Tuesday, June 9, 2020

32 मात्रिक छंद "काग दही पे"

इक दिन इक कौव्वे ने छत पर, जूठी करदी दधि की झारी।
नज़र पड़ी माँ की त्योंही वह, बेलन खींच उसे दे मारी।।
लालच का मारा वह कागा, साँस नहीं फिर से ले पाया।
यह लख करुणा मेरी फूटी, काग दही पे जान लुटाया।।

रहता एक पड़ौसी बनिया, कागद मल से जाता जाना।
पंक्ति सुनी उसने भी मेरी, समझा अपने ऊपर ताना।।
कान खुजाता हरदम रहता, रहे कागदों में चकराया।
उसने इसको यूँ कुछ समझा, कागद ही पे जान लुटाया।।

एक पड़ौसी छैले के भी, ये उद्गार पड़े कानों में।
बनिये की थुलथुल बेटी को, रोज रिझाता वो गानों में।।
तंज समझ अपने ऊपर वो, गरदन नीची कर सकुचाया।
उसने इसको यूँ कुछ समझा, का गदही पे जान लुटाया।।

देश काल अरु पात्र देख के, कई अर्थ निकले बातों के।
वाणी पर जो रखें न अंकुश, बनें पात्र वे नर लातों के।।
'नमन' शब्द के चमत्कार ने, मंचों पर सम्मान दिलाया,
शब्दों के कारण कइयों ने, जग में अपना नाम गमाया।।

32 मात्रिक छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-04-18

Wednesday, June 3, 2020

ग़ज़ल (इश्क़ के चक्कर में)

बह्र:- 2122  2122  2122  212

इश्क़ के चक्कर में ये कैसी फ़ज़ीहत हो गयी
क्या किया इज़हार बस रुस्वा मुहब्बत हो गयी।

उनके दिल में भी है चाहत, सोच हम थे खुश फ़हम,
पर बढ़े आगे, लगा शायद हिमाक़त हो गयी।

खोल के दिल रख दिया जब हमने उनके सामने,
उनकी नज़रों में हमारी ये बगावत हो गयी।

देखिये जिस ओर नकली ही मिलें चहरे लगे,
गुम कहीं अब इन मुखौटों में सदाक़त हो गयी।

हुस्न को पर्दे में रखने नारियाँ जलतीं जहाँ,
अब वहाँ इसकी नुमाइश ही तिज़ारत हो गयी।

बस छलावा रह गया जम्हूरियत के नाम पे,
खानदानी देश की सारी सियासत हो गयी।

नाज़नीनों की यही दिखती अदा अब तो 'नमन',
नाज़ बाकी रह गया गायब शराफ़त हो गयी।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-06-19

ग़ज़ल (फँस गया गिर्दाब में मेरा सफ़ीना है)

बह्र:- 2122  2122  2122  2

फँस गया गिर्दाब में मेरा सफ़ीना है,
नाख़ुदा भी पास में कोई न दिखता है।

दोस्तो आया बड़ा ज़ालिम जमाना है,
चोर सारा हो गया सरकारी कुनबा है।

आबरू तक जो वतन की ढ़क नहीं सकता,
वो सियासत की तवायफ़ का दुपट्टा है।

रो रही अच्छे दिनों की आस में जनता,
पर सियासी हलकों में मौसम सुहाना है।

शायरी अच्छे दिनों पर हो तो कैसे हो,
पेट खाली, जिस्म नंगा, घर भी उजड़ा है।

जिस सुहाने चाँद में सपने सजाये थे,
वो तो बंजर सी जमीं का एक क़तरा है।

जी रहें अटकी हुई साँसें 'नमन' हम ले,
रहनुमा डाकू बने नाशाद जनता है,

गिर्दाब = भँवर
नाख़ुदा = मल्लाह

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
7-10-19

ग़ज़ल (आपकी दिल में समातीं चिट्ठियाँ)

बह्र:- 2122  2122  212

आपकी दिल में समातीं चिट्ठियाँ,
गुल महब्बत के खिलातीं चिट्ठियाँ।

दिल रहे बेचैन, जब मिलतीं नहीं
नाज़नीं सी मुस्कुरातीं चिट्ठियाँ।

दूर जब दिलवर बसे परदेश में,
आस के दीपक जलातीं चिट्ठियाँ।

याद में दिलबर की जब हो दिल उदास,
लाख खुशियाँ साथ लातीं चिट्ठयाँ।

रंज दें ये, दर्द दें ये, कहकहे,
रंग सब दिल में सजातीं चिट्ठियाँ।

सूने दिन युग सी लगें रातें हमें,
देर से जब उनकी आतीं चिट्ठियाँ।

जब 'नमन' बेज़ार दिल हो तब लिखो,
शायरी की मय पिलातीं चिट्ठियाँ।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-06-19

Monday, May 18, 2020

गीत (मैं भर के आहें तकूँ ये राहे)

(तर्ज--न जाओ सैंया)
12122 अरकान पर आधारित।

मैं भर के आहें तकूँ ये राहें,
सजन तु आजा सता न इतना, सता न इतना।
सिंगार सोलह मैं कर के बैठी,
बिना तिहारे क्या काम इनका, क्या काम इनका।।

तु ही है मंदिर तु मेरी मूरत,
बसी है मन में ये एक सूरत,
सजा के पूजा का थाल बैठी,
मैं घर की चौखट पे, दर्श अब दे, दर्श अब दे।

तेरी अगर जिद तु घर न आये,
यूँ रात भर नित मुझे सताये,
मेरी भी जिद है पड़ी रहूँगी,
यहीं पे माला मैं तेरी जपती, तेरी जपती।

किसी के ग़म का असर न तुझ पर,
पराई गलियों के काटे चक्कर,
ये घर का प्याला पड़ा उपेक्षित,
लगा के होठों से तृप्त कर दे, तृप्त कर दे।

मैं भर के आहें तकूँ ये राहें,
सजन तु आजा सता न इतना, सता न इतना।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-04-18

गीत (क्या तूने भी देखी कहीं दिवाली)

हे अबोध सुन! क्या तूने भी, देखी कहीं दिवाली?
कहीं मिली तमपूर्ण निशा में, क्या तुझको उजियाली?

मैंने तो उजियालों में, उजियाले होते देखे,
विद्युत से जगमग महलों में, दीपक जलते देखे,
फुलझड़ियों के बीच छूटते, अनार अनेकों देखे,
सजी दुकानों में जगमग, करती देखी दिवाली।
हे नन्हे ! क्या तुझे दिखी, अँधियारों में खुशियाली?

कहकहों ठहाकों बीच, गरजते हुए पटाखे सुने,
मैंने मधुर आरती बीच, मंगलगीत सुरीले सुने,
और और के अपने जन के, आग्रह भोजन मध्य सुने,
बीच बधाई सन्देशों के, मैंने सुनी दिवाली।
हे भूखे ! सड़कों पर क्या तुम, गाते रहे कौव्वाली?

भरे पेट में भी मुझको तो, मिष्ठान्न अनेक मिले,
वैभव वृद्धि के नव अवसर, नये नये परिधान मिले,
मंत्री, संत्री, अफसर, चाकर, सबके ही सत्कार मिले,
डलिया भर भर उपहारों में, मुझे मिली दिवाली।
हे पतझड़ से शुष्क हृदय ! क्या तुझे मिली हरियाली?

हे अबोध सुन! क्या तूने भी, देखी कहीं दिवाली?
कहीं मिली तमपूर्ण निशा में, क्या तुझको उजियाली?

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-10-2016

Wednesday, May 13, 2020

मनहरण घनाक्षरी "जिन्ना का जिन्न"

(फारूक अब्दुल्ला के जिन्ना-प्रेम पर व्यंग)

भारत का अबदुल्ला, जिन्ना पे पराये आज,
हुआ है दिवाना कैसा, ध्यान आप दीजिए।

खून का असर है या, गहरी सियासी चाल,
देशवासी हलके में, इसे नहीं लीजिए।

लगता है जिन्ना का ही, जिन्न इसमें है घुसा,
इसका उपाय अब, सब मिल कीजिए।

जिन्ना वहाँ परेशान, ये भी यहाँ बिना चैन,
दोनों की मिलाने जोड़ी, इसे वहाँ भेजिए।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
04-03-18

दोहा मुक्तक (यमक युक्त-जलजात)

पद्म, शंख, लक्ष्मी सभी, प्रभु को प्रिय जलजात।
भज नर इनके नाथ को, सकल पाप जल जात।
लोभ, स्वार्थ घिर पर मनुज, कृत्य करे अति घोर।
लख उसके इन कर्म को, हरि भी आज लजात।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
19-06-19

केवट प्रसंग (कुण्डलिया)

केवट की ये कामना, हरि-पद करूं पखार।
बोला धुलवाएं चरण, फिर उतरो प्रभु पार।।
फिर उतरो प्रभु पार, काठ की नौका मेरी।
बनी अगर ये नार, बजेगी मेरी भेरी।।
हँस धुलवाते पैर, राम सिय गंगा के तट।
भरे अश्रु की धार, कठौते में ही केवट।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
05-04-2020

Sunday, May 10, 2020

शोभावती छंद (हिन्दी भाषा)

देवों की भाषा से जन्मी हिन्दी।
हिन्दुस्तां के माथे की है बिन्दी।।
दोहों, छंदों, चौपाई की माता।
मीरा, सूरा के गीतों की दाता।।

हिंदुस्तानी साँसों में है छाई।
पाटे सारे भेदों की ये खाई।।
अंग्रेजी में सारे ऐसे पैठे।
हिन्दी से नाता ही तोड़े बैठे।।

भावों को भाषा देती लोनाई।
भाषा से प्राणों की भी ऊँचाई।।
हिन्दी की भू पे आभा फैलाएँ।
सारे हिन्दी के गीतों को गाएँ।।

हिन्दी का लोहा माने भू सारी।
भाषा के शब्दों की शोभा न्यारी।।
ओजस्वी सारे हिन्दी भाषाई।
हिन्दी जो भी बोलें वे हैं भाई।।
==================
मगण*3+गुरु (कुल 10 वर्ण सभी दीर्घ)
चार चरण, दो दो समतुकांत
***********************

बासुदेव अग्रवाल नमन
तिनसुकिया
26-09-18

सुमति छंद (भारत देश)

प्रखर भाल पे हिमगिरि न्यारा।
बहत वक्ष पे सुरसरि धारा।।
पद पखारता जलनिधि खारा।
अनुपमेय भारत यह प्यारा।।

यह अनेकता बहुत दिखाये।
पर समानता सकल बसाये।।
विषम रीत हैं अरु पहनावा।
सकल एक हों जब सु-उछावा।।

विविध धर्म हैं, अगणित भाषा।
पर समस्त की यक अभिलाषा।।
प्रगति देश ये कर दिखलाये।
सकल विश्व का गुरु बन छाये।।

हम विकास के पथ-अनुगामी।
सघन राष्ट्र के नित हित-कामी।।
'नमन' देश को शत शत देते।
प्रगति-वाद के परम चहेते।।
=================
लक्षण छंद:-

गण "नरानया" जब सज जाते।
'सुमति' छंद की लय बिखराते।।

"नरानया" = नगण रगण नगण यगण
(111 212 111 122)
2-2चरण समतुकांत, 4चरण।
***************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
04-07-19

Tuesday, May 5, 2020

ग़ज़ल (मेरी आँखों में मेरा प्यार)

बह्र: 2122/1122 1122 1122  22

मेरी आँखों में मेरा प्यार उमड़ता देखो,
दिले नादाँ पे असर कितना तुम्हारा देखो।

रब ने कितना ये अजीब_इंसाँ बनाया देखो,
नेमतें पा सभी किस्मत का ये मारा देखो।

ज़िंदगी रेत सी मुट्ठी से फिसलती जाये,
इसके आगे ये बशर कितना बिचारा देखो।

इश्क़ का ऐसा भी होता है असर था न पता,
किस क़दर बन गये हम सब के तमाशा देखो।

ले के जायेगी कहाँ होड़ तरक्की की हमें,
कितना आफ़त का ये मारा है जमाना देखो।

ढूँढ़ते तुम हो अगर दीन औ' ईमान यहाँ,
चंद सिक्कों के लिए सड़कों पे बिकता देखो।

नींद में अब भी हो तुम देश के नेताओं अगर,
जागने जनता लगी और ठिकाना देखो।

तुम बुरे वक़्त को यादों से विदा कर दो बशर,
आगे बढ़ना है अगर अच्छे का सपना देखो।

रब ने सब से ही तुम्हें ख़ास बनाया है 'नमन',
खुद को फिर भूल से भी कम न समझना देखो।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
27-08-18

ग़ज़ल (दिल में कैसी ये)

बह्र:- 2122  1212  22

दिल में कैसी ये बे-क़रारी है,
शायद_उन की ही इंतिज़ारी है।

इश्क़ में जो मज़ा वो और कहाँ,
इस नशे की अजब खुमारी है।

आज भर पेट, कल तो फिर फाका,
हमने वो ज़िंदगी गुज़ारी है।

दौर आतंक, लूट का ऐसा,
साँस लेना भी इसमें भारी है।

जिससे मतलब उसी से बस नाता,
आज की ये ही होशियारी है।

अब तो रहबर ही बन गये रहजन,
डर हुकूमत का सब पे तारी है।

उस नई सुब्ह की है आस 'नमन',
जिसमें दुनिया ही ये हमारी है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
2-07-19

ग़ज़ल (उनके फिर से बहाने, तमाशे शुरू)

बह्र:- 212*4

उनके फिर से बहाने, तमाशे शुरू,
झूठे नखरे औ' आँसू बहाने शुरू।

हो गये खेल उल्फ़त के सारे शुरू,
चैन जाने लगा दर्द आने शुरू।

जब सुहानी महब्बत आ घर में बसी,
हो गये दिखने दिन में ही तारे शुरू।

जिनके चहरे में आता नज़र था क़मर,
अब तो उनकी कमर से हो ताने शुरू।

क्या चुनाव_आ गए, रहनुमा दिख रहे,
हर जगह उनके मज़मे औ' वादे शुरू।

इंतिहा क्या तरक्की की समझें इसे,
ख़त्म रिश्ते हुए औ' दिखावे शुरू।

फँस के धाराओं में बंद जो थे 'नमन',
डल की धाराओं में वे शिकारे शुरू।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-09-19

ग़ज़ल (न पैमाना वो जो फिर से भरा)

ग़ज़ल (न पैमाना वो जो फिर से)

बह्र:- 1222*4

न पैमाना वो जो फिर से भरा होने से पहले था,
नशा भी वो न जो वापस चढ़ा होने से पहले था।

बड़ा ही ख़ुशफ़हम शादीशुदा होने से पहले था,
बहुत आज़ाद मैं ये हादिसा होने से पहले था।

बसा देता है दुनिया इश्क़ दिल में ये गुमाँ सबके,
मुझे भी इश्क़ करने की सज़ा होने से पहले था।

भुलाने ग़म तो कर ली मय परस्ती पर पड़ी उल्टी,
बहुत खुश मैं नशे में ग़मज़दा होने से पहले था।

तसव्वुर से तेरे आज़ाद हो कर भी परिंदा यह,
अभी भी क़ैद जितना वो रिहा होने से पहले था।

मेरी तुझसे महब्बत का बताऊँ और क्या तुझ को,
तेरा उतना ही मैं जितना तेरा होने से पहले था।

जुदा इस बात में मैं भी नहीं औरों से हूँ यारो,
हर_इक समझे कि वो अच्छा, बुरा होने से पहले था।

नहीं जिसने कभी सीखा, हुआ जाता ख़फ़ा कैसे,
बताये क्या कि कैसा वो ख़फ़ा होने से पहले था।

'नमन' जब से फ़क़ीरी में रमे बाक़ी कहाँ वो मन,
जहाँ के जो रिवाजों से जुदा होने से पहले था।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-09-19