Wednesday, December 4, 2019

ग़ज़ल (चढ़ी है एक धुन मन में)

ग़ज़ल (चढ़ी है एक धुन मन में)

नारी शक्ति को समर्पित मुसलसल ग़ज़ल।

1222   1222   1222   1222

चढ़ी है एक धुन मन में पढ़ेंगी जो भी हो जाए,
बड़ी अब इस जहाँ में हम बनेंगी जो भी हो जाए।

कोई कमजोर मत समझो नहीं हम कम किसी से हैं,
सफलता की बुलन्दी पे चढ़ेंगी जो भी हो जाए।

बहुत गहरी है खाई नर व नारी में सदा से ही,
बराबर उसको करने में लगेंगी जो भी हो जाए।

हिक़ारत से नहीं देखे हमें दुनिया समझ ले अब,
नहीं हक़ जो मिला लेके रहेंगी जो भी हो जाए।

जमीं हो आसमां चाहे समंदर हो या पर्वत हो,
मिला कदमों को मर्दों से चलेंगी जो भी हो जाए।

भरेंगी फौज को हम भी चलेंगी संग सैना के,
वतन के वास्ते हम भी लड़ेंगी जो भी हो जाए।

हिमालय से इरादे हैं अडिग विश्वास वालीं हम,
'नमन' हम पूर्ण मन्सूबे करेंगी जो भी हो जाए।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन,
तिनसुकिया
17-10-2016

ग़ज़ल (लगाए बहुत साल याँ आते आते)

बह्र:- 122  122  122  122

लगाए बहुत साल याँ आते आते,
रुला ही दिया क़द्र-दाँ आते आते।

बहुत थक गए हम रह-ए-ज़िन्दगी में,
थकीं पर न दुश्वारियाँ आते आते।

घुटी साँस ज्यूँ ही गली आई उनकी,
न मर जाएँ उनका मकाँ आते आते।

करें याद गर वो ज़रा भी नहीं ग़म,
निकल जाए दम हिचकियाँ आते आते।

बड़ी गर्मजोशी से दावत सजी थी,
हुआ ठंडा सब मेज़बाँ आते आते।

बताऐँ तुझे क्या ए ख्वाबों की मंज़िल,
कहाँ पहुँचे थे हम यहाँ आते आते।

'नमन' क्या बचा जो करें फ़िक्र उसकी,
लुटा कारवाँ पासबाँ आते आते।

(पासबाँ - रक्षक, चौकीदार)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-10-19

ग़ज़ल (चरागों के साये में बुझते रहे)

बह्र:- 122  122  122  12

चरागों के साये में बुझते रहे,
अँधेरे में पर हम दहकते रहे।

डगर गर न आसाँ तो परवाह क्या,
भरोसा रखे खुद पे चलते रहे।

जमाना हमें खींचता ही रहा,
मगर था हमें बढ़ना बढ़ते रहे।

जहाँ से थपेड़े ही खाये सदा,
मगर हम मुसीबत में ढलते रहे।

जवानों के जज़्बे का क्या हम कहें,
सदा हाथ दुश्मन ही मलते रहे।

महब्बत की मंजिल न ढूंढे मिली,
कदम दर कदम हम भटकते रहे।

गुलाबों सी फितरत मिली है 'नमन',
गले से लगा खार हँसते रहे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-09-19

ग़ज़ल (मुसीबतों में जो घिर के बिखरते जाते हैं)

बह्र: 1212  1122  1212  22

मुसीबतों में जो घिर के बिखरते जाते हैं,
समझ लो पंख वे खुद के कतरते जाते हैं।

अकेले आहें भरें और' सिहरते जाते हैं,
किसी की यादों में लम्हे गुजरते जाते हैं।

हजार आफ़तों में भी जो मुस्कुरा के जियें,
वे ज़िंदगी में सदा ही निखरते जाते हैं।

सभी के साथ मिलाकर क़दम जो चलते नहीं,
वो हर मक़ाम पे यारो ठहरते जाते हैं।

किसी के इश्क़ का ऐसा असर हुआ उनपर
कि देख आइना घँटों सँवरते जाते हैं।

उलझ के दुनिया की बातों में जो नहीं रहते,
वो ज़िन्दगी में बड़े काम करते जाते हैं

'नमन' तू उनसे बचा कर ही चलना दामन को,
जो दूसरों पे ही इल्ज़ाम धरते जाते हैं।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
05-10-19

Tuesday, November 26, 2019

दोहा "राम महिमा"

दोहा छंद

शीश नवा वन्दन करूँ, हृदय बसो रघुनाथ।
तुलसी के प्रभु रामजी, धनुष बाण ले हाथ।।

राही अब तो चेत जा, भज ले मन से राम।
कष्ट मिटे सब राह के, बनते बिगड़े काम।।

महिमा है प्रभु राम की, चारों ओर अनंत।
गावै वेद पुराण सब, ऋषि मुनि साधू संत।।

रघुकुल भूषण राम का, ऐसा प्रखर प्रताप।
नाम जाप से ही कटे, भव के सारे पाप।।

दीन पतित जन का सदा, राम करे उद्धार।
प्रभु से बढ़ कर कौन जो, भव से करता पार।।

सीता माता लाज रख, नित करता मैं ध्यान।
देकर के आशीष तुम, मात बढ़ाओ मान।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-01-19

ताँका (संदल तन)

जापानी विधा (5-7-5-7-7)

संदल तन
चंचल चितवन
धीरे मुस्काना,
फिर आँख झुकाना
कर देता दीवाना।
**

उजड़े बाग
धूमिल है पराग
कागजी फूल,
घरों में सज रहे
पर्यावरण दहे।
**

अच्छा सोचना
लिखना व बोलना
अलग बात,
उस पर चलना
सब की न औकात।
**

शीत कठोर!
स्मृति-सलाकाओं पे
बुनूँ स्वेटर,
माँ के खोये नेह का
कुछ तो गर्मी वो दे।
**

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-11-2019

Tuesday, November 19, 2019

क्षणिका (लोकतंत्र)

कुछ इंसान शेर
बाकी बकरियाँ,,,,
कुछ बाज
बाकी चिड़ियाँ,,
कुछ मगर, शार्क
बाकी मछलियाँ,,
और जब ये सब,
बकरी, चिड़िया, मछली,,
अपनी अपनी राग में
अलग अलग सुर में,
इन शेर, बाज, शार्क से,
जीने का हक और
सुरक्षा माँगने लगें,
तो समझ लें
यही लोकतंत्र है?

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-06-19

सेदोका (निर्झर)

5-7-7-5-7-7 वर्ण

(1)
स्वच्छ निर्झर
पर्वत से गिरता,
नदी बन बहता।
स्वार्थी मानव!
डाले कूड़ा कर्कट,
समस्या है विकट।
**

(2)
निर्झर देता
जीवन रूपी जल,
चीर पर्वत-तल।
सदा बहना
शीत ताप सहना,
है इसका गहना।
**

(3)
यह झरना
जो पर्वत से छूटा,
सीधा भू पर फूटा।
धवल वेणी,
नभ से धरा तक
सर्प सी लहराए।
**

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
29-06-19

मनहरण घनाक्षरी "कतार की महिमा"


                               (1)
जनसंख्या भीड़ दिन्ही, भीड़ धक्का-मुक्की किन्ही,
धक्का-मुक्की से ही बनी, व्यवस्था कतार की।

राशन की हो दुकान, बैंकों का हो भुगतान,
चाहे लेना हो मकान, महिमा कतार की।

देना हो जो इम्तिहान, लेना हो या अनुदान,
दर्श भगवान का हो, है छटा कतार की।

दिखलाओ चाहे मर्ज, लेना हो या फिर कर्ज,
वोट देने नोट लेने, में प्रभा कतार की।।

                       (2)
माचे खलबली घोर, छाये चहुँ ओर शोर,
नियंत्रित भीड़ झट, करत कतार है।

हड़कम्प मचे जब, उथल-पुथल सब,
सीख अनुशासन की, देवत कतार है।

भीड़ सुशासित करे, अव्यवस्था झट हरे,
धैर्य की भी पहचान, लेवत कतार है।

मोतियों की माल जैसे, लोग जुड़ते हैं वैसे,
संगठन के बल से, बनत कतार है।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
7-12-16

शिव महिमा

7 भगण (211) की आवृत्ति के बाद 2 गुरु


भष्म रमाय रहे तन में प्रभु, चन्द्र बसे सज माथ तिहारे।
वीर षडानन मूषक वाहन, बन्धुन के तुम तात दुलारे।
पावन गंग सजे सर ऊपर, भाल त्रिपुण्ड सदैव सँवारे।
शंकर नाथ अनाथन के तुम, दीनन के तुम एक सहारे।

बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया
25-07-17

Thursday, November 14, 2019

मुक्तक (राजनैतिक व्यंग)

एक राजनैतिक व्यंग मुक्तक

भारत के जब से वित्त मंत्री श्री जेटली।
तुगलकी फरमानों की नित खुलती पोटली।
मोदीजी इनसे बचके रहें आप तो जरा।
पकड़ा न दें ये चाय की वो फिर से केटली।।

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(चीन पर व्यंग)

सामान बेचते हो आँख भी दिखा रहे।
फूटी किस्मत में चीन धूल क्यों लिखा रहे।
ग्राहक भगवान का ही दूसरा है रूप।
व्यापार की ये रीत तुझे हम सिखा रहे।।

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(राहुल गांधी की हार पर व्यंग)

हार क्यों मेरी हुई यह सोच मैं हलकान हूँ,
कैसे चौकीदार अंकल जीता मैं अनजान हूँ,
लोग क्यों पप्पू मुझे कहते इसे समझा नहीं,
माँ बता दे तू मुझे क्या मैं अभी नादान हूँ।

(2122*3+212)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
25-05-19

मुक्तक (भाव-प्रेरणा)

नन्दन कानन में स्मृतियों के, खोया खोया मैं रहता हूँ,
अवचेतन के राग सुनाने, भावों में हर पल बहता हूँ,
रहता सदा प्रतीक्षा रत मैं, कैसे नई प्रेरणा जागे,
प्रेरित उससे हो भावों को, काव्य रूप में तब कहता हूँ।

बहे काव्य धारा मन में नित, गोते जिसमें खूब लगाऊँ,
दिव्य प्रेरणा का अभिनन्दन, भावों में बह करता जाऊँ,
केवट सा बन कर खेऊँ मैं,  भावों की बहती जल धारा,
भाव गीत बन के तब उभरे, केवट का मैं गान सुनाऊँ।

(32 मात्रिक छंद)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया।
14-04-18

मुक्तक (समसामयिक-1)

(विश्वकर्मा तिथि)

सत्रह सेप्टेंबर की तिथि है, देव विश्वकर्मा की न्यारी,
सृजन देव ये कहलाते हैं, हाथी जिनकी दिव्य सवारी,
अर्चन पूजा कर इनकी हम, सुध कुछ उनकी भी ले लेते,
जिन मजदूरों से इस भू पर, खिलती निर्माणों की क्यारी।

(32 मात्रिक छंद)
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(पर्यटक दिवस)

विश्व-पर्यटक दिन घोषित है, दिवस सताइस सेप्टेंबर,
घोषित किंतु नहीं कोई है, सार्वजनिक छुट्टी इस पर,
मार दोहरी के जैसा है, आज पर्यटन बिन छुट्टी,
आफिस में पैसे कटते हैं, बाहर के खर्चे दूभर।

(लावणी छंद)

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-10-2016

देव घनाक्षरी (सिंहावलोकन के साथ)

8+8+8+9 अंत नगण

भड़क के ऑफिस से, आज फिर सैंया आए,
लगता पड़ी है डाँटें, बॉस की कड़क कड़क।

कड़क गरजते हैं, घर में ये बिजली से,
वहाँ का दिखाए गुस्सा, यहाँ पे फड़क फड़क।

फड़क के बोले शब्द, दिल भेदे तीर जैसे,
छलनी कलेजा हुआ, करता धड़क धड़क,

धड़क बढे है ज्यों ज्यों, आ रहा रुदन भारी,
सुलगे जिया में अब, आग ये भड़क भड़क।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
16-10-19

डमरू घनाक्षरी

8 8 8 8  --32 मात्रा (बिना मात्रा के)

मन यह नटखट, छण छण छटपट,
मनहर नटवर, कर रख सर पर।

कल न पड़त पल, तन-मन हलचल,
लगत सकल जग, अब बस जर-जर।

चरणन रस चख, दरश-तड़प रख,
तकत डगर हर, नयनन जल भर।

मन अब तरसत, अवयव मचलत,
नटवर रख पत, जनम सफल कर।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
1-03-18