमें क्रमश: लघु वर्ण की स्थिति आदि, मध्य और अंत है। तो इन 3 गणों का निम्न रूप बनेगा।
यगण=122
रगण=212
तगण=221
इसी प्रकार 'भजसा' गुरो सूत्र से अक्षर के अनुसार 3 गण दिग्दर्शित होते हैं जो क्रमश: भगण, जगण और सगण हैं। अब इनमें क्रमश: दीर्घ वर्ण की स्थिति आदि, मध्य और अंत है। तो इन 3 गणों का निम्न रूप बनेगा।
भगण=211
जगण=121
सगण=112

'ना' लघु सब अर्थात नगण=111

'मा' गुरु सभी अर्थात मगण=222

इसप्रकार मेरे स्वरचित उपरोक्त दोहे से किसी भी गण के मात्रा-विन्यास का शीघ्र पता लग जाता है। जैसे जगण का नाम आते ही मस्तिष्क में तुरन्त 'भजसा गुरो' कौंधना चाहिए और भजसा में ज मध्य में है तो, हमें तुरन्त पता चल जाता है कि इसका रूप 121 है।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-05-2019

दोहा छंद विभेद

दोहा छंद के मुख्य 21 प्रकार हैं। ये 21 भेद दोहे में गुरु लघु वर्ण की गिनती पर आधारित हैं। किसी भी दोहे में कुल 24+24 = 48 मात्रा होती है। दो विषम चरण 13, 13 मात्रा के तथा दो सम चरण 11, 11 मात्रा के। दोहे के सम चरणों का अंत ताल यानि गुरु लघु (2,1) वर्ण से होना आवश्यक है। अतः किसी भी दोहे में कम से कम 2 गुरु वर्ण आवश्यक हैं। साथ ही विषम चरणों की 11वीं मात्रा लघु होनी आवश्यक है। इस प्रकार विषम चरणों के दो लघु तथा सम चरणों के भी 2 आवश्यक लघु मिलाने से किसी भी दोहे में कम से कम 4 लघु आवश्यक हैं। चार लघु की 4 मात्रा तथा बाकी बची (48-4) = 44 मात्रा में अधिकतम 22 गुरु हो सकते हैं। इस प्रकार अधिकतम 22 गुरु वर्ण से निम्नतम 2 गुरु वर्ण तक कुल 21 सम्भावनाएँ हैं और इन सम्भावनाओं के आधार पर दोहा छंद के 21 भेद कहे गये हैं जो निम्न हैं। 

1.भ्रमर दोहा, 
2.सुभ्रमर दोहा, 
3.शरभ दोहा, 
4.श्येन दोहा, 
5.मण्डूक दोहा,
6.मर्कट दोहा, 
7.करभ दोहा, 
8.नर दोहा, 
9.हंस दोहा,
10.गयंद दोहा,
11.पयोधर दोहा, 
12.बल दोहा, 
13.पान दोहा,
14.त्रिकल दोहा, 
15.कच्छप दोहा, 
16.मच्छ दोहा, 
17.शार्दूल दोहा, 
18.अहिवर दोहा, 
19.व्याल दोहा, 
20.विडाल दोहा, 
21.श्वान दोहा।

इनमें 'भ्रमर' दोहा में 22 गुरु तथा क्रमशः एक एक गुरु वर्ण कम करते हुए अंतिम 'श्वान' दोहा में 2 गुरु होते हैं। दोनों छोर के एक एक मेरे स्वरचित दोहों की बानगी देखें।

भ्रमर दोहा छंद (22 दीर्घ, 4 लघु)

बीती जाये जिंदगी, त्यागो ये आराम।
थोड़ी नेकी भी करो, छोड़ो दूजे काम।।

श्वान दोहा छंद (2 दीर्घ, 44 लघु)

मन हर कर छिप कर रहत, वह नटखट दधि-चोर।
ब्रज-रज पर लख चरण-छवि, मन सखि उठत हिलोर।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन' ©
तिनसुकिया
20-04-18