Wednesday, February 12, 2020

रोला छंद "बाल-हृदय"

भेदभाव से दूर, बाल-मन जल सा निर्मल।
रहे सदा अलमस्त, द्वन्द्व से होकर निश्चल।।
बालक बालक मध्य, नेह शाश्वत है प्रतिपल।
देख बाल को बाल, हृदय का खिलता उत्पल।।

दो बालक अनजान, प्रीत से झट बँध जाते।
नर, पशु, पक्षी भेद, नहीं कुछ आड़े आते।।
है यह कथा प्रसिद्ध, भरत नृप बालक जब था।
सिंह शावकों संग, खेलता वन में तब था।।

नई चीज को देख, प्रबल उत्कंठा जागे।
जग के सारे भेद, जानने पीछे भागे।।
चंचल बाल अधीर, शांत नहिं हो जिज्ञासा।
हर वह करे प्रयत्न, ज्ञान का जब तक प्यासा।।

बाल हृदय की थाह, बड़ी मुश्किल है पाना।
किस धुन में निर्लिप्त, किसी ने कभी न जाना।।
आसपास को देख, कभी हर्षित ये होता।
फिर तटस्थ हो बैठ, किसी धुन में झट खोता।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
17-02-2017

मधुशाला छंद "सरहदी मधुशाला"

रख नापाक इरादे उसने, सरहद करदी मधुशाला।
रोज करे वो टुच्ची हरकत, नफरत की पी कर हाला।
उठो देश के मतवालों तुम, काली बन खप्पर लेके।
भर भर पीओ रौद्र रूप में, अरि के शोणित का प्याला।।

सीमा पर अतिक्रमण करे नित, पहन शराफत की माला।
उजले तन वालों से मिलकर, करता वहाँ कर्म काला।
सुप्त सिंह सा जाग पड़ा तब, हिंद देश का सेनानी।
देश प्रेम की छक कर मदिरा, पी कर जो था मतवाला।।

जो अभिन्न है भाग देश का, दबा शत्रु ने रख डाला।
नाच रही दहशतगर्दों की, अभी जहाँ साकीबाला।
नहीं चैन से बैठेंगे हम, जब तक ना वापस लेंगे।
दिल में पैदा सदा रखेंगे, अपने हक की यह ज्वाला।।

सरहद पे जो वीर डटे हैं, गला शुष्क चाहें हाला।
दुश्मन के सीने से कब वे, भर पाएँ खाली प्याला।
सदा पीठ पर वार करे वो, छाती लक्ष्य हमारा है।
पक के अब नासूर गया बन, वर्षों का जो था छाला।।

गोली, बम्बों की धुन पर नित, जहाँ थिरकती है हाला।
जहाँ चले आतंकवाद का, झूम झूम करके प्याला।
नहीं रहेगी फिर वो सरहद, मंजर नहीं रहेगा वो।
प्रण करते हम भारतवासी, नहीं रहे वो मधुशाला।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
11-10-2016

 16-14 मात्रा पर यति अंत 22

श्रृंगार छंद "सुख और दुख"

सुखों को चाहे सब ही जीव।
बिना सुख के जैसे निर्जीव।।
दुखों से भागे सब ही दूर।
सुखों में रहना चाहें चूर।।

जगत के जो भी होते काज।
एक ही है उन सब का राज।।
लगी है सुख पाने की आग।
उसी की सारी भागमभाग।।

सुखों के जग में भेद अनेक।
दोष गुण रखे अलग प्रत्येक।।
किसी की पर पीड़न में प्रीत।
कई समझें सब को ही मीत।।

किसी की संचय में है राग।
बहुत से जग से रखे न लाग।।
धर्म में दिखे किसी को मौज।
पाप कोई करता है रोज।।

झेल दुख को जो भरते आह।
छिपी सुखकी उन सब में चाह।
जगत में कभी मान अपमान।
जान लो दोनों एक समान।।

कभी सुख कभी दुखों का साथ।
धैर्य का किंतु न छोड़ें हाथ।
दुखों की झेलो खुश हो गाज़।
इसी में छिपा सुखों का राज।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
01-08-2016

Monday, February 10, 2020

विमला छंद "सच्चा सुख"

मन का मारो रावण सब ही।
लगते सारे पावन तब ही।।
सब बाधाओं की मन जड़ है।
बस में ये तो वैभव-झड़ है।।

त्यज दो तृष्णा मत्सर मन से।
जग की सेवा लो कर तन से।।
सब का सोचो नित्य तुम भला।
यह जीने की उच्चतम कला।।

जग-ज्वाला से प्राण सिहरते।
पर-पीड़ा से लोचन भरते।।
लखता जो संसार बिलखता।
दुखियों का वो दर्द समझता।।

जग की पीड़ा जो नर हरता।
अबलों की रक्षा नित करता।।
सबके प्यासे नैन निरखता।
नर वो ही सच्चा सुख चखता।।
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लक्षण छंद:-

"समनालागा" वर्ण सब रखो।
'विमला' प्यारी छंद रस चखो।।

"समनालागा"= सगण मगण नगण लघु गुरु

112  222  111  12 = 11 वर्ण
चार चरण। दो दो समतुकांत
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
14-07-17

Wednesday, February 5, 2020

ग़ज़ल (घबराये हुए लोग हैं)

बह्र:- 221  1221  1221  122

घबराये हुए लोग हैं अनजाने से डर से,
हर एक बशर ख़ौफ़ ज़दा दूजे बशर से।

दूभर है यहाँ आज तो बाहर ही निकलना,
महफ़ूज़ नहीं कोई जमाने की नज़र से।

अनजानी डगर लगने लगी अब मुझे आसां,
जैसे ही पता मुझको चला जाना किधर से।

हम अपनी तरफ से तो बिछा बैठे हैं आँखें,
अब नज़रे इनायत भी तो हो थोड़ी उधर से।

कुछ ऐसा लगे नज़रें मिला दूर हों वे जब,
ज्यों चाँदनी शरमा के छिटक जाती क़मर से।

बेदर्द पिया जैसा तु क्यों अब्र बना है,
कब से ही लगा आस ज़मीं बैठी तु बरसे।

इतनी तु उठा ले ओ 'नमन' अपनी ख़ुदी को,
दुश्मन भी तेरा करने को यारी तेरी तरसे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
26-07-19

गज़ल (जब तक जहाँ में उल्फ़त)

221  2121  1221  212

जब तक जहाँ में उल्फ़त-ए-अल्लाह-ओ-दीं रहे,
तब तक हमारे बीच में कायम यकीं रहे।

शुहरत हमारी गर कभी छूलें भी आसमाँ,
पाँवों तले सदा ही खुदा पर जमीं रहे।

यादों के जलजले में हुआ खंडहर मकाँ,
ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे काबिल नहीं रहे।

दुनिया में हम रहें या नहीं भी रहें तो क्या,
आबाद पर हमारा सदा हमनशीं रहे।

दोनों जहाँ की नेमतें पल भर में वार दें,
सीने से लग के तुम सी अगर नाज़नीं रहे।

क़ातिल सफ़ेदपोश में हो फ़र्क़ किस तरह,
खूनी कटार पर ढ़की जब आस्तीं रहे।

बाकी बची है एक ही चाहत 'नमन' की अब,
बहता वतन के वास्ते अरक़-ए-जबीं रहे।

उल्फ़त-ए-अल्लाह-ओ-दीं = ईश्वर-प्रेम और धर्म
अरक़-ए-जबीं = ललाट का पसीना

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
23-11-17

ग़ज़ल (जीवन पथिक संसार में)

बह्र:- 2212*4

जीवन पथिक संसार में चलते चलो तुम सर्वदा,
राहों में आए कष्ट जो सहके चलो तुम सर्वदा।

अनजान सी राहें यहाँ मंजिल कहीं दिखती नहीं,
काँटों भरी इन राहों में हँसके चलो तुम सर्वदा।

बीते हुए से सीख लो आयेगा उस को थाम लो,
मुड़ के कभी देखो नहीं बढ़ते चलो तुम सर्वदा।

बहता निरंतर जो रहे गंगा सा निर्मल वो रहे,
जीवन में ठहरो मत कभी बहते चलो तुम सर्वदा।

मासूम कितने रो रहे अबला यहाँ नित लुट रही,
दुखियों के मन मन्दिर में रह बसते चलो तुम सर्वदा।

इस ज़िंदगी के रास्ते आसाँ कभी होते नहीं,
तूफान में भी दीप से जलते चलो तुम सर्वदा।

जो देश हित में प्राण दे सर्वस्व न्योछावर करे,
ऐसे इरादों को 'नमन' करते चलो तुम सर्वदा।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
20-10-2016

गीतिका (अभी तो सूरज उगा है)

प्रधान मंत्री मोदी जी की कविता की पंक्ति से प्रेरणा पा लिखी गीतिका।
(मापनी:- 12222  122)

अभी तो सूरज उगा है,
सवेरा यह कुछ नया है।

प्रखरतर यह भानु होता ,
गगन में बढ़ अब चला है।

अभी तक जो नींद में थे,
जगा उन सब को दिया है।

सभी का विश्वास ले के,
प्रगति पथ पर चल पड़ा है।

तमस की रजनी गयी छँट,
उजाला अब छा गया है।

उड़ानें यह देश लेगा,
सभी दिग में नभ खुला है।

भवन उन्नति-नींव पर अब,
शुरू द्रुत गति से हुआ है।

गया बढ़ उत्साह सब का,
कलेजा रिपु का हिला है।

'नमन' भारत का भरोसा,
सभी क्षेत्रों में बढ़ा है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
06-06-2019

Wednesday, January 22, 2020

हाइकु (नव-दुर्गा)

शैलपुत्री माँ
हिम गिरि तनया
वांछित-लाभा।
**

ब्रह्मचारिणी
कटु तप चारिणी
वैराग्य दात्री।
**

माँ चन्द्रघण्टा
शशि सम शीतला
शांति प्रदाता।
**

देवी कूष्माण्डा
माँ ब्रह्मांड सृजेता
उन्नति दाता।
**

श्री स्कंदमाता
कार्तिकेय की माता
वृत्ति निरोधा।
**

माँ कात्यायनी
कात्यायन तनया
पुरुषार्थ दा।
**

कालरात्रि माँ
तम-निशा स्वरूपा
भय विमुक्ता।
**

माँ महागौरी
शुभ्र वस्त्र धारिणी
पाप नाशिनी।
**

माँ सिद्धिदात्री
अष्ट सिद्धि रूपिणी
कामना पुर्णी।
**

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
09-10-19

सायली (होली)

होली
पावन त्योहार
जीवन में लाया
रंगों की
बौछार।
*********

होली
जला देती
अत्याचार, कपट, छल
निष्पाप भक्त
बचाती।
*********

होली
लाई रंग
हों सभी लाल
खेलें पलाश
संग।
*********

होली
देती छेद
ऊँच नीच के
मन से
भेद।
**********

होली
बीस की
कोरोना की तूती
देश में
बोली।
**********

बासुदेव
रखे चाहना
पूरे ग्रूप को
होली की
शुभकामना।

*****
1-2-3-2-1 शब्द
*****

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-03-2017

क्षणिका (वृद्धाश्रम)

(1)

वृद्धाश्रम का
एक बूढ़ा पलास
जो पतझड़ में
ठूँठ बना
था बड़ा उदास!
तभी एक
वृद्ध लाठी टेकता
आया उसके पास
जो वर्षों से
रहा कर वहीं निवास,,,
उसे देता दिलासा, कहा
क्या मुझ से भी ज्यादा
तू है निराश??
अरे तेरा तो,,
आने वाला है मधुमास
पर मैं तो जी रहा
रख उस बसंत की आस....
जब इस स्वार्थी जग में
ले लूँगा आखिरी श्वास।
**
(2)

बद्रिकाश्रम में जा
प्रभु की माला जपना,
अमर नाथ
यात्रा का सपना
वृद्धाश्रम में
आ टूटा।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
01-03-19

कहमुकरी (दिवाली)

जगमग जगमग करता आये,
धूम धड़ाका कर वह जाये,
छा जाती उससे खुशयाली,
क्या सखि साजन? नहीं दिवाली।

चाव चढ़े जब घर में आता,
फट पड़ता तो गगन हिलाता,
उत्सव इस बिन किसने चाखा,
क्या सखि साजन? नहीं पटाखा।

ये बुझता होता अँधियारा,
खिलता ये छाता उजियारा,
इस बिन करता धक-धक जीया
क्या सखि साजन, ना सखि दीया।

गीत सुनाये जी बहलाये,
काम यही सुख दुख में आये,
उसके बिन हो जाऊँ घायल,
क्या सखि साजन? ना मोबायल।

जी करता चिपकूँ बस उससे,
बिन उसके बातें हो किससे,
उसकी हूँ मैं पूरी कायल,
क्या सखि साजन? ना मोबायल।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
10-10-18

Thursday, January 16, 2020

विविध मुक्तक -2

जहाँ भर को ही जबसे आज़माने हम लगे हैं,
हमारी शख्शियत को खुद मिटाने हम लगे हैं,
लगें पर्दानशीं का हम उठाने जबसे पर्दा,
हमारा खुद का ही चेह्रा दिखाने हम लगे हैं।

(1222*3  122)
**********

छिपी हुई बहु मूल्य संपदा, इस शरीर के पर्दों में।
इस क्षमता के बल पर ही तुम, जान फूँक दो गर्दों में।
वो ताकत पहचान अगर लो, रोग मिटा दो दुनिया के।
ढूंढे भी फिर नहीं मिलेंगे, लोग रहें जो दर्दों में।

(लावणी छंद)
**********

जन्म नहीं है सब कुछ जग में, मान प्रतिष्ठा कर्म दिलाता,
जग में होता जन्म श्रेष्ठ तो, सूत-पुत्र क्यों कर्ण कहाता,
ऊँचे कुल का गर्व व्यर्थ है, किया नहीं कुछ यदि जीवन में,
बैन नहीं दिखलाते हैं गुण, गुण तो हरदम कर्म दिखाता।

(32 मात्रिक छंद)
**********
(अखबार)

ज्योंही सुबह होती हमें मिलती खबर अखबार से,
काले जो धंधे उनकी सब हिलती खबर अखबार से,
क्या हो रहा है देश में सब जानकारी दे ये झट,
नेताओं की तो पोल की खिलती खबर अखबार से।

(2212×4)
*********
बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
15-10-18

मुक्तक (इश्क़, दिल)

उल्फ़त में चोट खाई उसका उठा धुँआ है,
अब दिल कहाँ बचा है सुलगी हुई चिता है,
होती है खुद से दहशत जब दिल की देखुँ वहशत,
इस मर्ज की सबब जो वो ही फकत दवा है।

(221  2122)*2
*********

हमारा इश्क़ अब तो ख्वाबिदा होने लगा है,
वहीं अब उनसे मिलना बारहा होने लगा है,
मुझे वे देख, नज़रों को झुका, झट से देते चल,
ख़ुदा क्यों उनसे अब यूँ सामना होने लगा है।

(1222*3 + 122)
*********

दिले नादान हालत क्यों तेरी इतनी हुई नाज़ुक,
कहीं क्या फिर नई इक बेवफ़ा तुझको मिली नाज़ुक,
हसीनों की भला फ़ितरत को तू क्या जान पायेगा,
रखे सीने में पत्थर दिल मगर लगतीं बड़ी नाज़ुक।

(1222×4)
*********

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
24-09-16

पुछल्लेदार मुक्तक "उपवास"

कवि सम्मेलन का आमंत्रण मिला न मुझको आने का।
कर उपवास बताऊँगा अब क्या मतलब न बुलाने का।
मौका हाथ लगा छिप कर के छोले खूब उड़ाने का।
अवसर आया गिरगिट जैसा मेरा रंग दिखाने का।।

उजले कपड़ों में सजधज आऊँ,
चेलों को साथ लाऊँ,
मैं फोटुवें खिंचाऊँ,
महिमा उपवास की है भारी,
बासुदेव कहे सुनो नर नारी।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

मुक्तक (संस्कृति, संस्कार, शिक्षा)

संस्कृति अरु संस्कार हमारे, होते विकशित शिक्षा से,
रहन-सहन, उद्देश्य, आचरण,  हों निर्धारित शिक्षा से,
अंधाधुंध पढ़ाते फिर भी, हम बच्चों को अंग्रेजी,
सही दिशा क्या देश सकेगा, पा इस कलुषित शिक्षा से।

जीवन-उपवन के माली हैं, गुरुवर वृन्द हमारे ये,
भवसागर में डगमग नौका, उसके दिव्य सहारे ये,
भावों का आगार बना कर, जीवन सफल बनाते हैं,
बन्द नयन को ज्ञान ज्योति से, खोलें गुरुजन न्यारे ये।

(ताटंक छंद आधारित)
*********

चरैवेति का मूल मन्त्र ले, आगे बढ़ते जाएंगे,
जीव मात्र से प्रेम करेंगे, सबको गले लगाएंगे,
ऐतरेय ब्राह्मण ने हमको, अनुपम ये सन्देश दिया,
परि-व्राजक बन सदा सत्य का, अन्वेषण कर लाएंगे।

(लावणी छंद आधारित)
*******

मुक्तक (समर्पण)

उपकार को जो मानने में मन से ही असमर्थ है,
मन में नहीं यदि त्याग तो जीने का फिर क्या अर्थ है,
माता, पिता, गुरु, देश हित जिसमें समर्पण है नहीं,
ऐसे अधम पशु तुल्य का जीना जगत में व्यर्थ है।

(2212*4)
******

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
21-11-16

Saturday, January 11, 2020

सरसी छंद "खेत और खलिहान"

सरसी छंद / कबीर छंद

गाँवों में हैं प्राण हमारे, दें इनको सम्मान।
भारत की पहचान सदा से, खेत और खलिहान।।

गाँवों की जीवन-शैली के, खेत रहे सोपान।
अर्थ व्यवस्था के पोषक हैं, खेत और खलिहान।।

अन्न धान्य से पूर्ण रखें ये, हैं अपने अभिमान।
फिर भी सुविधाओं से वंचित, खेत और खलिहान।।

अंध तरक्की के पीछे हम, भुला रहे पहचान।
बर्बादी की ओर अग्रसर, खेत और खलिहान।।

कृषक आत्महत्या करते हैं, सरकारें अनजान।
चुका रहे कीमत इनकी अब, खेत और खलिहान।।

अगर बचाना हमें देश को, मन में हो ये भान।
आगे बढ़ते रहें सदा ही, खेत और खलिहान।।


बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
08-03-18

सार छंद "आधुनिक ढोंगी साधु"

सार छंद / ललितपद छंद

छन्न पकैया छन्न पकैया, वैरागी ये कैसे।
काम क्रोध मद लोभ बसा है, कपट 'पाक' में जैसे।
नाम बड़े हैं दर्शन छोटे, झूठा इनका चोंगा।
छापा तिलक जनेऊ रखते, पण्डित पूरे पोंगा।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, झूठी सच्ची करते।
कागज की संस्थाओं से वे, झोली अपनी भरते।
लोग गाँठ के पूरे ढूंढे, और अकल के अंधे।
बिना उस्तरा के ही मूंडे, चंदे के सब धंधे।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, गये साधु बन ढोंगी।
रमणी जहाँ दिखी सुंदर सी, फेंके फंदे भोगी।
आसमान में पहले टाँगे, लल्लो चप्पो करते।
रोज शान में पढ़ें कसीदे, दूम चाटते फिरते।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, फिर वे देते दीक्षा।
हर सेवा अपनी करवाये, कहते इसको भिक्षा।
मुँह में राम बगल में छूरी, दाढ़ी में है तिनका।
सर पे जटा गले में कण्ठी, कर में माला मिनका।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, छिपे भेड़िये अंदर।
खाल भेड़ की औढ़ रखें ये, झपटे जैसे बन्दर।
गिरगिट से ये रंग बदलते, अजगर से ये घाती।
श्वान-पूंछ से हैं ये टेढ़े, गीदड़ सी है छाती।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, बोले वचन सुहावा।
धुला चरण चरणामृत देते, आशीर्वाद दिखावा।
शिष्य बना के फेंके पासे, गुरु बन देते मंतर।
ऐसे गुरु से बच के रहना, झूठे जिनके तंतर।।

लिंक --> सार छंद / ललितपद छंद विधान

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
22-08-2016

सोरठा "राम महिमा"

मंजुल मुद आनंद, राम-चरित कलि अघ हरण।
भव अधिताप निकंद, मोह निशा रवि सम दलन।।

हरें जगत-संताप, नमो भक्त-वत्सल प्रभो।
भव-वारिध के आप, मंदर सम नगराज हैं।।

शिला और पाषाण, राम नाम से तैरते।
जग से हो कल्याण, जपे नाम रघुनाथ का।।

जग में है अनमोल, विमल कीर्ति प्रभु राम की।
इसका कछु नहिं तोल, सुमिरन कर नर तुम सदा।।

हृदय बसाऊँ राम, चरण कमल सिर नाय के।
सभी बनाओ काम, तुम बिन दूजा कौन है।।

गले लगा वनबास, बनना चाहो राम तो।
मत हो कभी उदास, धीर वीर बन के रहो।।

रखो राम पे आस, हो अधीर मन जब कभी।
प्राणी तेरे पास, कष्ट कभी फटके नहीं।।

सदा रहे आनन्द, रामकृपा बरसे जहाँ।
मन में परमानन्द, माया का बन्धन कटे।।

राम करे उद्धार, दीन पतित जन का सदा।
भव से कर दे पार,  प्रभु से बढ़ कर कौन जो।।

सुध लेवो रघुबीर, दर्शन के प्यासे नयन।
कबसे हृदय अधीर, अब तो प्यास मिटाइये।।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
30-04-19

वर्ष छंद "एक बाल कविता"

बिल्ली रानी आवत जान।
चूहा भागा ले कर प्रान।।
आगे पाया साँप विशाल।
चूहे का जो काल कराल।।

नन्हा चूहा हिम्मत राख।
जल्दी कूदा ऊपर शाख।।
बेचारे का दारुण भाग।
शाखा पे बैठा इक काग।।

पत्तों का डाली पर झुण्ड।
जा बैठा ले भीतर मुण्ड।।
कौव्वा बोले काँव कठोर।
चूँ चूँ से दे उत्तर जोर।।

ये है गाथा केवल एक।
देती शिक्षा पावन नेक।।
बच्चों हारो हिम्मत नाय।
लाखों चाहे संकट आय।।
================
लक्षण छंद:-

"माताजा" नौ वर्ण सजाय।
प्यारी छंदा 'वर्ष' लुभाय।।

"माताजा" = मगण तगण जगण

222  221 121 = 9 वर्ण
चार चरण दो दो समतुकांत।
*******************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया
12-02-2017