Saturday, December 28, 2019

माहिया (विरही रात)

सीपी में आँखों की,
मौक्तिक चंदा भर,
भेंट मिली पाँखों की।

नव पंख लगा उड़ती
सपनों के नभ में,
प्रियतम से मैं जुड़ती।

तारक-चूनर ओढ़ी,
रजनी की मोहक,
चल दी साजन-ड्योढ़ी।

बादल नभ में छाये,
ढ़क लें चंदा को,
फिर झट मुँह दिखलाये।

आँख मिचौली करता,
चन्द्र लगे ज्यों पिय,
प्रेम-ठिठौली करता।

सूनी जीवन-बगिया,
तन के पंजर में
कैद पड़ी मन-चिड़िया।

रातें छत पर कटती,
और चकोरी ये,
व्याकुल पिउ पिउ रटती।

तकती नभ को रहती,
निर्मोही पिय की
विरह-व्यथा सहती।

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प्रथम और तृतीय पंक्ति तुकांत (222222)
द्वितीय पंक्ति अतुकांत (22222)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-06-19

चोका (गुलाब बनो)

(चोका कविता)

जापानी विधा चोका
5-7, 5-7, 5-7 -------- +7 वर्ण प्रति पंक्ति

गुलाब बनो
सौरभ बिखराओ,
राहगीर को
काँटे मत चुभाओ,
चिराग बनो
आलोक छिटकाओ,
आग को लगा
घर मत जलाओ,
बिजली बनो
जग जगमगाओ,
किसी पे गिर
उसे मत उजाड़ो,
अस्तित्व न मिटाओ।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-06-19

कहमुकरी (वाहन)

आता सीटी सा ये बजाता,
फिर नभ के गोते लगवाता,
मिटा दूरियाँ देता चैन,
क्या सखि साजन?ना सखि प्लैन।

सीटी बजा बढ़े ये आगे,
पहले धीरे फिर ये भागे,
इससे जीवन के सब खेल,
क्या सखि साजन? ना सखि रेल।

इसको ले बन ठन कर जाऊँ,
मन में फूली नहीं समाऊँ,
इस बिन मेरा सूना द्वार,
क्या सखि साजन? ना सखि कार।

वाहन ये जीवन का मेरा,
कहीं न लगता इस बिन फेरा,
सच्चा साथी रहता घुलमिल,
क्या सखि साजन? नहीं साइकिल।

रुक रुक मंजिल तय करता है,
पर हर दूरी को भरता है,
इस बिन हो न सकूँ मैं टस मस,
क्या सखि साजन? ना सखि ये बस।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-11-2018

Tuesday, December 24, 2019

गीत (रहे देश का नाम ऊँचा तभी)

भुजंगी छंद वाचिक

गरीबी रहे ना यहाँ पे कभी।
रहे देश का नाम ऊँचा तभी।।

रखें भावना प्यार की सबसे हम,
दुखी जो हैं उनके करें दुख को कम,
दिलों में दया भाव धारें सभी।
रहे देश का नाम ऊँचा तभी।।

मिला हाथ आगे बढ़ें सब सदा,
न कोई रहे कर्ज़ से ही लदा,
दुखी दीन को दें सहारा सभी।
रहे देश का नाम ऊँचा तभी।।

हुये बेसहारा उन्हें साथ दें,
गिरें हैं जमीं पे उन्हें हाथ दें,
जवानों बढ़ो आज आगे सभी।
रहे देश का नाम ऊँचा तभी।।

वतन के लिए जान हँस हँस के दें,
तिरंगे को झुकने कभी हम न दें,
बढ़े देश आगे सुखी हों सभी।
रहे देश का नाम ऊँचा तभी।।

‘नमन’ देश को कर ये प्रण हम करें,
नहीं भूख से लोग आगे मरें,
जो खुशहाल होंगें यहाँ पर सभी।
रहे देश का नाम ऊँचा तभी।।
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भुजंगी छंद विधान –

भुजंगी छंद 11 वर्ण प्रति चरण का वर्णिक छंद है जिसका वर्ण विन्यास 122*3 + 12 है। इस चार चरणों के छंद में 2-2 अथवा चारों चरणों में समतुकांतता रखी जाती है।

यह छंद वाचिक स्वरूप में भी प्रसिद्ध है जिसमें उच्चारण के आधार पर काफी लोच संभव है। वाचिक स्वरूप में गुरु वर्ण (2) को लघु+लघु (11) में तोड़ने की तथा उच्चारण के अनुसार गुरु वर्ण को लघु मानने की भी छूट रहती है।

लिंक---> वाचिक स्वरूप


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-11-2016


गीत (भारत तु जग से न्यारा)

(तर्ज़- दिल में तुझे बिठा के)

(2212  122 अंतरा 22×4 // 22×3)

भारत तु जग से न्यारा, सब से तु है दुलारा,
मस्तक तुझे झुकाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।

सन सैंतालिस मास अगस्त था, तारिख पन्द्रह प्यारी,
आज़ादी जब हमें मिली थी, भोर अज़ब वो न्यारी।
चारों तरफ खुशी थी, छायी हुई हँसी थी,
ये पर्व हम मनाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।

आज़ादी के नभ का यारों, मंजर था सतरंगा,
उतर गया था जैक वो काला, लहराया था तिरंगा।
भारत की जय थी गूँजी, अनमोल थी ये पूँजी,
सपने नये सजाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।

बहुत दिये बलिदान मिली तब, आज़ादी ये हमको,
हर कीमत दे इसकी रक्षा, करनी है हम सबको।
दुश्मन जो सर उठाएँ, उनको सबक सिखाएँ,
मन में यही बसाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।

भारत तु जग से न्यारा, सब से तु है दुलारा,
मस्तक तुझे झुकाएँ, तेरे ही गीत गाएँ।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
13-08-17

विविध मुक्तक -1

जिंदा जब तक थे अपनों के हित तो याद बहुत आये,
लिख वसीयतें हर अपने के कुछ कुछ तो ख्वाब सजाये,
पर याद न आयी उन अन्धो की जीवन की वीरानी,
जिन के लिए वसीयत हम इन आँखों की कर ना पाये।

(2*15)
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परछाँई देखो अतीत की, जब तू था बालक लाचार।
चलना तुझे सिखाया जिनने, लुटा लुटा कर अपना
प्यार।
रोनी रोनी सूरत क्यों है, आज उन्हीं की अंगुल थाम।
कद तेरा क्या आज बढ़ गया, रहा उन्हें जो तू दुत्कार।

(आल्हा छंद आधारित)
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चंद्र ! ग्रसित होना ही शायद, नियति तुम्हारी लगती है।
रूप बदल लो चाहे जितने, दीप्ति भला कब छुपती है।
भरे पड़े हैं राहु जगत में, पथ-पथ में, हर मोड़ों पे।
जो चमकेगा उसको ही तो, समय नागिनी डँसती है।

(लावणी छंद आधारित)
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-10-17

रुबाई (4-6)

रुबाई -4

हाथी को दिखा आँख रहा चूहा है,
औकात नहीं कुछ भी मगर फूला है,
कश्मीर न खैरात में बँटता है ए सुन,
लगता है तु पैदा ही हुआ भूखा है।

रुबाई -5

झकझोर हमें सकते न ये झंझावात,
जितनी भी मिले ज़ख्मों की चाहे सौगात,
जीते हैं सदा फ़क्र से रख अपनी अना,
जो हिन्द में है वैसी कहाँ ओर ये बात।

रुबाई -6

शबनम सा जबीं पर है पसीना छलका,
क्या हुस्न का ये आब जो यूँ है झलका,
या टूट गया सब्र घटा से छाये,
लहराती हुई जुल्फों के इन बादल का।
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रुबाई विधान:- 221  1221  122  22/112
1,2,4 चरण तुकांत।
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-09-19

Saturday, December 21, 2019

मत्तगयंद सवैया (पैर मिले)

7 भगण (211) की आवृत्ति के बाद 2 गुरु

पैर मिले करने सब तीरथ, हाथ दुखारिन दान दिलाने।
कान मिले सुनिए प्रभु का जस, नैन मिले छवि श्याम बसाने।
बैन मिले नित गा हरि के गुण, माथ दयानिधि पाँव नवाने।
'बासु' कहे सब नीक दिये प्रभु, क्यों फिर पेटहु पाप कमाने।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
03-09-17

मनहरण घनाक्षरी "गीत ऐसे गाइए"

माटी की महक लिए, रीत की चहक लिए,
प्रीत की दहक लिए, भाव को उभारिए।

छातियाँ धड़क उठें, हड्डियाँ कड़क उठें,
बाजुवें फड़क उठें, वीर-रस राचिए।

दिलों में निवास करें, तम का उजास करें,
देश का विकास करें, मन में ये धारिए।

भारती की आन बान, का हो हरदम भान,
विश्व में दे पहचान, गीत ऐसे गाइए।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-05-17

दोहा गीतिका (शब्द)

काफ़िया = आये, रदीफ़ = शब्द

मान और अपमान दउ, देते आये शब्द।
अतः तौल के बोलिये, सब को भाये शब्द।।

सजा हस्ति उपहार में, कभी दिलाये शब्द।
उसी हस्ति के पाँव से, तन कुचलाये शब्द।।

शब्द ब्रह्म अरु नाद हैं, शब्द वेद अरु शास्त्र।
कण कण में आकाश के, रहते छाये शब्द।।

शब्दों से भाषा बने, भाषा देती ज्ञान।
ज्ञान कर्म का मूल है, कर्म सिखाये शब्द।।

देश काल अरु पात्र का, करलो पूर्ण विचार।
सोच समझ बोलो तभी, हृदय सजाये शब्द।।

ठेस शब्द की है बड़ी, झट से तोड़े प्रीत।
बिछुड़े प्रेमी के मनस, कभी मिलाये शब्द।।

वन्दन क्रंदन अरु 'नमन', काव्य छंद सुर ताल।
भक्ति शक्ति अरु मुक्ति का, द्वार दिखाये शब्द।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-08-17

Monday, December 9, 2019

चौपाल (कुण्डलिया)

धोती कुर्ता पागड़ी, धवल धवल सब धार।
सुड़क रहे हैं चाय को, करते गहन विचार।।
करते गहन विचार, किसी की शामत आई।
बैठे सारे साथ, गाँव के बूढ़े भाई।।
झगड़े सब निपटाय, समस्या सब हल होती।
अद्भुत यह चौपाल, भेद जो सब ही धोती।।

बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया
29-06-18

आल्हा छंद "आलस्य"

आल्हा छंद / वीर छंद

कल पे काम कभी मत छोड़ो, आता नहीं कभी वह काल।
आगे कभी नहीं बढ़ पाते, देते रोज काम जो टाल।।
किले बनाते रोज हवाई, व्यर्थ सोच में हो कर लीन।
मोल समय का नहिं पहचाने, महा आलसी प्राणी दीन।।

बोझ बने जीवन को ढोते, तोड़े खटिया बैठ अकाज।
कार्य-काल को व्यर्थ गँवाते, मन में रखे न शंका लाज।
नहीं भरोसा खुद पे रखते, देते सदा भाग्य को दोष,
कभी नहीं पाते ऐसे नर, जीवन का सच्चा सन्तोष।।

आलस ऐसा शत्रु भयानक, जो जर्जर कर देता देह।
मान प्रतिष्ठा क्षीण करे यह, अरु उजाड़ देता है गेह।।
इस रिपु से जो नहीं चेतते, बनें हँसी के जग में पात्र।
बन कर रह जाते हैं वे नर, इसके एक खिलौना मात्र।।

कुकड़ू कूँ से कुक्कुट प्रतिदिन, देता ये पावन संदेश।
भोर हुई है शय्या त्यागो, कर्म-क्षेत्र में करो प्रवेश।।
चिड़िया चहक चहक ये कहती, गौ भी कहे यही रंभाय।
वातायन से छन कर आती, प्रात-प्रभा भी यही सुनाय।।

पर आलस का मारा मानस, इस सब से रह कर अनजान।
बिस्तर पे ही पड़ा पड़ा वह, दिन का कर देता अवसान।।
ऊहापोह भरी मन-स्थिति के, घोड़े दौड़ा बिना लगाम।
नये बहाने नित्य गढ़े वह, टालें कैसे दैनिक काम।।

मानव की हर प्रगति-राह में, खींचे आलस उसके पाँव।
अकर्मण्य रूखे जीवन पर, सुख की पड़ने दे नहिं छाँव।।
कार्य-क्षेत्र में नहिं बढ़ने दे, हर लेता जो भी है पास।
घोर व्यसन यह तन मन का जो, जीवन में भर देता त्रास।।

आल्हा छंद / वीर छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन,
तिनसुकिया
02-09-16

32 मात्रिक छंद "अनुत्तरित प्रश्न"

जो भी विषय रखो तुम आगे, प्रश्न सभी के मन में मेरे।
प्रश्न अधूरे रह जाते हैं, उत्तर थोड़े प्रश्न घनेरे।।
रह रह करके प्रश्न अनेकों, मन में हरदम आते रहते।
नहीं सूझते उत्तर उनके, बनता नहीं किसी से कहते।।

झूठ, कपट ले कर के कोई, जग में जन्म नहीं लेता है।
दिया राम का सब कुछ तो फिर, राम यही क्या सब देता है?
दूर सदा हम दुख से भागें, रहना सुख में हरदम चाहें।
हत्या कर जीवों की फिर क्यों, लेते उनकी दारुण आहें?

'साँच बरोबर तप' को हम सब, बचपन से ही रटते आये।
बात बात में क्यों फिर हमको, झूठ बोलना निशदिन भाये?
ओरों से अपमानित हम हों, घूँट लहू के आये पीते।
अबलों, दुखियों की फिर हम क्यों, रोज उपेक्षा करके जीते?

सन्तानों से हम सब चाहें, आज्ञा सब हमरी वे माने।
मात पिता बूढ़े जब होते, बोझ समझ क्यों देते ताने?
मान मिले हमको सब से ही, चाहत मन में सदा रही है।
करते रहें निरादर सबका, क्या हमरी ये नीत सही है?

32 मात्रिक छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-11-16

रोचक छंद "फागुन मास"

फागुन मास सुहावना आया।
मौसम रंग गुलाल का छाया।।
पुष्प लता सब फूल के सोहे।
आज बसन्त लुभावना मोहे।।

ये ऋतुराज बड़ा मनोहारी।
दग्ध करे मन काम-संचारी।।
यौवन भार लदी सभी नारी।
फागुन के रस भीग के न्यारी।।

आज छटा ब्रज में नई राचे।
खेलत फाग सभी यहाँ नाचे।।
गोकुल ग्राम उछाह में झूमा।
श्याम यहाँ हर राह में घूमा।।

कोयल बागन बीच में कूँजे।
श्यामल भंवर बौर पे गूँजे।।
शीत विदा अब माँगके जाए।
ग्रीष्म पसारत पाँव को आए।।
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लक्षण छंद:-

"भाभरगाग" रचें सभी भाई।
'रोचक' छंद सजे तभी आई।।

"भाभरगाग" = भगण भगण रगण गुरु गुरु

211  211  212  22 = 11 वर्ण
चार चरण। दो दो समतुकांत
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-02-2017

रुचि छंद "कालिका स्तवन"

माँ कालिका, लपलप जीभ को लपा।
दुर्दान्तिका, रिपु-दल की तु रक्तपा।।
माहेश्वरी, खड़ग धरे हुँकारती।
कापालिका, नर-मुँड माल धारती।।

तू मुक्त की, यह महि चंड मुंड से।
विच्छेद के, असुरन माथ रुंड से।।
गूँजाय दी, फिर नभ अट्टहास से।
थर्रा गये, तब त्रयलोक त्रास से।।

तू हस्त में, रुधिर कपाल राखती।
आह्लादिका,असुर-लहू चाखती।।
माते कृपा, कर अवरुद्ध है गिरा
पापों भरे, जगत-समुद्र से तिरा।।

हो सिंह पे, अब असवार अम्बिका।
संसार का, सब हर भार चण्डिका।।
मातेश्वरी, वरद कृपा अपार दे।
निस्तारिणी, जगजननी तु तार दे।।
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लक्षण छंद:-

"ताभासजा, व ग" यति चार और नौ।
ओजस्विनी, यह 'रुचि' छंद राच लौ।।

"ताभासजा, व ग" = तगण भगण सगण जगण गुरु
(221  211  112   121   2)
13 वर्ण, 4 चरण, (यति 4-9)
[दो-दो चरण समतुकांत]
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-01-19